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द गाली प्रोजेक्ट के तहत गाली देना चाहते हैं तो यहां है 'बावड़ी पूंछ', 'छित्तर खाने आ' और 'भकर्मल्लु' जैसी गालियाँ का खज़ाना जिनका मतलब है...
द गाली प्रोजेक्ट के तहत गाली देना चाहते हैं तो यहां है ‘बावड़ी पूंछ’, ‘छित्तर खाने आ’ और ‘भकर्मल्लु’ जैसी गालियाँ का खज़ाना जिनका मतलब है…
नेहा ठाकुर और तमन्ना मिश्रा ने पिछले साल सितम्बर में द गाली प्रोजेक्ट शुरू किया था। उनका मक़सद ऐसी गालियाँ बनाना था जो बिना किसी और को नीचा दिखाए या बुरा बताए अपना मतलब सामने ला सकती हैं। उन्होंने यह प्रोजेक्ट गूगल फ़ॉर्म्ज़ के ज़रिए शुरू किया था और उन्होंने लोगों से उनकी पसंदीदा गाली पूछी जो दूसरों पर आधारित ना हो और उस गाली के पसंदीदा होने के पीछे का कारण पूछा।
हमारी सारी गालियाँ महिलाओं, पिछड़ी जातियों और अन्य कमजोर व्यक्तियों पर आधारित होती हैं। एक तरह से गाली के रूप में महिलाओं को, पिछड़े वर्ग को और विकलांगों को नीचा दिखाया जाता है। गालियाँ भी समाज में अपना वर्चस्व स्थापित करने का एक तरीक़ा है। इतनी सदियों से चली आ रही सारी गालियाँ इन कमजोर वर्गों पर ही आधारित होती हैं और इनके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती हैं।
इस सब से परेशान इन दो लड़कियों ने यह गाली प्रोजेक्ट शुरू किया जिसके अंतर्गत वो गालियों को सत्ता और वर्चस्व से अलग करना चाहती हैं। उनका मानना है कि इतने सालों से स्टैंड उप कॉमेडी में भी माँ–बहन आदि पर आधारित गालियाँ अधिक प्रचलन में आ गयी हैं। इस तरह सारा मज़ाक़ का केंद्र महिलाएँ और कमजोर वर्ग बन जाता है।
मिश्रा का मानना है कि वैचारिक विकास के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपने सोचने की तरीक़े को बदलें। हमें अपनी सोच बदलनी होगी तभी कोई वैचारिक परिवर्तन आ सकता है। कहने को हम विकास कर रहे हैं लेकिन अगर हमारे भाषा अभी तक पुरानी और दक़ियानूसी है तो क्या फ़ायदा?
हमारी गाली देने के तरीक़े में ही सरी जाति से द्वेष और तिरस्कार झलकता है। ठाकुर, जो कि एक डेटा ऐनलस्ट हैं, वो कहती हैं कि इसको बदलने का एक ही तरीक़ा है, इसके बारे में बात करना।सही और ग़लत पर लेक्चर देने से अच्छा है इसको एक मज़ेदार ढंग से परोसे जाए जिससे अधिकतम बदलाव हो। इसलिए उन्होंने इसकी शुरुआत करी।
उनके ऑनलाइन पोल को 15 राज्यों में से 8000 जवाब मिले हैं। हालाँकि मिले हुए जवाबों में अभी भी तीस प्रतिशत महिलाओं पर आधारित गालियाँ हैं, लेकिन उन्हें बहुत से अन्य जवाब भी मिले हैं जो मज़ेदार हैं। ‘आब डब्बे’ एक कश्मीरी गाली है जिसका मतलब है पानी से भरा हुआ डब्बा यानि एक ऐसा इंसान जिसके अंदर कुछ नहीं है। वो अंदर से ख़ाली है। ‘भकर्मल्लु’ एक झारखंडी गाली है जिसका मतलब है अति आत्मविश्वास वाला एक बेवक़ूफ़। साथ ही ‘भक्कुआ’ एक ओडिया शब्द है जिसका अर्थ है निरा मूर्ख। उनके पास असमी, बंगाली, हरियाणवी, तेलुगु, कन्नड़, मराठी, मलयाली आदि भाषाओं से शब्द आए हैं।
उनके कोश में हर कोई शब्द शामिल नहीं किया जाता। किसी भी शब्द को शामिल करने से पहले वो उसकी पूरी रीसर्च करती हैं। उनका मानना है कि गलती से भी उन्हें कोई ग़लत शब्द को इज़ाफ़ा नहीं देना है। प्रियंका बत्रा एक २६ वर्षीय मुंबई की निवासी हैं जिनकी दोनों गालियाँ शामिल की गयी हैं। उनकी पहली गाली है ‘बावड़ी पूँछ’, जिसका अर्थ है कोई ऐसा व्यक्ति जो बिना बात बोले जा रहा है और ‘छित्तर खाने आ’ मतलब, अपनी चप्पल से मार खाने के लिए आ। यह पंजाबी माँओं द्वारा अधिक इस्तेमाल किया गया शब्द है।
जब कोई शब्द चुन लिया जाता है तो उस शब्द के स्तोत्र, अर्थ और इस्तेमाल को सोशल मीडिया पर डाला जाता है। नेहा और तमन्ना का कहना है कि और कुछ नहीं तो इससे हम एक नया शब्द सीख लेंगे और थोड़ा हँस लेंगे। यह एक बहुत अच्छी पहल है जिससे गाली देने का पूरा काम थोड़ा बराबरी का हो जाता है। यह बदलाव इस पुरुषवादी समाज पर एक बदलाव की शुरुआत है और नयी सोच की शुरुआत है।
मूल चित्र : Facebook
Political Science Research Scholar. Doesn't believe in binaries and essentialism. read more...
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