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देश में हिंसक यौन अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं, तो हम चुप्पी कैसे साध लें?

देश में हो रहे हिंसक यौन अपराध के बारे में सुन कर कई बार हम चुप रहते हैं, आख़िर क्रोध की भी तो सीमा होती है, हर बार उतना आक्रोशित नहीं हो सकते। 

देश में हो रहे हिंसक यौन अपराध के बारे में सुन कर कई बार हम चुप रहते हैं, आख़िर क्रोध की भी तो सीमा होती है, हर बार तो आप उतना आक्रोशित नहीं हो सकते। 

चेतावनी : इस पोस्ट में बलात्कार/मर्डर का विवरण है जो कुछ लोगों को उद्धेलित कर सकता है।

बदायूं, हाथरस, मुज़फ्फरपुर…शहर हों या गाँव, महिलाओं, बच्चियों के साथ यौन अपराधों, बलात्कार मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। सरकार ने कानून तो कड़े कर दिए हैं लेकिन अपराधियों के दुस्साहस में कोई कमी नहीं हो रही है। आखिर क्यों? और क्या अब हमें चुप होकर बैठ जाना चाहिए?

दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं घृणास्पद और हिंसक यौन अपराध के मामले। अभी हाथरस गैंग रेप केस का फ़ैसला आया भी नहीं कि नए वर्ष की शुरुआत में नए अपराधों ने देश में तहलका कर दिया है। 

दो आदमी एक तेरह साल की बच्ची का अपहरण कर के उसे जंगल में ले गए और उसके साथ बलात्कार किया। फिर उन लोगों ने एक ढाबे में उसे बंधक बना कर रखा जहाँ ढाबा मालिक और चार अन्य आदमियों ने उसका सामूहिक बलात्कार किया। बाद में जब उसे एक ट्रक में घर भेज दिया गया और जब उस बच्ची ने ट्रक चालक को अपनी दुर्दशा की सच्चाई बयां की तो उसने भी लड़की की मदद करने या पुलिस के पास ले जाने की बजाय मौके का फ़ायदा उठाना बेहतर समझा। 

इस दर्दनाक अपराध से कुछ दिन पहले ही एक वहशी आदमी ने एक पांच साल की बच्ची का ना सिर्फ़ बलात्कार किया था बल्कि उसकी आँखे फोड़ने का प्रयास भी किया ताकि वो उसे पुलिस के सामने पहचान ना सके। 

बदायूं में मंदिर के पुजारी ने अपने दो साथियों के साथ एक पचास साल की महिला को अपना शिकार बनाया, उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी। कहीं और अड़तालीस वर्ष की महिला का ना सिर्फ बलात्कार किया गया बल्कि अपराधियों ने उसकी योनि में लोहे की रॉड भी डाली। और केरल के मलप्पुरम ज़िले के रेस्क्यू सेंटर में 17 वर्षीय बच्ची के साथ दरिंदगी का एक ताजा मामला सामने आया है। लड़की ने 38 आदमियों पर उसके साथ यौन हिंसा का आरोप लगाया है जिसमें से पुलिस ने अभी तक 33 आदमियों को गिरफ़्तार किया है।  

जितनी देर में हम पूछ रहे होते हैं कि ऐसे दरिंदे पैदा कहाँ से होते हैं उतनी देर में ही कई और आदमी कई और औरतों/बच्चियों के साथ बलात्कार कर चुके होते हैं। क्या इंसानियत कहीं बची भी है कि ज्यादातर मर्द हैवान बन चुके हैं? क्यों बढ़ते ही जा रहे हैं हिंसक यौन अपराध के मामले।

जनता की पहली प्रतिक्रिया

जब भी ऐसे दुर्दांत अपराध होते हैं, जब आप ऐसी बलात्कार की ख़बरें पढ़ते हैं आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? गुस्से से लाल पीला होकर अख़बार फेंक देना, पुलिस-सरकार-समाज के निकम्मेपन को कोसने लगना, और कड़े कानून बनाने की मांग करना, सोशल मीडिया में एक मार्मिक पोस्ट लिख देना, ‘आइ हेट दिस कंट्री, ये देश रहने लायक नहीं रह गया, सड़क पर गोली मार दो, भारत हम शर्मिंदा हैं ‘ जैसे दो-चार घिसे पिटे जुमले फेंकना? या फिर चुपचाप उस खबर को स्क्रॉल करके आगे बढ़ जाना? 

