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तोरबाज़ एक बेहद गंभीर विषय पर कही गई कहानी है जो संजय दत्त के अभिनय और कुछ बच्चों के मासूम कंधों पर टिकी हुई बोझिल सी फिल्म है।
संजय दत्त हिंदी सिनेमा के शायद पहले अभिनेता हैं जो अपने जीवन के परिस्थितियों में उलझ जाते है और बार-बार उनको अपने फिल्मी करियर में कमबैक देना पड़ता है। कैंसर से लड़ने के बाद संजय दत्त नैटफिलिक्स पर फिल्म “तोरबाज” में दमदार अभिनय के दम पर वापसी कर रहे हैं। यह कमोबेश संजय दत्त का चौथा-पांचवा कमबैक है। संजय दत्त का अपना एक अलग दर्शक वर्ग है जिनके बीच यह फिल्म सराही जा सकती है। संजय दत्त का अभिनय उनको निराश नहीं करेगा वह उनपर भरोसा करके “तोरबाज़” देख सकते है।
निर्देशक गिरीश मलिक ने संजय दत्त, नरगिस फ़ाकरी, राहुल देव और कुछ बच्चों के साथ आतंकवाद और क्रिकेट जो जोड़ते हुए एक उम्मीद की कहानी कहने की कोशिश की है। जिस मुल्क के नई नस्लों ने स्कूल और खेल के मैदान से ज्यादा बंदूक की गोलियों और टैंकों के धमाके ही सुने है। वहां क्रिकेट का खेल जिसका अपना एक अलग ही जूनून और मज़हब है के माध्यम से अपनी कहानी कहना बहुत ही चुनौतिपूर्ण काम है।
यह काम निर्देशक गिरिश मलिक ने अपनी कहानी कहकर करने की कोशिश की है जिसमें उम्मीद, जिंदगी, इंसानियत, अपने सपनों को पूरा करने की चाहत और एक बेहतर कल सब कुछ है। बस दो घंटे और कुछ मिनट की फिल्म बीच में थोड़ी सुस्त हो जाती है। उसे शुरुआत और अंत के तरह चुस्त-दुस्त किया जा सकता था।
गिरीश मलिक ने क्रिकेट के माध्यम से यह कहानी कहने का प्रयास इसलिए किया है क्योंकि अफगानिस्तान में क्रिकेट काफी लोकप्रिय है। हाल के दिनों में अंतराष्ट्रीय क्रिकेट में अफगानिस्तान के प्रदर्शन ने पूरी दुनिया को प्रभावित भी किया है। क्रिकेट अफगानिस्तान में एक नया धर्म और नई नस्ल के बीच नई उम्मीद बन सकती है।
पूर्व आर्मी डॉक्टर नासीर खान (सजय दत्त) अपनी पत्नी और बच्चे को अफगानिस्तान में ही एक धमाके में खो चुका है। उसकी बीबी आशया (नरगिस फ़ाखरी) के साथ मिलकर होप नाम की संस्था चलाती थी जो रिफ्यूजी कैंप में रह रहे लोगों की जिंदगी समान्य करने की कोशिश करती है। अपने परिवार के हादसे से उबरने के लिए नासीर खान भारत से अफगानस्तान वापस आता है उन बच्चों को एक लक्ष्य और उम्मीद देने के लिए क्रिकेट का सहारा लेता है जिनके जुबान पर आतंक के शब्द रटे हुए है।
वह जानता है कि वह जो करने जा रहा है वह केवल एक खेल की बात नहीं है। नासीर इन बच्चों के साथ एक क्रिकेट टीम बनाता है जिसका नाम है “तोरबाज़”। इन बच्चों को अपने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए नासीर जिन चुनौतियों से लड़ता है वही तोरबाज़ की कहानी है। नासीर अपने मकदस में कामयाब होता है या नहीं? मकसद में कामयाब होने के लिए उसे क्या-क्या खोना पड़ता है? ये सब जानने के लिए आपको तोरबाज़ देखनी होगी।
निर्देशक गिरिश मलिक ने बेशक एक अच्छी कहानी बुनने की कोशिश की है। बहुत हद तक वह कामयाब भी होते है पर फिल्म का धीमापन कहानी के बीच में आकर बोझिल लगने लगता है। पटकथा के मामले में कमजोरी दिखती है। कहानी संवेदनशील ज़रूर है पर वह दो घंटे तक केवल संजय दत्त के सहारे बांधे रखेगी कहना मुश्लिल है। फिल्म शुरुआत के समय और अंत में बांधे रखती है, बीच में थोड़ी बोझिल हो जाती है।
वहां बच्चों के बीच के संवाद और हंसी मजाक से काम चलाना पड़ता है। संजय दत्त के अलावा अन्य कलाकार सामान्य ही रहे है। संजय दत्त के बाद फिल्म के मुख्य आकर्षण बच्चे हैं जो शानदार रहे हैं खासकर एशान जावेद मलिक, रेहान शेख और रूद्र सोनी। राहुल देव से और बेहतर काम लिया जा सकता है वह अधिक प्रभावित नहीं करते है।
“सुसाइड बर्मस” दहशत और आतंकवाद के दुनिया में यह बहुत पुराना शब्द है। चूंकि फिल्म की कहानी अफगानिस्तान की है इसलिए वहां इसके लिए “तालिबानी” शब्द का इस्तेमाल होता है। फिल्म आतंकवाद, तालिबान, अफगानिस्तान में नस्ली आधार पर भेदभाव, बच्चों के अंदर उम्मीद इन सभी बातों की बात करती है। कुछ दृश्य जैसे एक बच्च बाज़ अकेले में एक गुड़िया और चाकू लेकर जेहाद करने की जो कसम खाता वह बहुत परेशान करने वाला है।
अफगानिस्तान के खूबसूरत नज़ारों को कैमरे में बड़ी जतन से कैद किया गया है। फिल्म में गानों ने अधिक प्रभावित नहीं करते है वह आते है और चले जाते है उनके बिना भी यह कहानी कही जा सकती है। कम शब्दों का सहारा लूं तो तोरबाज़ एक बेहद गंभीर विषय पर कही गई कहानी है जो संजय दत्त अभिनय और कुछ बच्चों के मासूम कंधों पर टिकी हुई फिल्म है जो प्रभावित तो करती है पर दशर्कों पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाती है।
मूल चित्र : Screenshot from the film, Torbaaz, Netflix
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