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मेरी बेटी को हाथ मत लगाना वरना…

देख पायल, मैंने हमेशा छोरे की ख्वाहिश रखी, अब या तो तू इस बच्ची को किसी को दे दे या मैं तुझे छोड़ रहा हूँ, देख ले तुझे क्या करना है। 

देख पायल, मैंने हमेशा छोरे की ख्वाहिश रखी, अब या तो तू इस बच्ची को किसी को दे दे या मैं तुझे छोड़ रहा हूँ, देख ले तुझे क्या करना है। 

चेतावनी : इस कहानी में घरेलू हिंसा का विवरण है जो कुछ लोगों को परेशान कर सकता है 

बात 2019 जून की है। मैं क्लास में लड़कियों का एग्जाम ले रही थी मेरे साथ मिसेज भौमिक भी थीं। गर्मी भी ज़बरदस्त पड़ रही थी। लू के थपेड़े खिड़कियों से अंदर आने को बेताब। मेरी नज़र कई बार आख़िरी डेस्क की लाइन में बीच में बैठी एक लड़की पर जा रही थी। नहीं! नहीं! नकल की बात नहीं। उसकी आँखें सूजी हुईं थीं और रोई हुई लग रहीं थीं और मुझे अपना बचपना याद आ रहा था।

दो घण्टे बीत गएऔर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने उससे कहा, “एग्जाम के बाद मिल कर जाना।”

वह रुआँसी आवाज़ में बोली, “ठीक है मैम।” मैं तब तक समझ चुकी थी यह सताई हुई लड़की है। बाद में पता लगा जब जब वह एग्जाम देने आती है, तब तब मार खा कर घर से रोती हुई आती और रोते हुए जाती। मुझे उसमें मम्मी की छवि नज़र आई। मैंने संडे को उसको अपने घर बुलाया। मैं उसको अपनी माँ की और अपनी आप बीती सुनाना चाह रही थी।

मैंने उसको बताया कि मेरी माँ की ज़िंदगी के पड़ाव में बेतहाशा उतार आए। जब मैं बड़ी हुई तो उनकी ज़िंदगी में चढ़ाव आया। मैंने उसको समझाया। मेरी माँ अक्सर मुझे हर मंगलवार की रात मेरे बड़े होने से पहले की बातें बताती हैं। मैंने अपनी बातें रेनू को सुनाना शुरू किया।

दादी और माँ की बातों से शुरू करती हूँ

“ख़रीद के लाई गई है समझी। नख़रे कम दिखाया कर वरना तेरा खून तक कर सकता है सनी, और नाज नख़रे तेरे घर के हैं वहीं छोड़कर आती।”

“तुमसे यही सुनती आ रही हूँ और रही बात नाज़ नख़रे कि तो शायद यह मेरी विरासत हो? बापू से भी लड़ ली थी मैं लकिन अम्मा ने तो होठों को सिल लिया था। खुद भी कुटती थी मुझे और बड़की को भी कुटवाती थी। मैं तो गंडासा लेकर सामने खड़ी हो गई थी, जो अबकी बार हाथ लगाया तो काट दूँगी इन हाथों को।”

“अरी, मुझे मत सुना समझी, मैं तेरा बाप नहीं, उसी गंडासे से तुझे काट दोउंगी।”

“पिट-पिट कर पथरीली हो गई! तू भी मार ले अम्मा और उससे भी पिटवा दे!”

माँ अक्सर लड़ाई के बाद यह गाना गुनगुनाती थीं। यहाँ तक कि आज भी जब आँगन में बैठती हैं शुरू हो जाती हैं, “फिरिया फिरिया गौरी देश विदेश हो, कठै न ल्यादी, बाला चून्दड़ी जी, आ आ आ…”

एक बार की बात है पापा को अकसर सिल बट्टे पर पिसी लाल मिर्च की चटनी खाने का नशा चढ़ता था। उस दिन भी पापा ने लहसुन और मिर्ची की चटनी पीसने को कहा। पापा घर आए और बोले, “लेया पाणी, चटनी बाद में पीस लीजो।”

“ला रही, अभी हाथ धो लूँ, वरना मिर्च मुँह पर जलने लगेगी।”

इस पर मेरी दादी बोल पड़ी, “बक बक बन्द कर, तेरा पति जो बोले तू बस सिर हिला दिया कर, ज़ुबान नहीं। सनी आज इसने मुझे गंडासे से मारने को बोला।”

“हें री, तूने ये बोल्या?”

