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रेणुका शहाणे की फिल्म त्रिभंग ने एक बार फिर इन मुद्दों को चर्चा का विषय बनाया है 

रेणुका शहाणे की फिल्म का शीर्षक ‘त्रिभंग’ नृत्य की एक जटिल भंगिमा से लिया गया है जो एक ऐसी स्त्री अपने लिए प्रयोग करती है जिसके रिश्ते 'आदर्श' से बहुत दूर हैं। 

रेणुका शहाणे की फिल्म का शीर्षक ‘त्रिभंग’ नृत्य की एक जटिल भंगिमा से लिया गया है जो एक ऐसी स्त्री अपने लिए प्रयोग करती है जिसके रिश्ते ‘आदर्श’ से बहुत दूर हैं। 

एकल माँ/ पिता या एकल संतान को आज भी हमारा भारतीय समाज सामान्य नहीं मानता। हाल ही में नेटफ़्लिक्स पर रेणुका शहाणे द्वारा निर्देशित फिल्म त्रिभंग ने एक बार फिर इन मुद्दों को चर्चा का विषय बनाया है। 

1952 में भारत सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम को एक नया नारा दिया था – “हम दो हमारे दो।” आज लगभग 60 साल बाद भी भारतीय समाज उसी आदर्श को सीने से चिपकाये हुए है, बल्कि इसे यहाँ और भी विभत्स बना दिया गया है- इसका अर्थ है “सामान्य” परिवार की परिभाषा को पुरुष-स्त्री और दो बच्चे (एक लड़का अवश्य हो) तक सीमित कर देना।

फिल्म का शीर्षक ‘त्रिभंग’ नृत्य की एक जटिल भंगिमा से लिया गया है जो एक ऐसी स्त्री अपने लिए प्रयोग करती है जिसके रिश्ते एक बेटी और एक माँ के रूप में आदर्श से बहुत दूर हैं, अभंग वो स्त्री है जो समाज में सफल और आदर्श है लेकिन अपने बच्चों के लिए बुरी माँ बताई जाती है और इनके विपरीत समभंग या “सामान्य” उसको बताया जा रहा है जो एक सिर पर पल्लू रखने वाली, आज्ञाकारी बहु है, उद्देश्य है परिवार और पति के लिए बेटा पैदा करना। उसका परिवार सुरक्षा और परवाह के नाम पर उसके पल-पल की खबर ही नहीं रखता बल्कि उसके हर फैसले पर नियंत्रण भी चाहता है- ये है आदर्श!

अच्छा है की ये फिल्म माँ-बेटी के रिश्ते को “आदर्श” और भावनाओं से अलग देखने का नया प्रयास है, लेकिन फिर भी कथानक हमारे समाज की ही तरह बार-बार अपने आंतरिक स्त्रीद्वेष का प्रदर्शन करती है।

