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देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी?

आज दर्पण में खुद को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी। चाँद की चाँदनी को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी। 

आज दर्पण में खुद को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी। चाँद की चाँदनी को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी। 

रीति-रिवाज़ों और मर्यादाओं के बीच ना जाने मैं कहाँ खो गयी
हर किसी की ख़ुशी की परवाह करते-करते ना जाने मैं कहाँ खो गयी
आज दर्पण में खुद को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी
चाँद की चाँदनी को देखते-देखते ना जाने मैं कहाँ खो गयी
दिल की ख्वाहिश थी कुछ और
पर समय की धारा में मैं ना जाने कहाँ खो गयी
मंज़िल तय की थी कुछ और
पर जीवन के बहाव में मैं ना जाने कहाँ खो गयी। 

मूल चित्र: Surya Deepak via Unsplash 

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