“हाँ बोला, क्योंकि थारी माँ ने मुझसे बोला, तभी मैंने भी बोल्या।”

“तेरी इतनी हिम्मत, रुक अभी तुझे ठीक करता हूँ।”

इसके बाद पापा ने मम्मी को बालों समेत खींचते हुए उनका मुँह मिर्च की चटनी से भर दिया। और…

रेनू तुम को मैं ये सब बता रहीं हूँ क्योंकि इसके पीछे मेरा मकसद है तुम को कामयाबी हासिल कराने का

उसके बाद माँ ने कहा, “पीट लिया? या और पीटेगा?”

फिर पापा ने उनको थप्पड़ ही थप्पड़ मारे, वह तो थक गए मगर माँ न थकी। न जाने किस वजह से वो ऐसी पथरीली हो गई थी। उनकी आँखों के आँसू सूख चुके थे। अपने पिता द्वारा पिट-पिट कर उन्होंने अपने शरीर को बेहया कर लिया था। इन सब के बाद माँ कभी भी मुँह फुला कर नहीं बैठती थी। बिल्कुल नार्मल हो जाती थी।

हाय मेरो तो भाग्य फूट गयो, इसने तो छोरी जनी

“ले रोटी अम्मा, ले तू भी खा ले, मैंने रोटियाँ बना दी हैं। मैं डांगर को भूसी डालने जा रही।”

“ये बींदणी न बन सकी, तलाक दे दे इसको, ये तो लक्ष्मीबाई बणगी।”

“अम्मा खाना खाण दे, गर्भवती है वो, टाबर जन्मने वाली है, क्या पता छोरा हो जाए, इसकी माँ के भी पहला छोरा और इसकी दोनो बहनों का भी पहला छोरा। इसके भी छोरा ही होगा।”

ये उन दिनों की बात है जब मैं अपनी माँ के पेट में थी। एक दिन माँ ने दादी से कहा, “अम्मा बहुत तेज़ पेट में दर्द हो रहा, अभी तो कछु खाया भी नहीं ऐसा।”

“तेरा तो समय भी न आया बच्चे का, अये ये क्या बात हुई री?”

“अम्मा मेरे दर्द न सहा जा रहा अस्पताल ले जाने को बोल अपने छोरे से।”

“अरी बड़ी रानी मल्लिका न बन, हमने भी बच्चे जने हैं, हमको तो नहीं कोई ज़रूरत पड़ी अस्पताल  की?”

दाई आती है और सात घण्टे दर्द के बाद मैं इस दुनिया में आती हूँ। दादी और पापा को यह बात ऐसी लगी जैसे उनका सब कुछ लुट चुका हो, “लड़की पैदा हुई” थी इसलिए।

इतने में दादी आँगन में जाकर हल्ला करने लगी, “हाय मेरो तो भाग्य फूट गयो, इसने तो छोरी जनी, सनी कहाँ गया?”

इस पर पापा घर आकर मम्मी को डांटते हैं और दादी से बोलते हैं, “इससे एक छोरा भी पैदा नहीं हुआ। अम्मा यह लड़की किसी को दे दे, या मैं इसको तलाक दे देता हूँ, मैं न चेहरा देखूं दोनों माँ बेटी का।”

उतनी देर में मम्मी अंदर से चिल्लाती हैं और खाना माँगती हैं। मैं माँ का दूध ही पीती तो माँ को भूल ज़्यादा लगती। इसके बाद दादी चिल्लाती है और बोलती हैं, “सिर फोड़ ले अपना, सनी न है यहाँ।”

जन्म के बाद अक्सर यही देखने को मिलता है। बहू ने अगर बेटी को जन्म दिया तो उसको पोषण की चीज़ें खिलाना तो दूर कोई पानी तक नहीं पूछता। कैसा समाज है। जिस कोख़ से जन्म लेते हो उसी को ख़त्म करना चाहते हो।

एक दिन पापा काम से आए, आते ही उन्होंने न पानी पिया और न कुछ खाया, सीधे माँ के पास आए और बोले, “देख पायल, मैंने हमेशा छोरे की ख्वाहिश रखी तेरे से, अब या तो तू इस बच्ची को किसी को दे दे या मैं तुझे छोड़ रहा हूँ, देख ले तुझे क्या करना है।”

फिर मम्मी बहुत दुःखी मन से बोलती हैं, “नौ महीने तूने नहीं मैंने रखा है इसको अपनी कोख़ में, तू जा कर डूब मर कहीं, या छलांग लगा ले छत से, मैं न तो बच्ची दूँगी और न इस घर से निकलूंगी।”

