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वेब सीरीज़ तांडव में हर महिला किरदार को अंतत: एक वेश्या केटेगिरी में लाकर खड़ा कर दिया, फिर चाहे वे प्रधानमंत्री हो या स्टुडेंट, डीन या डिफेंस मंत्री।
कोरोना महामारी के दौर में मनोरंजन का विकल्प बनकर उभरे ओटीटी प्लेटफार्म ने हमारे इंटरटेंमेंट के कम टाइम स्पेस में ज्यादा विकल्प उपलब्ध करा दिया। इसके कारण हफ्ते भर तक कोई कहानी जो ओटीटी पर कही गई हो, वह कुछ जीबी के साथ प्लेटफार्म के डिसप्ले में बस फ्रीज़ हो जाती है। दर्शकों की मेमोरी से वह या तो रिमूव हो जाती है या डिलीट। कभी-कभी यकायक याद तभी आती है जब सोशल मीडिया पर कोई मीम किसी डायलांग के साथ चिपका मिलता है जैसे- “कभी-कभी तो लगता है अपना ही भगवान है(सीक्रेट गेम्स)”, “डर की यही दिक्कत है, कभी भी खत्म हो सकता है(मिर्जापुर)”, “लाला रिस्क है इस्क़ है(स्कैम)…”।
यह ओटीटी प्लेटफार्म पर अपना कन्टेंट रिलीज करने वालों के लिए आने वाले समय में एक गंभीर चुनौति बनकर उभरेगी। जिस तरह से ओटीटी मनोरंजन का नया विकल्प बनकर सामने आई और अपनी कहानियों को नए तरीके से कहना शुरू किया वह लोगों को पसंद आ रही थी। इसकी मुख्य वजह शायद यही है कि इन कहानियों ने समाज के अंदर मौजूद विविधताओं के संघर्ष को नए तरीके से आवाज़ देना शुरू किया, जो मौजूद तो हमेशा से ही रही हैं, पर लाइट-कैमरा-एक्शन के चका-चौंध के कारण नोटिस नहीं हो पा रही रही थी।
पिछले हफ्ते ओटीटी प्लेटफार्म नेटफलिल्स पर “त्रिभंग” ने अपनी कहानी डेढ़ घंटे में और अमेज़न पर “तांडव” ने अपनी कहानी छह घंटे में कही। इन दोनों ही कहानियों में महिला किरदार जिस तरह से सामने आती हैं और अपने हिस्से की कहानी कहती हैं, उस पर बात होनी चाहिए। यह बात इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मनोरंजन का विक्ल्प बनकर उभरी ओटीटी प्लेटफार्म भी अगर मुख्यधारा सिनेमा की तरह ही महिलाओं की छवि को गढ़ेगा, तो इसके दूरगामी प्रभाव महिला जीवन को ज़रूर प्रभावित करेगा। खासकर, उस दर्शक वर्ग के आस-पास मौजूद महिलाओं पर जिनके बीच में ओटीटी प्लेटफार्म की पहुंच सबसे अधिक है- मेरा इशारा देश के सबसे बड़ी आबादी युवा वर्ग की तरफ है, जिसके हाथ में इंटरनेट और कुछ जीबी से लैस डेटा पैक भी है।
अमेज़न पर रिलीज़ हुई “तांडव” मीडिया-अखबार-सोशल मीडिया पर चर्चा में है, क्योंकि इसमें हिंदू देवी-देवताओं पर अशोभनीय फिल्मांकन की वजह आहत समाज के वर्ग ने पुलिस में शिकायत ही दर्ज नहीं की है, राजनीतिक मोर्चाबंदी भी शुरू कर दी है। अधिक हैरानी तो नहीं थी किसी फिल्म के खिलाफ इस तरह की मोर्चाबंदी पर।
मुझे लगा था राजनीतिक मोर्चाबंदी न सही, फिल्म देखने समझने वाले इस मामले में अपनी समीक्षाएं जरूर रखेंगे कि इस कहानी में औरतों को जिस तरह से दिखाया गया वह स्वीकार्य नहीं किया जा सकता। निमार्ता-निर्देशक से इसके लिए माफी ज़रूर मांगनी चाहिए। इस वेबसीरीज़ में हर महिला किरदार को अंतत: एक वेश्या की केटेगिरी में लाकर खड़ा कर दिया गया है। चाहे वे प्रधानमंत्री हो या स्टुडेंट, डीन हो या डिफेंस मंत्री। ये सारी औरतें सफल हैं। पर कैसे हुईं सफल? प्रतापी पुरुषों के साथ सोकर…यही उनकी सफलता का मूलमंत्र है?
