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कबीर वाणी में एक चौपाई है “मैं कहता हूँ आंखन देखी, तू कहता है काग़ज़ की लेखी”। इस चौपाई को सतीश कौशिक ने “काग़ज़” फिल्म का केंद्रीय थीम बनाकर एक कहानी कही है।
कबीर वाणी में एक चौपाई है “मैं कहता हूँ आंखन देखी, तू कहता है काग़ज़ की लेखी।” इस चौपाई को सतीश कौशिक ने “काग़ज़” फिल्म का केंद्रीय थीम बनाकर एक कहानी कही है।
डिजीटल प्लेटफार्म जी5 और कुछ थियेटरों पर कल फिल्म “काग़ज़” रिलीज हुई। जिसकी कहानी बहुत सारे दर्शकों को अचंभित करने वाली लग सकती है। यह महज संयोग ही है कि 2021 में चाहे थियेटर हो या ओटीटी प्लेटफार्म, उसपर पहली-दूसरी कहानी आम आदमी की कही गई है। पहली “रामप्रसाद की तेरहवीं ” और दूसरी “काग़ज़”, दोनों की कहानी एक आम इंसान के मौत से जुड़ी संवेदना हुई है।
आज़ाद भारत में यह कितने ही लोगों का भोगा हुआ यथार्थ है कि नाते-रिश्तेदार के लोग जमीन-जायदाद हड़पने के लिए कुछ सरकारी कर्मचारियों को खिला-पिलाकर खेल रचते हैं। कबीर वाणी में एक चौपाई है “मैं कहता हूँ आंखन देखी, तू कहता है काग़ज़ की लेखी”। इस चौपाई को सतीश कौशिक ने “काग़ज़” फिल्म का केंद्रीय थीम बनाकर एक कहानी कही है। जो वास्तव में लाल बिहारी नाम के व्यक्ति के जीवन पर आधारित है। जिन्होंने 18 साल के लंबे संघर्ष के बाद खुद को जीवित साबित किया था क्योंकि सरकारी दस्तावेजों ने उनको मृत घोषित कर दिया था।
फ़िल्म की कहानी यह है कि बैंड मास्टर भरत लाल (पंकज त्रिपाठी) अपनी बैंड की दुकान बढ़ाने के लिए अपनी जमीन बेचना चाहते है। तब सरकारी दफ्तर में उसे पता चलता है कि उसके नाते-रिश्तेदार उसे मृत घोषित करके उसके हिस्से की ज़मीन बेच चुके है। स्वयं को जीवित घोषित करने के लिए वह सरकारी तंत्र के हर दहलीज़ पर पहुँचता है और अपनी सामान्य सी जिंदगी को एक थका देने वाले संघर्ष में झोंक देता है। उसको न्याय कहीं नहीं मिलता है। उसका मजाक उड़ाया जाता है और उसका संघर्ष उसके जैसे लोगों के साथ मिलकर और बड़ा हो जाता है। यह संघर्ष इतना बड़ा हो जाता है कि एफआईआर दर्ज कराने के लिए वह अपने भतीजे का अपहरण करता है, राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव तक लड़ता है, अपनी पत्नी को विधवा पेन्शन लेने सरकारी दफ्तर भेज देता है, विधान सभा में अपनी मांग का पर्चा तक फेंक आता है, मृत लोगों की पार्टी बना लेता है, उसकी पत्नी और बच्चे तक उससे दूर चले जाते है और अंत में जीवित होकर अपनी शव यात्रा तक निकाल देता है। वह अपनी लड़ाई कैसे जीत पाता है, यह जानने के लिए आपको “काग़ज़” फिल्म देखनी होगी। यकीन माने कमोबेश दो डेढ़ घंटे की एक आम आदमी की कहानी है और कागजों पर मृतक होकर भी जिंदा होने की उसकी पीड़ा आपको बांध कर रख लेगी। फिल्म देखकर बीच-बीच में यह एहसास होता है कि देश में स्थापित लोकतंत्र एक आम इंसान से कितना दूर है। यह सिर्फ़ कहने के लिए है कि पूरा का पूरा तंत्र उसके लिए काम करता है पर उसकी एक छोटी सी समस्या का समाधान कोई नहीं कर पाता है।
एक सामान्य-सी कहानी में एक आम आदमी के किरदार को पंकज त्रिपाठी ने जिस अन्दाज़ में निभाया है, वह दिल में उतर जाता है। यह फिल्म इसलिए देखी जानी चाहिए क्योंकि यह हमारी-आपकी और हम जैसे करोड़ों आम आदमी की कहानी है।यह उसके सपने, भावनाओं, चाहत और संघर्ष की कहानी है। जो हर कदम पर न जाने कितने थपेड़ों को सहती है पर जीना नहीं छोड़ती है। एक छोटे से सरकारी अधिकारी से प्रधानमंत्री तक एक आम इंसान अपनी फरियाद करता है और सब जगह से उसे बस भरोसा मिलता है।
पंकज त्रिपाठी का अभिनय इतना अधिक मार्मिक है कि आम आदमी के समस्या को पर्दे पर बड़ा बना देती है। यह पंकज त्रिपाठी के अदाकारी का एक लेंथ है जो सामान्य से किरदार में जान डाल देता है। भरत लाल के पत्नी रुकमणि का किरदार एम मोनल गज्जर ने निभाया है और वकील साधुराम के किरदार में सतीश कौशिक का काम संतुलित है। मीता वशिष्ठ, नेहा चौहान, अमर उपाध्याय और ब्रिजेन्द्र काला भी सामान्य रहे हैं।
इस फिल्म का कुछ संवाद आज के सरकारी तंत्र पर बहुत बड़ा सटायर है। गांव मुखिया बिहारी लाल से कहता है कि “इस देश में राज्यपाल से बड़ा लेखपाल होता है और उसके लिखे को कोई नहीं मिटा सकता है।” इसी तरह एक संवाद में विधायक मीता वशिष्ठ कहती है “सिस्टम गलती तो करती है पर वो कभी मानती नहीं है अपनी गलती।” कह सकते है पकंज त्रिपाठी की “काग़ज़” लाल बिहारी के सरकारी काग़ज़ों पर मृतक होकर ज़िंदा होने की कहानी है जो सरकारी तंत्र पर तमाचा मारती है।
मूल चित्र: YouTube
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