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तीन महिला और उनकी अभंग-समभंग और त्रिभंग कहानी है ये फिल्म…

फिल्म त्रिभंग से, "कभी-कभी सोचती हूं काश ये मेरे किरदार होते, फिर मैं उन्हें अपनी मनचाही दिशा में ले जाती और फिर वो मुझे प्यार करते" ज़हन में बस गयी है... 

फिल्म त्रिभंग से, “कभी-कभी सोचती हूं काश ये मेरे किरदार होते, फिर मैं उन्हें अपनी मनचाही दिशा में ले जाती और फिर वो मुझे प्यार करते” ज़हन में बस गयी है… 

नेटफ्लिक्स पर रेणुका शहाणे अपनी पहली हिंदी फिल्म में मां-बेटी के बिगड़ते-बनते रिश्ते की एक कहानी ‘त्रिभंग’ कही है, जो तीन पीढ़ियों की महिलाओं की कहानी कहती है। ये वास्तव में तीन पीढ़ी के प्रतिभा-परंपरा और जिद्द की भी कहानी है।

फिल्म त्रिभंग साथ ही साथ महिलाओं से जुड़े कई सामाजिक मुद्दों पर भी बात करती है मसलन, महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रही मानसिकता, घरेलू हिंसा, परिवार में हो रहे शारीरिक शोषण और  महिलाओं के गहरे संवेदनाओं से जुड़ा हुआ एक तार जिसकी हिंदी सिनेमा बहुत कम ही सरगम सुनाता है। अगर सुनाता भी है तो उसमें तारणहार के रूप में एक मर्द हीरो के तरह आता है और हर दुख-तकलीफ को हर लेता है। त्रिभंग में यह एक सकून के तरह है कि कहानी में कोई तयशुदा फार्मूला वाला हिरो नहीं है।

त्रिभंग की शुरुआत

शुरुआत में त्रिभंग की कहानी एक लेखिका की आटोबायग्राफी के तरह लगती है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है तो एक लेखिका कि प्रतिभा, फिर उसकी नृत्यांगा बेटी की जिद्द और फिर उसकी बेटी के परंपरा को समेटने की कहानी को बयां किया है।

कहानी शुरू डेस्कटांप पर नयनतारा, अनुराधा और माशा के तस्वीर से होती है और अंत में फिर एक तस्वीर पर आकर खत्म हो जाती है जिसमें नयनताता आप्टे(तन्वी आज़मी) एक किताब पढ़ रही है, अनुराधा (काजोल) अपने पैरों में घंघूरू बांध रही है और माशा(मिथिला पालकर) गुड्डे-गुड़िया हाथ में लेकर परिवार का सपना बुन रही है।

तन्वी एक मशहूर लेखिका है उसकी बेटी अनुराधा एक सिग्ल मदर है, डांसर, अभिनेत्री है दोनों के जीवन में शांत पानी जैसे ठहराव नहीं है हलचल है इसलिए माशा  एक अलग राह चुनती है जो उसकी मां और नानी ने नहीं चुनी। कहानी का एक खुबसूरत पक्ष यह भी है कि तन्वी और अनुराधा अपने जीवन के फैसलों का मूल्यांकन करती हैं, उन पर अभिमान भी करती है और अफसोस भी।

फिल्म त्रिभंग की तारीफ में कुछ शब्द

आधी-आबादी की हर एक महिला को अपने स्वतंत्रता और समानता के जीवन की तलाश है पर अपने अस्तित्व के तलाश में वह जो फैसले करती है, जो बेमिसाल और अलहदा भी होते हैं, इसका सबसे पहला प्रभाव उन पर पड़ता है जिनसे वह सबसे ज्यादा प्यार करती हैं। वजह स्वतंत्रता और समानता से अपने अस्तीत्व बनाती महिलाओं के फैसलों को समाज के पूर्वाग्रही सोच ने मज़ाक बनाकर एक गिल्ट छोड़ दिया। एक ऐसा गिल्ट जो उनके अपने चुनाव खुद करने की आज़ादी होने के बावजूद वह गलत महसूस करवाने लगते है।

स्कूल में किसी बच्ची से टीचर और मासूम बच्चों का तलाक और सिगल मदर पर सवाल पूछना और उसका सही जवाब नहीं देकर मज़ाक बनाना यही बताता है कि समाज ने अपनी संस्थाओं को कभी संवेदनशील बनाया ही नहीं महिला अस्मिता के सवालों पर।

