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सिमोन द बोउवार ने आधी आबादी के अनुभवों को अस्तित्ववादी, दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक आयाम दिया है और इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है।
“स्त्री पैदा नहीं होती है बनाई जाती है” पूरे दुनिया के आधी आबादी के समाजीकरण पर सिमोन द बोउवार का लिखा यह सूत्रवाक्य ने स्त्री विमर्श के सिद्दांत को ही नहीं गढ़ा बल्कि स्त्री-इतिहास के कई परतों को उधेड़कर उनकी प्रसिद्ध किताब “द सेकंड सैक्स” में रख दिया। उनके समय से लेकर आज तक यह किताब स्त्री विमर्श की सबसे जरूरी और सबसे अधिक पढ़ी गई किताब बनी हुई है।
असल में सिमोन ने इस किताब में इस थ्योरी को अपने तर्कों से स्थापित किया कि स्त्रीयोचित गुण लड़कियों में उनके जन्म से भरे जाते है। वे भी वैसे ही जन्म लेती हैं जैसे कोई पुरुष। उनमें भी असीम क्षमताएं, इच्छाएं और गुण होते हैं। घर-परिवार और समाज मिलकर अपने समाजीकरण से लड़के-लड़कियों का गुण और उसका कार्यक्षेत्र निर्धारित करके उसे स्त्री-पुरुष के श्रेणी में बांट देते हैं।
सिमोन द बोउवार ( Simon De Beauvoir) का जन्म 9 जनवरी 1908 को फ्रांस के पेरिस में हुआ था। सिमोन जब थोड़ी-बहुत होश संभालने के स्थिति में हुई तो दुनिया पहले विश्व युद्ध के दौर से उबरने के कोशिश में जुटा हुआ था, पर अपने पीछे उसने कितने ही लोगों का जीवन तितर-बितर कर दिया था। सिमोन द बोउवार की मां जो एक बैंकर थी, अपने और अपने परिवार का जीवन संवारने के लिए सिलाई का काम करने लगी। अपनी शुरुआती पढ़ाई सिमोन ने एक कैथोलिक स्कूल में नन बनने के सपने के साथ किया।
पढ़ाई के साथ-साथ वक्त बदला। लिखने-पढ़ने और सोचने-समझने की उनकी क्षमताओं ने उनको नास्तिक बना दिया। पढ़ाई खत्म करते-करते वह अपनी भूमिका तय कर चुकी थी कि उन्हें लेखक बनना है। जैसे-जैसे उनके लेखन क्षमता का विस्तार हुआ वे केवल एक लेखिका नहीं रही। वे एक अस्तित्ववादी दार्शनिक, सामाजिक सिद्धांतकार, बुद्धिजीवी और राजनीतिक एक्टिविस्त के साथ-साथ आधी-आबादी के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली दुनिया की प्रमुख हस्ताक्षर बन गई।
अपनी तमाम रचनाओं में उन्होंने समाज में लैगिंक भेदभाव पर करारी चोट की। वे हमेशा कहती रही कि स्त्री-पुरुष जैविक रूप से अलग-अलग ज़रूर हैं पर वो बराबर हैं। उनका कहना था कि महिलाओं और पुरुषों के बीच जो जैविक अंतर हैं उसके आधार पर महिलाओं को दबाना बहुत ही अन्यायपूर्ण और अनैतिक हैं। ‘द सेकंड सेक्स’ के साथ उनका उपन्यास “द मैंडरिन” के लिए उन्हें फ्रेच साहित्यिक पुरस्कार, द प्रिक्स गोंकोर्ट से भी नवाजा गया।
स्त्री-पुरुष के सेक्स का विभेदीकरण वास्तव में एक जैविक तथ्य है, इतिहास की घटना नहीं। मानव-दम्पति एक मौलिक इकाई है। स्त्री-पुरुष में भेद की रेखा खींचकर समाज में दरार पैदा नहीं की जा सकती और यहीं पर औरत की मौलिक विशेषता सिद्ध होता है कि वह अन्या है। यायावार से औद्योगिक युग में भी औरत को पुरुष के बराबर महत्व नहीं मिल पाया।