आम तौर पर हर आपराधिक घटना के बाद कुछ दिन तक तो हर जगह उनकी चर्चा, निंदा, विरोध होता है फिर सब मामले ठंडे पड़ जाते हैं। हम आप भी सोशल मीडिया में अपने विरोध, अपनी चिंता जताते रहते हैं पर कब तक? चंद दिनों में ही हम भी सब भूल जाते हैं। आख़िर क्रोध या आउटरेज की भी तो सीमा होती है, हर अपराध पर तो आप उतना आक्रोशित नहीं हो सकते। 

अलग-अलग तरह के बलात्कार, अलग प्रतिक्रिया

क्या इसी वजह से हम बलात्कार और हिंसक यौन अपराध जैसे घिनौने अपराध को भी कई श्रेणियों में बाँट कर देखने लग गए हैं? यदि सिर्फ़ बलात्कार हुआ है तो वो ‘साधारण घटना’ बन कर रह जाती है पर अगर महिला (या लड़की के) साथ ना सिर्फ़ बलात्कार बल्कि सामूहिक बलात्कार और हिंसा भी की गयी हो तो तुरंत हर किसी का गुस्सा फूट पड़ता है। यानि बलात्कार की घटनाएं जैसे रोज़मर्रा की बात हो गयी हैं जिन्हें हम ने मान लिया है कि ये तो होती ही रहती हैं और इन पर आक्रोशित होने की कोई ज़रूरत नहीं। समाज, पुलिस, सरकार और कोर्ट तभी इन अपराधों का संज्ञान लेते हैं जब वो रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर यानि जघन्य अपराध की श्रेणी में आते हों। 

क्या हमारी संवेदनाएं मरती जा रहीं हैं? क्यों?

कानून का डर ख़त्म हो चुका है

निर्भया एक्ट के द्वारा महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन अपराधों की रोकथाम के लिए कानून को और सख़्त बनाया गया पर क्या अपराधी प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के अंदर कानून का कोई डर है भी? अब तो अपनी पहचान छुपाने और पकडे जाने से बचने के लिए अपराधी हत्या करने या आँखें फोड़ देने की हद तक जाने से भी नहीं डर रहे। 

देश के कई राज्यों से नियमित तौर पर ऐसी रिपोर्टें आती रहती हैं कि लड़कियों के साथ बलात्कार के वीडियो काफ़ी प्रचलित हो रहे हैं और उनकी मांग दिन पर दिन  बढ़ती जा रही है। चाइल्ड पोर्न और रेप पोर्न वीडियो अपने आप में एक व्यवसाय बन चुके हैं। क्या इसलिए भी ग्रामीण इलाकों में ऐसे अपराधों में वृद्धि हो रही है? 

दरअसल इन अपराधियों को मालूम है कि पुलिस की जाँच और कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है, इतनी लम्बी चलती है कि इस बीच में सबूत मिट जाते हैं (या मिटा दिए जाते हैं) और गवाह भी हतोत्साहित होकर पीछे हट जाते हैं। बहुत बार स्वयं पीड़ित महिला/लड़की और उसके परिवारजन भी कोर्ट-पुलिस के चक्करों से बचने के लिए या समाज और अपराधी के दबाव में आकर केस वापस ले लेते हैं। पैसा-पुलिस-राजनीतिक मिलीभगत और सामाजिक दबाव भी अपराधी को उचित सजा नहीं होने देते। 