माँ ने पूरी आपबीती सरपंच जी को सुना दी

इतना बोलने भर से ही पापा फिर चीखने लगे और मम्मी को मारने लगे। बालों को खींचते हुए घसीटते हुए बाहर आँगन में लेकर आते हैं, मम्मी के हाथ में मैं भी थी, पापा को मेरा कोई ख़्याल नहीं था। पापा मम्मी को मारते हैं और मैं मम्मी के हाथ से छूट कर गिर जाती हूँ। मेरे सिर में चोट लगी थी। मम्मी से ये सब बिल्कुल भी नहीं देखा गया। मम्मी की यह दृश्य देख कर क्रोध की हर सीमा पार हो जाती है। वो ज़ोर से पापा को धक्का देती हैं, उनको आज भी याद है उन्होंने क्या रिएक्शन दिया था उस टाइम।

मम्मी बोलती हैं, “आज तो तेरे को धक्का दिया है, कल तेरे हाथ भी काट सकती हूँ अगर तूने मेरी बेटी को कुछ भी कहा। तेरी आँखे नोच लूँगी। मुझे तू जितना हो सके उतना मार, डांगर की तरह मार, मगर ध्यान रखियो मेरी बेटी को छू मत लियो।”

इस बात से गुस्सा होकर पाप, मुझे और मम्मी को घर से निकाल देते हैं। रात के दो बज रहे थे। यह सब देख कर मम्मी टूट चुकी थी। हाँ, मगर कमज़ोर नहीं पड़ी। सीधी सरपंच के पास पहुँची। रात 2:30 बजे बाल बिखरे हुए सिंदूर बालों में फैला हुआ और हाथ में रोती हुई बच्ची। मम्मी की आँखों में आँसू नहीं तूफ़ान था। बहरहाल मम्मी ने पूरी आपबीती सरपंच जी को सुना दी। पूरी रात सरपंच जी की बीवी ने मुझे और मम्मी को सम्भाले रखा।

बात लम्बी खिंचती है सरपंच का फैसला होता है। सरपंच जी ने पापा को धमका दिया, “देख सनी अगर तू ने अबकी बार बच्ची से सम्बंधित पायल को कुछ भी कहा या इसको तलाक़ देने की बात की तो ध्यान रखियो यह ग़ैरकानूनी है, और अगर बात कलेक्टर साहब के पास पहुंच गई तो शहर में यह बात आग की तरह फ़ैल गई तो तू और तेरी माँ सीधा जेल जाएगी।”

इस बात से पापा घबरा गए और अपने साथ मम्मी और मुझे साथ घर ले गए। साल बीतते गए और मैं सब समझने लगी मैं स्कूल जाने के लायक हो गई। पापा ने साफ़ शब्दों में कह दिया था मम्मी से,”यह स्कूल नहीं जाएगी। नौ साल में इसका गौना कर दिया जाएगा।”

यहीं से विद्रोही माँ का विद्रोह शुरू होता है

यहीं से मम्मी और मेरी ज़िन्दगी नए मोड़ पर आकर खड़ी हो जाती है। यहीं से विद्रोही मम्मी का विद्रोह शुरू होता है।

मम्मी पापा को समझाती हैं, “बच्ची स्कूल जाएगी, यह उसका अधिकार भी है और ज़रूरत भी। मैं नहीं चाहती कि यह भी मेरी तरह ज़िन्दगी गुज़ारे, मार खा खा कर मेरे शरीर का कोई से भी अंग नहीं बचा।”

“देख, तुझे घर में रख लिया इसका एहसान मान, और इसको कैसे पालना है अम्मा देख लेगी।”

“अम्मा, नहीं मैं देखूंगी, कोई रोक के दिखाए।”

इतना सुनते ही पापा फिर क्रोधित हो गए और मम्मी को पीटने लगा। इस बार उन्होंने मम्मी के बालों को काट दिया। मम्मी यही बोलती रही कि “मार ले मगर छोरी को पढ़ने दे।”

थक कर पापा बाहर चले जाते हैं। फिर शाम को इस बात की चर्चा फिर शुरू होती है। पापा ने साफ़ शब्दों में फिर से कहा “9 साल तक मैं इसको खिलाऊंगा बस उसके बाद तू ही देखियो,मैं इसके लिए एक नवा नहीं खर्च करूँगा। इसके आगे जो तुझे करना वो कर।”

“ठीक है।”

मेरी पूरी ज़िम्मेदारी अब बस मम्मी के हाथों में थी। स्कूल में मेरा नाम लिखवाया गया। सरपंच जी की पत्नी बहुत अच्छे स्वभाव की थी उन्होंने मम्मी को बहुत प्रेरित किया। जैसे तैसे चार साल गुज़रे। मैं नौ साल की हो गई थी, मगर पापा की बात न तो मुझे याद थी न मम्मी को।

पापा दादी को कड़े शब्दों में बोलते हैं, “इसका खाना-पीना आज से तू देखियो, और अम्मा ध्यान रखियो, रसोई की चाभी तू अपने पास रख ले।”

“ठीक है बेटा, इसे न घुसने देने की मैं।”

