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काली बकसिया : साधारण परिवारों की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां

लेखिका आभा श्रीवास्तव के नया कहानी संग्रह काली बकसिया की सभी कहानियाँ साधारण परिवारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं।

लेखिका आभा श्रीवास्तव के नया कहानी संग्रह काली बकसिया की सभी कहानियाँ साधारण परिवारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं।

“कहानियाँ खोजी नहीं जातीं, गढ़ी नहीं जातीं, वे तो हमारे-आपके रोज़मर्रा के जीवन के आसपास बिखरी रहती हैं” हिन्द युग्म से प्रकाशित हुआ लेखिका आभा श्रीवास्तव का नया कहानी संग्रह काली बकसियाअसल में इस बात को सच साबित करता है। उनकी इस किताब की सभी कहानियाँ साधारण परिवारों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं।

किताब में कुछ कहानियाँ नए दौर की नई ज़िंदगी से बेहद दूर हैं। कहानियों का कॉन्सेप्ट एक पीढ़ी पुरानी ज़िंदगी या छोटे शहरों के ऐसे परिवारों से जुड़ा हुआ है, जो न तो पूरी तरह से आधुनिक हैं न ही एकदम दकियानूसी। लेकिन फिर भी, कहानी को लिखने का तरीका कहीं-कहीं पुराना है और कहीं-कहीं भाषा अप्रासंगिक भी है। जैसे ‘प्रायश्चित’ कहानी में नायिका जो अपनी सहेली नंदी की कहानी बता रही है, कई बार उसकी भाषा इतनी विशुद्ध है कि कहानी के पात्र ‘रियलिस्टिक’ नहीं लगते।

भाषा कहानी और पात्रों की माँग के अनुसार होनी चाहिए, लेकिन कई हिंदी लेखकों की तरह, इस किताब में भी लेखिका की भाषा इतनी विशुद्ध है कि कहानियों के किरदारों से गहराई से जुड़ पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है।

काली बकसिया की पहली कहानी में है कमज़ोर स्त्री किरदार

किताब की पहली ही कहानी, ‘तर्पण’ उसी पुराने नैरेटिव को स्थापित करती है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। पूरी कहानी में परिवार की औरतों द्वारा की गई साज़िशें ऐसे हाईलाइट की गईं हैं जैसे यह सब कर पाना औरतों के लिए बेहद आसान हो, औरत ही क्लेश का कारण होती है और परिवार के बाकी सदस्य तो इतने समझदार होते ही नहीं कि सही-ग़लत का अंतर कर सकें।

ऐसा नहीं है कि जैसा कहानी में बताया गया है, वैसे परिवार नहीं होते। समस्या यह है कि कहानी में बहुत आसानी से परिवार की औरत को ही हर ‘पाप’ के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया है, जो कि समाज में फैला वही पुराना पूर्वाग्रह है। इसीलिए पहली कहानी में कुछ भी नया नहीं, वह सास-बहू वाले टीवी सीरीयल्ज़ की स्क्रिप्ट अधिक जान पड़ती है।

दूसरी कहानी है और भी प्रॉब्लमेटिक

यह कहानी नायक ‘ज्ञान’ की दृष्टि से लिखी गई है, जिसे अपने पुराने प्यार यानी नायिका ‘सुनयना’ की बेटी की शादी में जाने का निमंत्रण मिलता है तो वह अपने बीते हुए कल की यादों में खो जाता है और कहानी पढ़ने के बाद पाठक को यह एहसास होगा कि असल में ज्ञान हमेशा ही अपने कल की यादों में जीता रहा है। सबसे बुरी बात है कि कहानी में एक पुरुष की दृष्टि से जिस तरह नायिका का वर्णन किया गया गया है, वह सीधे-सीधे ऑब्जेक्टीफिकेशन ही है :

“अरे, आप तो ज़रा भी नहीं बदले।” – सुनयना अपनी स्थूल काया सम्भालते हुए आगे बढ़ी। उसका फटा स्वर सुनकर मैं हतप्रभ था।  – इसके आगे ज्ञान ने सुनयना के बूढ़े शरीर का जो वर्णन किया है, उसे पढ़कर हैरानी ही होती है कि आज भी एक पुरुष की दृष्टि से औरतों का ऐसा वर्णन करना आख़िर कितना सही है?

उस पर से हास्यपद बात यह भी है कि जिस पूर्व प्रेमिका की बेटी की शादी में ज्ञान गया है, उसे अपने परिवार और अपनी दुनिया में व्यस्त देखकर ज्ञान सोचता है कि शायद अब सुनयना के मन में उसके लिए कोई ‘कोमल भावना’ बची ही नहीं।

सालों पहले जो औरत अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ गई, उसके मन में अब, इतने सालों बाद अपने लिए किसी भी तरह की ‘कोमल भावना’ तलाशना या ऐसी भावना के होने की उम्मीद रखना, असल ज़िंदगी से तो ख़ैर दूर ही है लेकिन यह बात नायक के ‘मेल एंटाइटलमेंट’ को भी उजागर करती है। ‘मेल एंटाइटलमेंट’ का मतलब है कि पुरुष औरतों से ऐसी अपेक्षाएँ रखें जिसमें सिर्फ उनका स्वार्थ हो, और अपेक्षाएँ रखना वे अपना अधिकार समझते हैं क्योंकि वे ‘पुरुष’ हैं।

