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यह रेणुका रे का संगठन नेतृत्व था कि उन्होंने शरणार्थी शिवरों में चलाए जा रहे स्कूलों से शत-प्रतिशत साक्षरता लोगों को प्रदान की।
समाज में वंचित समुदायों के सामाजिक उत्थान के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों और उनके सूत्रधार वी.पी.मंडल को सभी सम्मान के साथ याद करते हैं। मंडल आयोग के नाम से प्रचलित उनकी सिफारिशों को वंचित समुदाय के विकास के लिए मील का पत्थर माना भी जाता है। बहुत कम लोग रेणुका रे को याद करते हैं, जिन्होंने 1959 में अपनी अगुवाई में समाज कल्याण और पिछड़ा वर्ग कल्याण के लिए एक समिति का निमार्ण किया, जिसको रेणुका रे कमेटी कहा जाता था।
इस समिति ने गृह मंत्रालय के अंतर्गत पिछड़े वर्ग के लिए एक विभाग बनाने की सलाह दी। इसी कमेटी के सुझाव से आगे चलकर काका कालेकर कमेटी का सफर प्रारंभ हुआ। रेणुका रे जो स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, दूसरी और तीसरी लोकसभा की सक्रिय सांसदों में से थी, उस दौर में लंदन स्कूल आंफ इकोनामिक्स से शिक्षित थीं। वे अपने सामाजिक-आर्थिक समझ से उत्कृष्ट सांसद के रूप में पहचानी जातीं, लेकिन अब वे देश के स्मृति-शेष से विलुप्त हो चुकी हैं।
आई.सी.एस. सतीश चंद्र मुखर्जी और समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता चारूलता मुखर्जी, (जो अपने दौर में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की सदस्य थीं, बाद में अध्यक्ष भी हुईं, अपने अध्यक्षता के समय उन्होंने राष्ट्रसंघ में महिलाओं के व्यापार रोकने के विषय पर जोरदार आवाज बुलंद किया, ईश्वरचंद विधासागर के साथ बाल-विवाह कानून के निमार्ण के लिए संघर्ष किया) के घर 4 जनवरी 1904 को रेणुका का जन्म हुआ।
एक समृद्ध और मानवतावादी परिवार में पैदा होने के कारण मानवता का पहला पाठ रेणूका को अपने घर में ही मिला। परिवार में अच्छा महौल था तो पढ़ने-लिखने के लिए देश के अन्य महिलाओं के तरह रेणुका को संघर्ष नहीं करना पड़ा। उनके नाना पी.के.रे प्रसिद्ध शिक्षाविद्द थे जो कभी राजेन्द्र प्रसाद और राधाकृष्णन के भी शिक्षक थे। रेणुका की पढ़ाई लंदन के केंसिंगटन हाई स्कूल में हुई। जिस वक्त रेणुका लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई कर रही थीं, हेराल्ड लास्की, बेवेरिज, क्लीमेंट एटली जैसे लोग उनके मित्र थे, उनके साथ अर्थशास्त्र की शिक्षा ले रहे थे। रेणुका उनकी आलोचना और सराहनाओं से स्वयं को बेहतर बनातीं।
1920 में रेणुका ने कांग्रेस के कलकत्ता-विशेष-अधिवेशन में भाग लिया। उस समय उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष थी। वे महात्मा गांधी से मिलीं और गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता बन गईं। वह अपनी पढ़ाई छोड़कर गांधीजी की सहयोगी बनना चाहती थीं। गांधीजी ने रेणुका को यह करने से रोका और उनको शिक्षित कार्यकर्ताओं की जरूरत के बारे में बताया। वह कांग्रेस की सदस्य इसी समय बनी।
बाद के दिनों में रेणुका रे कांग्रेस के नीतियों की आलोचक भी रहीं, पर वे इसके विरोध में राजनीतिक संगठनों में शामिल नहीं हुईं। रेणुका जिस समय सामाजिक राहत के कार्यों में सक्रिय थीं, तब उनकी मुलाकात आई.सी.एस. सत्येद्रनाथ रे से हुई जिनसे उन्होंने 1925 में विवाह किया। सत्येंद्र रे ने देश के कई जिलों में न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। उन्होंने स्त्री-पुरुष समानता के सवाल पर रेणुका को मौलिक नज़रिये विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया। रेणुका रे जब राहत और पुर्नवास मंत्री बनीं तो सत्येद्रनाथ रे बतौर सचित उनके साथ काम किया।