सूई धागा है न

दादी मम्मी को एक कटोरी आटा देती और आधी कटोरी दाल। जिसमें से वही दो लोग ढंग से खा पाते थे। मम्मी को आधी रोटी मिलती थी, जो वो मुझे पानी के साथ मिला कर खिला देती थीं। मेरे से ये सब बिल्कुल नहीं देखा जाता था। मैं मम्मी से जब भी कोई बात आकर बताती की मम्मी मुझे कॉपी चाहिए, या पेन, पेंसिल, तो मम्मी बोलतीं, “सूई धागा है न। मैं लोगों के कपड़े तेरे और तेरी पढ़ाई के लिए ही तो सीती हूँ।”

मम्मी साड़ी में फॉल लगाना और ब्लाउज सिलने में माहिर हो चुकीं थीं। सौभाग्य से मैं एक मेधावी छात्र थी। मैं बहुत ध्यान से पढ़ती थी और माँ के ज़ख़्मों को देख कर और जुनून सवार कर लेती थी। मैंने दसवीं पास की और उसके बाद ग्यारहवीं कक्षा में कॉमर्स ली। जिसकी पढ़ाई थोड़ी महँगी थी। स्कूल भी दूर था। पापा ने हम दोनों को बिल्कुल नकार दिया था। मैंने उनको कभी भी मम्मी से बात करते हुए नहीं सुना। हाँ! बस उनकी पिटाई और डांट ज़रूर देखी थी। मैंने मम्मी को किताबों के लिए बताया कि महँगी आएंगी। मम्मी ने फिर बोला “सूई धागा है न।” इसके बाद हम दोनों खिलखिला कर हँसने लगे।

एक दिन, रात को पापा सफ़ेद कुर्ते पैजामे में और तिलक लगाएं घर में दाख़िल हुए, और उनके पीछे एक कम उम्र की लड़की जिसने संतरी रंग की साड़ी पहनी हुई थी और माँग में सिंदूर। इतनी देर में मैं कुछ समझ पाती ,मम्मी ज़ोर से चीखीं ,उनकी उंगली सिलाई मशीन की सूई के नीचे आ गई थी। नाखून कट गया था और बहुत ख़ून बह रहा था। मम्मी पापा को देखे जा रहीं थी और रोए जा रहीं थी। पापा ने आँगन में पड़ी बाल्टी को बहुत तेज़ी से लात मारी और उसमें मेरे और मम्मी के कपड़े भीगे हुए थे। वो अंदर आते ही मम्मी को पॉलीथिन में काग़ज़ों का बंडल थमा दिया।

मम्मी से बोले, “ले तेरी आज़ादी के काग़ज़।” इतना सुनना था मम्मी बिल्कुल टूट कर बिखर गईं। मैंने मम्मी को इतना अपाहिज होते कभी नहीं देखा था। मैंने अपनी बारहवीं की परीक्षा दे दी थी। मगर दुनियादारी की समझ नहीं थी। मुझे तलाक़ शब्द तभी समझ आया। पापा ने मम्मी को तालक दे दिया और हम दोनों को एक महीने का समय दिया घर से निकलने का।

रास्ता बहुत कठिन था। मगर मम्मी का “सूई धागा” साथ था। सच कहूं तो उस सूई धागे ने हमारे सपनों साकार किया था। मैंने बारहवीं कक्षा 98% से पास की। उसके बाद इग्नू से ग्रेजुएशन किया। इसी दौरान एक प्राइमरी स्कूल में टीचिंग करने लगी। 1800/- रुपय मेरी पहली तनख़्वाह थी।

इसके बाद ग्रेजुएशन के बाद हालात अच्छे नहीं थे। मम्मी को टीबी हो गई थी। फिर मैंने इकॉनोमिक्स में एम.ए का फॉर्म भर दिया था। जो रेगुलर था। उसके बाद मैंने शाम को 6 से 10 तक एक कोचिंग में इकॉनोमिक्स पढ़ाना शुरू किया। फिर ज़िंदगी आगे बढ़ती गई। माँ आज बिल्कुल ठीक हैं। मैं इकॉनोमिक्स की प्रोफ़ेसर हूँ। मेरी तनख़्वाह 85 हज़ार है। मगर मम्मी की मशीन और सूई धागा आज भी हमारे साथ है।

तुमको ये कहानी बताने का बस एक ही मोटिव था, कि तुम भी पंकुल बन जाओ या पायल और जीत लो अपनी ज़िंदगी। ज़िंदगी में ज़रूरी नहीं किसी पुरुष का साथ हो। ज़रूरी है तो बस हिम्मत और जज़्बात।

मूल चित्र : Soumen Hazra From Getty Images via CanvaPro 

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