स्त्री-पुरुष के असमानता के प्रश्न नए नहीं हैं और बहुतों के उत्तर युगों से दिए जा रहे हैं। किंतु चूंकि औरत ‘अन्या’ है, इसलिए पुरुष के द्वारा दिए गये तमाम उत्तर और तर्को पर संदेह स्वाभाविक है। ये सारे उत्तर पुरुष अपने स्वार्थों के लिए देता है। इस यथास्थितिवाद माहौल में औरत भी पुरुष के तरह ही मानव-प्राणी है, इसी सोच से सिमोन द बोउआर ने महिलाओं को नारीवादी आंदोलन के लिए संगठित करने की शुरूआत की।
भारत के आजादी के आते-आते सिमोन द बोउवार के विचार प्रगतिशील तबकों में इतने अधिक स्थापित होने लगे कि उनके आलोचक जो परंपराओं के सर्मथक भी थे उन्होंने सिमोन को महिला विरोधी, मातृ-विरोधी और विवाह विरोधी करार दे दिया। यह इस तरह से प्रसार भी पाने लगा कि आधी-आबादी का एक बहुत बड़ा समूह स्वयं को नारीवादी कहलाने से कतराने लगा।
आज उनकी तमाम किताबे फ्रेंच से अंग्रेजी फिर अंग्रेजी से कई भाषाओं में अनुवाद करवा कर पढ़ी जाती हैं। ‘स्त्री उपेक्षिता’ प्रभा खेतान द्वारा मशहूर फ्रेंच लेखिका सिमोन द बोउवार द्वारा लिखित ‘द सेकेंड सेक्स’ का हिंदी रूपांतरण है।
सिमोन द बोउवार को पढ़ना स्त्रीविमर्श और आंदोलन के कारणों को पढ़ना-समझना ही नहीं है। उनकी आत्मकथाएं ये बताती हैं कि महिलाओं को अपनी समानता और स्वतंत्रता की तालाश और संघर्ष कैसी करनी है? उनकी रचानाएं चाहे वह “वॉटिंग टू टॉक अबाउट माइसेल्फ” हो या “मेमोयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर” या “प्राइस ऑफ लाइफ” या “फोर्स ऑफ सरकस्टासेंज” या “आल सेड एंड डन” या फिर उनके उपन्यास “शी केम दू स्टे” या “द मेडरिन” एक इनसाइक्लोपीडिया है।
यह एक अनजाने शुभचिंतक की तरह है, जो हर उस महिला की मदद करनी चाहती है जिसने अपनी और अपनी साथीन महिलाओं के लिए स्वतंत्रता के साथ समानता का सपना देखा है। मिशेल फूलो ने उनके पूरे साहित्य को “द यूज ऑफ प्लेज़र” और “द केयर ऑफ द सेल्फ” से सम्मानित करते हुए महिलाओं को स्वयं आत्मनिर्भता की अवधारणा भी रखी।
14 अप्रैल 1986 को उन्होंने अपनी अंतिम सांसे उसी शहर में ली जहां वह पैदा हुई। पूरी जिंदगी अमेरिका, साउथ अफ्रीका, यूरोप घूम-घूम कर वहां की महिलाओं से मिलकर, उनके स्त्रीचित अनुभवों की पीड़ा, स्वतंत्रता-समानता के चाह के लिए मताधिकार के लिए संघर्ष को देखा-सुना और अपने पूरे साहित्य में अभिव्यक्त कर दिया। भले ही सिमोन द बोउवार को दुनिया का एक बड़ा वर्ग कई अशोभनीय विशेषणों से नवाज़ता हो पर उन्होंने आधी आबादी के अनुभवों को अस्तित्ववादी, दार्शनिक, सामाजिक और राजनीतिक आयाम दिया है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है।
मूल चित्र : The Guardian
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