क्या है अंभग-समभंग से बनी त्रिभंग की कहानी

रेणुका राहणे ने अपनी कहानी सुनाने के लिए नाटकों के तरह एक सूत्रधार चुना है जो कहानी के मुख्य कलाकारों के बीच टूटे तार की कड़ियों को जोड़ता है, यही फिल्म की कहानी बन जाती है। सूत्रधार के रूप में राइटर मिलन(कुणाल कपूर रांय) को चुना है जो अपनी आदर्श लेखिका नयनतारा आप्टे की बायोग्राफी लिखने के लिए विडियों इंटरव्यू करता है। अपनी बायोग्राफी के लिए वह नयनतारा कि बेटी और नतनी से भी सवाल करता है और उनका जवाब कहानी में जुड़ते चले जाते हैं। इंटरव्यू के सवालों का जवाब फ्लैशबैंक में ले जाता है जिसमें अपनी ज़िंदगी के कुछ अहम फैसले और उसका बच्चों पर पड़े प्रभाव के बारे में विस्तार से बताती हैं।

हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं कि मिलन, नयनतारा की डांसर बेटी अनुराधा और मासा से बात करता है और नयनतारा से हुई बात-चीत का एक टुकड़ा सुनाता है। तब अनुराधा अपनी मां के साथ अपने समीकरण और जिंदगी को लेकर आत्ममंथन करती है जो कहानी को अतीत में ले जाकर फिर वर्तमान में ला देती है।

यही आत्ममंथन नयनतारा के एक संवाद में भी आता हैं – इतना प्यार है मेरे बच्चों में और इतनी बड़ी खाई उनके और मेरे बीच में। कभी-कभी सोचती हूं काश ये मेरे किरदार होते, फिर मैं उन्हें अपनी मनचाही दिशा में ले जाती और फिर वो मुझे प्यार करते। नयनतारा का आत्ममंथन उसके आवाज का दर्द एक-एक शब्द में उतरता है,अनुराधा का दर्द कभी गुस्से में बड़बोलकर तो कभी  में रोते हुए और माशा का आत्ममंथन अपनी परिस्थितियों से सामज्स्य बनाते हुए दिखता है।

कलाकारों की अदायगी और सधा हुआ अभिनय

अपनी कहानी को कहने के लिए रेणुका शहाणे ने जिन कलाकारों को लिया है उनका अभिनय बेहद सधा हुआ और नपा-तुला-संतुलित है। तन्वी आज़मी, कुणाल रांय कपूर, काजोल, मिथिला हर कलाकार अपने लय में और रेणुका शहाणे के निर्देशन में सधा हुआ अभिनय दिखया है। हर कलाकार से उतना ही लिया गया है जितनी कहानी को जरूरत थी और सब ने कहानी को अपने अभिनय में उतार लिया है। बेशक तन्वी आज़मी और काजोल कहानी के मुख्य किरदार है उनका काम कहानी के अनुसार संतुलित भी दिखता है।

हिंदी सिनेमा में अपने निर्देशन में पहली कहानी कहने वाली रेणुका शहाणे ने इतने शानदार तरीके से कहानी बुनी है कि वह कहीं भी भटकती नहीं है। आज हिंदी सिनेमा में महिलाओं के विषय पर बहुत सारी कहानी कही जा रही है पर बहुत कम कहानी है जो दर्शकों के दिल में उतर जाए। रेणूका शहाणे इसमें कामयाब दिखती हैं। कलाकार और कहानी का संवाद फिल्म की यूएसबी है।

प्रतिभा, जिद्द, परंपरा इन तीनों को मुख्य किरदारों में इतने ही संजीदा तरीके से उतारा गया है कि कहानी कहीं भी ऊबाऊ नहीं बनती है। तीन पीढ़ियों के महिलाओं के बीच बिगड़ते-बनते रिश्तों जिसको समाजशास्त्री जेनरेशन गैप से परिभाषित करते है उसके भावपूर्ण संबंधों को देखने के लिए त्रिभंग जरूर देखनी चाहिए, खासकर पुरुषों को क्योंकि उनको यह समझना अधिक जरूरी है कि सामाजिक नैतिकता को बनाये रखने के लिए पुरुषवादी संहिता ने जो नियम-कायदे तय कर रखे हैं, वह महिलाओं के जीवन के अनुभवों को कितना कटु बना देते हैं।

मूल चित्र : Screenshot from Movie, Netflix  

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