ज़ाहिर है कि ज्ञान वही पुरुष है, जो सालों बाद भी अपनी पूर्व प्रेमिका से उम्मीद रखता है कि उसके मन में ज्ञान के लिए कोई भावना बची हो। और तो और सुनयना को एक आम औरत की ज़िंदगी जीते देख उसकी फैंटसी का बुलबुला फूट जाता है तो वह ऐसे घबराता और दुखी होता है जैसे उसके साथ कोई अनहोनी घट गई हो।

तीसरी कहानी मेंटॉक्सिक नैरेटिव  को गढ़ दिया गया है

तीसरी कहानी प्रायश्चित, हालाँकि असल ज़िंदगी से जुड़ी हुई ही लगती है, लेकिन उसके बाद भी बलात्कार जैसे अपराध को ‘पुरुष ने अपने दुःख में ग़लत कदम उठा लिया’ के रूप में दिखाया गया है – मतलब ‘लड़के हैं और लड़कों से ग़लती हो जाती है’ वाली बात।

उसमें भी, बलात्कार को ‘शराब के नशे में किया गया पाप’ बताकर समाज के पूर्वाग्रहों को ही दोहराया गया है। सोचने वाली बात है कि दुःख और शराब के नशे में भी कोई पुरुष बलात्कार ही करे, यह ज़रूरी तो नहीं? तथ्यों की मानें तो ज़्यादातर बलात्कार पूरे होश में, सोच-समझकर किए जाते हैं। कहानी में पुरुष को ही पीड़ित के रूप में दर्शा दिया गया और बलात्कार जैसे गम्भीर अपराध के इर्द-गिर्द एक ‘टॉक्सिक नैरेटिव’ गढ़ दिया गया।

जिस लड़की के साथ यह अपराध हुआ, उसी लड़की की शादी अपने बलात्कारी से करा दी गई क्योंकि वह माँ बनने वाली थी। चाहे कितनी भी सुंदर भाषा में कहानी लिखी गई हो, लेकिन कहानी का कॉन्सेप्ट बहुत बुरा है। ‘काली बकसिया’ कहानी जो किताब का शीर्षक भी है, उसमें भी वही पूर्वाग्रह हैं।

प्रेमी मुस्लिम था तो रिश्ता न जुड़ने पर वह अपने दोस्तों के साथ मिलकर प्रेमिका के साथ दुर्व्यवहार करता है। और प्रेमिका के घर वाले ही आख़िर में सही साबित होते हैं। मतलब ऑनर किलिंग तो समाज में होती ही नहीं, परिवार ही हमेशा सही होते हैं और प्रेमी अगर दूसरी जाति या धर्म से है, तो वह अवसरवादी ही होगा।

काली बकसिया की अगली कहानी में स्त्री किरदार को बेबस बताया गया है

अगली कहानी ‘मुक्ति’ अन्य कहानियों की तुलना में फिर भी ठीक है, लेकिन उसमें भी स्त्री किरदार को इतना बेबस बताया गया है कि जब उसके पास किसी का सहारा नहीं होता तो वह आख़िर में आत्महत्या कर लेती है। पर क्या इस कहानी की नायिका को इतना बेबस बताया जाना ज़रूरी था ?
कितनी ही औरतें हैं जो मुश्किल से मुश्किल हालात में भी जी जाती हैं, पर यह सोचने वाली बात है कि दुनिया आख़िर जीने वाली औरतों के बजाय मृत औरतों की कहानी को ही क्यों बार-बार बताना चाहती है।

कहानी ‘बंदिनी’ भी पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है

काली बकसिया की कहानी ‘बंदिनी’ भी पूर्वाग्रहों से भरी पड़ी है। “क्या कोमल हृदया नारी भी समय पड़ने पर हत्या जैसा अपराध कर सकती है ?” किसी एक जेंडर में भावनाएँ अधिक या किसी एक में कम नहीं होतीं, इस बात पर बार-बार ज़ोर दिया जाता रहा है कि औरत अगर ज़्यादा कोमल है, तो वह उसकी सोशल कंडीशनिंग के कारण। प्राकृतिक रूप से औरत और पुरुष, दोनों की मानसिक और भावनात्मक स्थिति एक जैसी ही होती है, पर इस बात को स्वीकार करने के बजाय हम अब भी ‘कोमल हृदय वाली नारी’ की छवि ही बनाए रखना चाहते हैं।

काली बकसिया की बाकी कहानियों में भी एक जैसी बातें ही दोहराई गयीं हैं। औरतों के रूप-रंग, उनकी शादी और माँ बनने के महत्व को ही बार-बार हाईलाइट किया गया है। हाँ, लेखिका ने किताब में औरतों की पढ़ाई को लेकर भी चर्चा की है लेकिन वह चर्चा भी ऐसी है कि लगता है जैसे ‘पढ़ लिख जाओ, पर आख़िर में सम्भालना तो घर-परिवार ही है।’

एक भी ऐसा किरदार नहीं जो मज़बूत हो, या पाठक के मन में रह जाए। कुल मिलाकर कहानियाँ निराश करने वाली हैं, अगर विशुद्ध भाषा में घर-परिवार की वही पुरानी कहानियाँ आपको पढ़ना पसंद हो, तो किताब ज़रूर पढ़ी जा सकती है। लेकिन अगर आप हिंद युग्म की किताबों के पाठक रहें हैं, तो इस बार नएपन की उम्मीद के साथ ‘काली बकसिया’ पढ़ना आपको निराश कर सकता है।

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Manvi Wahane

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