1930-34 के दौर में उन्होंने आज के झारखंड के कोयला खदानों का दौरा किया और वहां महिलाएं जिन परिस्थितियों में काम करती थीं, उसपर एक रिपोर्ट पेश की जिसको महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया। 1940 के दौर में रेणुका रे को महिलाओं से संबंधित कानूनों में संभावित वैधानिक परिवर्तनों के बारे में चर्चा करने के लिए अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की प्रतिनिधि की हैसियत से केंद्रीय विधानसभा में मनोनित किया गया। वह स्वतंत्र सदस्य थीं।
उनके साथ राधाबाई सुब्बारायन कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। हिंदू महिला उत्तराधिकार विधेयक के लिए उन्होंने शुरुआती संघर्ष किया जिसमें वह सफल नहीं हो सकीं। जमीदारी प्रथा के उन्मूलन पर भी वह काफी क्रांतिकारी बदलाव चाहती थीं पर संविधान सभा के समझौतावादी नज़रिये से वह काफी निराश थी।
उन्होंने 1952-1957 तक पश्चिम बंगाल में शरणार्थी और पुनर्वास मंत्री के रूप में अपनी सेवा दी। पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल के बीच देश के निवासियों की पंजाब के तरह अदला-बदली नहीं हुई थी, इसलिए सरकार हमेशा से पश्चिम बंगाल के शरणार्थी शिवरों के बहुत कम आर्थिक मदद भेजती थी। यह रेणुका रे का संगठन नेतृत्व था कि उन्होंने शरणार्थी शिवरों में चलाए जा रहे स्कूलों से शत-प्रतिशत साक्षरता लोगों को प्रदान की।
रेणुका मालदा जिले के रतुआ निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर ससंद पहुँचीँ। योजना आयोग पर आधारित राष्ट्रीय विकास परिषद की योजना परियोजना समिति के अंतर्गत समाज-कल्याण और पिछड़ी जातियों के कल्याण के लिए अध्ययन दल के नेता के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई, तब दो साल के अध्ययन के बाद उन्होंने गृह मंत्रालय से पिछड़ा आयोग बनाने की सिफारिश की।
कांग्रेस के अंदर हो रहे परिवर्तनों से वह परेशान थीं। उनका नाम जब पश्चिम बंगाल के उम्मीदवारों के सूची से हटा दिया गया, तब नेहरू ने उन्हें राजसभा से अपना मनोनयन स्वीकार करने के लिए मनाया। पर रेणुका शुरू से एक देश में दो सदन के विचार से सहमत नहीं थी वह इसको एक गरीब देश पर अतिरिक्त खर्च का दवाब मानती थीं। उन्होंने अपने सिद्धांत से समझौता नहीं किया और महिलाओं के सामाजिक सुधार के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया।
1982 में रेणुका रे को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। इसी दौरान वह इस सत्य से भी अवगत हुईं कि महिलाओं को भी राजनीति में सीटों के आरक्षण की आवश्यकता है तब उन्होंने महिला आरक्षण के खिलाफ विरोध करना छोड़ दिया। रेणुका रे का सेवामय जीवन समान्य महिलाओं के जीवन में महान परिवर्तन लाने के लिए महत्वपूर्ण रहा, जिसे गंभीरतापूर्वक नहीं आँका गया।
रेणुका रे अपने जीवन में ही अपने परिवार के सदस्यों को यहां तक अपनी बेटी को भी खो दिया। पर अपनी मां की सीख कि जीते रहना ही एकमेव मार्ग है जिसपर चलकर सेवा करते रहा जा सकता है, का अनुसरण उन्होंने 1997 में अपने मौत तक किया।
नोट: इस लेख को लिखने के लिए रेणुका रे का ससंमरण – माई रैनिनिसैंसेज जो 1982 में प्रकाशित हुई थी, का सहारा लिया गया है।
मूल चित्र : indianetzone.com
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