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जहां आपके साथ ज़बरदस्ती हो रही है, उसी घर में, उसी व्यक्ति के साथ, आपको इस तरह से व्यवहार करना होता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं है...
जहां आपके साथ ज़बरदस्ती हो रही है, उसी घर में, उसी व्यक्ति के साथ, आपको इस तरह से व्यवहार करना होता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं है…
चेतावनी: यहाँ चाइल्ड सेक्सुअल अब्यूस का सच्चा विवरण है और ये आपको परेशान कर सकता है।
हम सभी ने बॉम्बे हाई कोर्ट का वर्डिक्ट सुना। अपनी-अपनी राय दी। लेकिन जब से मैंने ये न्यूज़ पढ़ी तब से कुछ असहज सा महसूस हो रहा है। जैसे वो हर एक किस्सा फिर से आँखों के सामने घूम रहा है। वो डर, वो दर्द, वो गुस्सा, वो असहजता, वो घुटन, वो खुद को गलत समझना आदि। यानी वो हर एक फीलिंग जिससे ज़्यादातर लड़कियाँ गुज़रती हैं। तो क्या वो सब सही था? मेरी बॉडी के साथ मनमर्ज़ी करना, मेरी बॉडी को बिना इज़ाज़त के छूना, मेरी बॉडी को असहनीय दर्द देना आदि का क्या सब उन गुनहगारों को हक़ था? अगर मेरी त्वचा को नहीं छुआ तो क्या मुझे दर्द नहीं हुआ था या मैं उस घुटन से नहीं गुज़री थी/गुज़र रही हूँ?
आज मेरे साथ हुए कुछ किस्से खुलकर शेयर कर रही हूँ। हाँ, आज से पहले सिर्फ अपनी गर्ल फ्रेंड्स के साथ शेयर करे हैं। कभी फ़ैमिली में भी किसी को नहीं बताया। (क्योंकि अगर हम बताने लग जाएं तो शायद घर से बाहर निकलने पर भी पाबंदी हम पर ही लगेगी। यकीन मानिये ज़्यादातर लड़कियाँ इसी डर से नहीं बताती हैं।) लेकिन पता नहीं क्यों इस वर्डिक्ट को पढ़कर लगा कि आज भी हमारे साथ होने वाले यौन उत्पीड़न को कोई समझ ही नहीं रहा है। बस सब बातें ही कर रहें हैं। शायद क्योंकि कभी हमने खुलकर अपना दर्द शेयर ही नहीं किया। हमने कभी नहीं बताया कि घर में अकेले कमरे से लेकर भीड़ से भरी बस में हमने कितने ऐसे लोगों का सामना किया है। शायद हम बात करें तो हो सकता है लोग जागरूक हो कि हर दर्द के लिए कपड़े उतरना ज़रूरी नहीं है।
पहला किस्सा जो मुझे याद है वो 11 -12 की उम्र में मेरे घर में ही फैमिली मेंबर्स (हाँ, 1 नहीं बल्कि ज़्यादा) ने किये थे। ये कई सालों तक चला। मैं असहज महसूस करती, मैं इस चीज़ से दूर भागती लेकिन मुझे नहीं इसका हल नहीं पता था। शायद तब इसका अंत हुआ जब मैं इस चीज़ को समझने लगी कि आखिर ये मेरे साथ हो क्या रहा है। इसमें त्वचा से त्वचा का सम्पर्क था।
दूसरा किस्सा 14-15 की उम्र का है। मंदिर के बाहर शू लेस बांधकर जैसे ही मैं खड़ी हुई किसी ने मेरे ब्रैस्ट को पीछे से कसकर पकड़ा। मुझे कुछ समझ नहीं आया और बस मैंने पीछे मुड़कर एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और वहां से भाग आयी। लेकिन वो लगभग 5-7 सेकंड के दर्द को मैं आज भी महसूस कर सकती हूँ। इसमें त्वचा से त्वचा का सम्पर्क नहीं था।
16 की उम्र में जब अपनी आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर आयी तो ग्रोपिंग जैसे इंसिडेंट लाइफ का पार्ट बन गए। कई बार पब्लिक ट्रांसपोर्ट में इसका खुद शिकार हुई हूँ तो कई बार दूसरों को होते देखा है। बहुत तकलीफ होती है – दोनों शारीरीक और मानसिक रूप से। कई बार ऐसे लोगों से छुटकारा पाने के लिए मैं अकेले भी निकल पड़ती थी लेकिन वो हर दिन सड़कों पर घूरती निगाहों से भी मुझे डर लगता था। लेकिन कभी किसी को बताया नहीं।
इसके बाद 19 साल की उम्र में, जब मैं सब समझती थी तब भी इसका शिकार हुई और अफसोस मैंने कोई स्टेप नहीं लिया। ऑफिस के एलीवेटर में जिस तरह उसने मुझे देखा और मेरे करीब आया वो शायद एलीवेटर में मेरा आखिरी दिन था। उसके बाद मुझे उसके आस पास जाने से डर लगने लगा था लेकिन काश मैंने अपने लिए कुछ स्टेप लिया होता। (ये भी आसान नहीं होता क्योंकि आखिर मेरी बात पर भरोसा करने वाला भी कोई होना चाहिए न?)