  1. फिल्म में अधिकतर गालियां औरतों के जिस्मों या सेक्स को लेकर ही हैं तो उनके इस्तेमाल से औरतें एक तरह से खुद को गाली देती हैं किसी और को नहीं। प्रोग्रेसिव होने या दिखने के लिए गाली वाली भाषा ज़रूरी नहीं, ये शायद ये स्त्रीवादी फिल्म भूल जाती है।
  2. औरतों के विकल्प हमेशा ही मुश्किल होते हैं, मुश्किल फैसलों की कीमत भी अक्सर उन्हीं को चुकानी पड़ती है। लेकिन अभी इस समाज में औरत के पास गरिमा से जीने के लिए इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं। औरतों के फैसलों की वैद्यता और नैतिकता को बार-बार यहाँ कटघरे में खड़ा किया गया है जबकि पुरुषों/पिताओं को बस दो पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रूढ़ प्रारूपों से दर्शाया है – आदर्श बेचारा पुरुष या शोषक।
  3. शादी के आदर्श को अवश्य ही फिल्म चुनौती देती है लेकिन ये अलगाव या डिवोर्स से शादी को एक बेहतर परिस्थिति के रूप में ही दर्शाती है, और औरतों को ही परिवार तोड़ने या परिवार- विरोधी रूपों में ही दर्शाती है। “सामान्य” परिवार को बनाये रखने के लिए स्त्री को अपनी पहचान को गिरवी रखना मानो अनिवार्य बताया गया है। 
  4. ज़रूरी नहीं की सिंगल मदर, या कामकाजी माँ, या दूसरी शादी करने वाले माँ-बाप बुरे पैरेंट होते हैं और हर हाल में (एब्यूज़, मारपीट, शाब्दिक हिंसा) शादी बचा लेने वाले माँ बाप महान, फिल्म दिखाती है कि सिंगल पैरेंट कुछ भी कर लें वो दो माँ-बाप वाले आदर्श परिवार से कम ही आंके जायेंगे और उनके बच्चे अभावहीनता से ग्रस्त रहेंगे ही, ये आज के युग में कितनी दकियानूसी सोच है! 
  5. हिंदी फिल्में स्टेप फादर को बस रेपिस्ट/मोलेस्टर दिखाती आयी है, ऐसी अनेक घटनाएँ होती भी हैं लेकिन रेपिस्ट तो यहाँ बायोलॉजिकल बाप, भाई, ताया-चाचा-मामा, भाई कजिन भी होते हैं? इस दुर्भावना को सिंडरेला काम्प्लेक्स कहा जाता है कि सौतले माता-पिता तो बुरे होंगे ही जबकि ऐसा सामान्यीकरण सही नहीं, शोषक तो कोई भी हो सकता है जन्म देने वाले माता-पिता भी।
  6. “बिन बाप का बच्चा” या अनब्याही माँ होने को लेकर भी जो रूढ़ियाँ हैं वो कम नहीं। बाप बच्चे त्याग दे तो वो स्वीकार्य है लेकिन माँ ऐसा करे तो? हालाँकि फिल्म में कोई भी माँ अपने बच्चों को त्यागती नहीं लेकिन फिर भी बुरी अभिभावक वही रहती है।
  7. “सामान्य” और प्रेमिल दिखने वाले परिवार भी शोषण करते हैं लेकिन वो भावनात्मक अधिक होता है – आपके सभी निर्णय लेना, आपके आने-जाने, दोस्ती, काम पर नियंत्रण रखना, आपको सुरक्षा के नाम पर क़ैद रखना। लेकिन फिल्म इसको आदर्श और बेहतर विकल्प बना कर दिखाती है और इस तरह भावनात्मक शोषण का भी सामान्यीकरण करती है।
  8. भारतीय परिवार अपने पुत्र-मोह से कभी मुक्त नहीं हो पाते। परिवार शोषण दोनों का करते हैं लेकिन लड़कों को टॉक्सिक मस्क्युलैनिटी(toxic masculinity में क़ैद करके और बेटियों को “अच्छी लड़की”, “अच्छी औरत” के लेबल का बोझ दे के। 
  9. तलाक या माता-पिता का अलगाव कभी आसान नहीं होता ये सच है लेकिन ये उतना भयावह भी नहीं जितना दर्शाया जाता है कुछ शादियाँ इससे कहीं ज़्यादा भयावह होती हैं। 
  10. सिंगल पैरेंट के बच्चों को ऐसे समाज में कमतरी का एहसास अक्सर करवाया जाता है, लेकिन सभी दोनों माता-पिता के साथ बड़े हुए लोग ही “नार्मल” होते हैं ये मानना बहुत ही रूढ़िवादी है। 

“हम दो हमारे दो” आदर्श नहीं है। सिंगल पैरेंट और सिंगल चाइल्ड भी सामान्य ही हैं। माँ को भी उसके नाम से पुकारना भी सामान्य है, किसी स्त्री का बिन ब्याही माँ बनना भी सामान्य, शादी के अलावा भी दो वयस्कों के बीच मर्ज़ी से अन्य तरह के रिश्ते सामान्य हैं और एकल माओं का अपने लिए साथी चाहना भी सामान्य, काश रेणुका शहाणे की फिल्म त्रिभंग ये सब दिखा पाती।

मूल चित्र : Screenshot of film, YouTube

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Pooja Priyamvada

Pooja Priyamvada is an author, columnist, translator, online content & Social Media consultant, and poet. An awarded bi-lingual blogger she is a trained psychological/mental health first aider, mindfulness & grief facilitator, emotional wellness read more...

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