असंवेदनशील और बेतुके सामाजिक, राजनीतिक, आधिकारिक बयान

महिला के समाज में स्थान और महिला सुरक्षा के नाम पर कोई अपनी राय रखता रहा है और वे ऐसा करने के लिए स्वतंत्र भी हैं पर बहुत बार ये बयान बेहद बेवकूफी भरे, असंवेदनशील और अपमानजनक होते हैं। 

महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक मुख्यमंत्री जी इतने चिंतित हो गए कि घर से बाहर जाने पर उनके मूवमेंट्स की ट्रैकिंग करवाने का ही आश्वासन देने लग गए। 

वहीं एक दूसरी राजनीतिक पार्टी के नेता जी लड़कियों की शादी की आधिकारिक उम्र बढ़ाने के प्रस्ताव पर भड़क गए क्योंकि उनके अनुसार तो लड़कियों का शरीर 15 वर्ष की आयु में ही माँ बनने के काबिल हो जाता है। क्या स्त्रियों का महत्त्व सिर्फ़ एक बच्चा पैदा करने वाली मशीन के रूप तक सीमित है?

और उधर नेशनल वुमन कमीशन (जिसका काम ही है महिलाओं और उनके अधिकारों की सुरक्षा करना) की एक सदस्य जब पचास वर्षीय महिला के बलात्कार और हत्या के बाद मामले की जांच करने उसके गाँव गयी तो महिला के समय-असमय (उनके शब्द) बाहर जाने पर ही आपत्ति जताने लगीं। उनके अनुसार अगर महिला अकेले ना जाकर एक बच्चे को साथ ले गयी होती तो उसके साथ ऐसा दुर्व्यवहार ना हुआ होता। यानि एक उम्रदराज़ महिला भी शाम वक़्त बाहर अकेली नहीं जा सकती और क्या उसकी सुरक्षा एक बच्चा कर लेगा? 

अब अगर महिला आयोग की अधिकारी ही पीड़ित महिला को गलत ठहराने लगें तो आप उनसे न्याय दिलवाने की आशा कैसे रख सकेंगे? उनको तो जैसे इस कृत्य में पुरुष की गलती, उसका अपराध नज़र ही नहीं आते। 

इन अपराधों के बारे में बात करते रहना क्यों ज़रूरी है

कुछ साल पहले अमिताभ बच्चन ने कहा था कि वे बलात्कार जैसी घटनाओं के बारे में बात नहीं करना चाहते क्योंकि इनसे उन्हें वितृष्णा होती है। इस पर उनकी काफी बुराई भी हुई थी क्योंकि वे एक जाने माने व्यक्ति हैं और लोग हर समाचार, अपराध या विवादास्पद विषय पर उनके विचार जानना चाहते हैं। लेकिन क्या उनके या किसी और प्रतिष्ठित व्यक्ति के ऐसे हिंसक यौन अपराधों की निंदा कर देने से अपराध होने कम हो जायेंगे?

क्या हम और आप निराश होते जा रहे हैं कि आपकी हमारी आवाज़ कहीं सुनी नहीं जा रही है? मैं खुद कई बार हतोत्साहित हो जाती हूँ कि क्या फ़ायदा रोज़-रोज़ इन्हीं तकलीफ़देह विषयों पर बात करके जब समाज सुनने-समझने-बदलने के लिए तैयार ही नहीं। ऐसे माहौल में हताशा होना लाज़मी है पर क्या इस वजह से कि कुछ असर नहीं हो रहा, हम इनके बारे में आवाज़ उठाना ही छोड़ दें? 

बिलकुल नहीं, अब ही तो और ज़रूरत है कि हम सब एकजुट होकर अपने विचार, अपना विरोध, अपना आक्रोश व्यक्त करें। वो कहते हैं ना कि पानी की एक-एक बूँद से पत्थर भी टूट जाता है। तो चुप ना बैठिये। हम कितने भी शांत प्रवृत्ति के क्यों ना हों, कुछ बातों के लिए शोर मचाना अच्छा  होता है। 

मूल चित्र : Natasa Evancev from Getty Images via Canva Pro

 

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Seema Taneja

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