तो ऐसे न जाने कितने किस्से हम लड़कियाँ अपने अंदर दबाएं बैठी हैं। यकीं मानिये इन सबका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव हुआ है। जिस समय एक तरफ तो प्यूबर्टी के हार्मोनल चेंजेस को मैं समझ नहीं पा रही थी उसी समय मेरी बॉडी के साथ ये सब हो रहा था। एक वक़्त ऐसा भी आया था जब मैं अपने ब्रैस्ट के बढ़ते साइज को लेकर खुद से नफरत करने लगी थी। मुझे लगने लगा था कि शायद ब्रैस्ट का साइज ही हैरास्मेंट का कारण है।
आज भी जब सेक्सुअल हैरास्मेंट के केसेस पढ़ती हूँ, लिखती हूँ तो लगता है आखिर क्यों? और इन सबसे ज़्यादा तकलीफ तब होती है जब आये दिन कभी मिनिस्टर्स तो कभी जुडिशरी इस तरह के स्टेटमेंट देते हैं।
बहुत मुश्किल होता है इन सबसे डील करना। जहां आप घर में कमरे में सेक्सुअल हैरेसमेंट का शिकार हो रहे हो, उसी घर में उसी व्यक्ति के साथ, आपको सबके बीच इस तरह से व्यवहार करना होता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं है या उस भरी बस में भी आपको नार्मल एक्ट करना होता है जैसे कुछ हुआ ही न हो।
आज भी वो त्वचा से त्वचा वाला संपर्क हो या सिर्फ घूरती नज़रें, मुझे सबसे डर लगता है। जब मेरी कोई गर्ल फ्रेंड मुझे उनके साथ हुए हरास्मेंट के बारे में बताती है तो मुझे डर लगता है। मुझे वो दर्द महसूस होता है।
मुझे नहीं पता इन सबका कभी अंत होगा भी या नहीं, लोगों की मानसिकता बदलेगी भी या नहीं, लोग कब किसे हैरेसमेंट की सो कॉल्ड डेफिनिशन से हटा दे, लेकिन मुझे बस इतना पता है कि इन सबसे डील करने मेरी जिंदगी का सबसे मुश्किल हिस्सा है। जहां मैं कई बार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती हूँ।
इसीलिए आज खुद के लिए ही एक कदम उठा रही हूँ और खुलकर बात कर रही हूँ और आगे भी करती रहूंगी। जिन्हें आप शायद पोस्ट पर टॉप में चिपकी हुई ट्रिगर वार्निंग देखकर ही इग्नोर कर देंगे। लेकिन ये सब हम झेल रहे हैं जिन्हें पढ़ने से पहले भी आपको चेतावनी मिल रही है।
तो जरा सोचिये आप किस तरह अपनी बात रखेंगे क्योंकि बात करने से ही बात बढ़ेगी वर्ना कभी किसी को आपकी तकलीफ का अंदाज़ा भी नहीं होगा।
मूल चित्र : Bhupi from Getty Images via Canva Pro
A strong feminist who believes in the art of weaving words. When she finds the time, she argues with patriarchal people. Her day completes with her me-time journaling and is incomplete without writing 1000 read more...
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