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वडोदरा में दंपत्ति के तलाक के इस केस का कारण है कि पत्नी को शादी के दौरान महावारी हो रही थी और पति इससे वाकिफ नहीं था। और यही एक वज़ह है।
महिलाओं और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर हमारा समाज हमेशा ही चुप रहता है। उनके बारे में बात करना भी समाज को अखरता है। ऐसा ही एक मुद्दा है माहवारी। महिलाओं को माहवारी के बारे में खुलकर बात करने की कोई आज़ादी नहीं है और ना ही इससे जुड़ी मुश्किलों को उजागर करने की आज़ादी है। 21वीं सदी का यह विज्ञान और तकनीक वाला समाज आज भी महावारी को प्राकृतिक मानने से इंकार करता है। इसका स्पष्ट उदहारण है हाल ही में गुजरात में घटी यह घटना।
जनवरी में शादी के बंधन में बंधे एक दंपत्ति की शादी टूटने का कारण और कुछ नहीं पत्नी की माहवारी बनी। पत्नी को शादी के दौरान महावारी हो रही थी और पति इससे वाकिफ नहीं था। इसी कारण को लेकर पति ने अदालत में तलाक की अर्ज़ी लगायी है। पति का कहना है कि उन्हें अँधेरे में रखा गया और उनका विश्वास टूट गया है। उनकी पत्नी ने शादी के तुरंत बाद मंदिर में जाते समय अपनी माहवारी की बात बताई।
इतना ही नहीं पति का यह भी मानना है कि पत्नी की इस हरकत की वजह से उनका धर्म भ्रष्ट हो गया है। धर्म का हवाला देकर वो अपनी पत्नी को तलाक देना चाहते हैं। हम सब इस बात को बखूबी जानते हैं कि किसी भी धर्म में मासिक धर्म के दौरान धार्मिक स्थल में जाने की मनाही है। धार्मिक क्षेत्र पर तो सदा ही पुरुषों का अधिपत्य रहा है और महिलाओं को हमेशा हर धर्म में कमतर माना गया है।
हमारे समाज में आज बहुत सी समाज सेवी संस्थाएँ माहवारी के प्रति सजगता बढ़ने के लिए काम कर रही हैं और उनका दिन रात यह ही प्रयास रहता है कि लोग माहवारी को प्राकृतिक समझने लगे। इस किस्से में भी ऐसा ही हुआ, माहवारी को महामारी की तरह देखा जा रहा है। माहवारी के कारण एक पति अपनी पत्नी को तलाक देता है जैसे माहवारी कोई जानलेवा बीमारी है। यह एक बहुत ही प्राकृतिक प्रक्रिया है जो इस पृथ्वी पर प्रजनन के लिए ज़िम्मदार है।
यह समाज कब महिलाओं और उनके मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनेगा? वडोदरा का यह युवक एक प्राइवेट कम्पनी में कार्यरत है और महिला एक टीचर है। साथ ही में युवक ने महिला पर और आरोप लगाए हैं, जैसे कि छत से कूदकर जान देने की धमकी देना, उनसे 5000 रूपये प्रतिमाह माँगना आदि। यह सब बातें तो बाद में साफ़ होंगी लेकिन इस मामले से एक बात साफ़ है कि पढ़े-लिखे होने के बाद भी संवेदनशीलता का होना ज़रूरी नहीं है।
अक्सर यह कहा जाता है कि अब समय बदल रहा है यह सब तो सिर्फ गॉंवों में होता है जहाँ जागरूकता में कमी है, लेकिन सत्य तो यह है कि आज भी बड़े-बड़े शहरों में महिलाओं के प्रति माहवारी जैसी प्राकृतिक और सहेज मुद्दे को लेकर भेदभाव होता है। ज़रुरत है कि माहवारी को हम एक सामान्य प्राकृतिक रूप में देखें जिससे हम महिलाओं के प्रति संवेदनशील बन पाएं।
मूल चित्र : Amish Thakkar via Unsplash (for representational purpose)
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism. read more...
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