क्या वेब सीरीज़ तांडव पर केस करने के लिए ये वजह नहीं होनी चाहिए? वह हमारे-आपके समाज में आस-पास हर सफल महिला के सफलता को उसकी प्रतिभा से नहीं उसके यौन-आकंक्षाओं से जोड़कर देखती है। हम सब जानते है कि ओटीटी प्लेटफार्म शहरों, कस्बों, महानगरों में हर युवाओं के बीच में कितना लोकप्रिय माध्यम है। क्या वह इस मनोस्थिति में अपने आसपास की हर युवतियों/महिलाओं को जज नहीं करेंगे कि इसके सफलता के पीछे मेहनत नहीं, लगन नहीं, उसकी कोशिशें नहीं हैं? उन लड़कियों पर क्या प्रभाव छोड़ेगी जो छोटे शहरों में रहती हैं, बड़े सपने देखती हैं और कुछ बनने का हौसला रखती हैं? क्या वह यह सोचकर शहरों में कदम रखें कि उन्हें अपनी सफलता के लिए शरीर का इस्तेमाल करना होगा?
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि हमारे समाज में महिलाओं को स्वयं को सफल होने के लिए घर-परिवार, समाज, आसपास सबसे से लड़ना पड़ता है, बहुत कुछ सहना पड़ता है। इसमें कुछ सफल हो पाती हैं तो कुछ सफल नहीं हो पाती हैं। जैसे नेटफलिल्स पर रिलीज हुई “त्रिभंग” में पहली पीढ़ी अपनी अस्मिता को तलाशती है, दूसरी पीढ़ी खुद को और तीसरी पीढ़ी एक परिवार को। ये तीन पीढ़ियों की स्त्री की कहानी जिसमें कई लेयर्स हैं।
एक पीढ़ी के पास लेखन की आकांक्षा है यही उसकी महत्वकांक्षा भी है जिसके लिए उसका परिवार बिखर चुका है जो जीवन में आए पुरुषों की त्रासदी है। उसके जीवन के त्रासदी से बेटी अनु की भी त्रासदी है। बचपन में यौन शोषण झेलता उसका व्यक्तित्व इतना वोकल है कि वह अपने जीवन में पुरुष को स्वीकार नहीं कर पाता है। स्कूल, जो अपने हिसाब से पितृसत्ता का वाहक है, सिंग्ल मदर को बच्चों के मन में एक अलग मनोविज्ञान रचता है। सफलता हासिल करने के बाद भी उसका व्यक्तिक्त आक्रामक स्वभाव में बदल गया है।
तीसरी पीढ़ी की लड़की अपनी नानी और मां के जीवन के निर्णयों से अपनी जिंदगी में स्कूल और समाज के मनोविज्ञान के कारण जो झेला है उसके कारण सुरक्षित जीवन जीना चाहती है। सुरक्षित विवाह और परिवार को बचाने के लिए गर्भ के लिंग टेस्ट कराने को गलत मानती है पर तैयार है। मां-नानी दोनों को यह पसंद नहीं है पर यह संतोष है कि उसके निर्णय अपने थे परिणाम जो भी रहे। फिल्म में पुरुष है भी पर वह न ही प्रेम करता है न ही फक– क्योंकि यह ठीक नहीं है। वह पहली पीढ़ी के लेकर तीसरी पीढ़ी तक की महिलाओं का बस एक दोस्त है जिससे कहानी के हर पात्र स्नेह करते है।
हर कहानी की अपनी एक लेंथ होती है जिसके अनुसार ही लेखक अपने पात्रों को गढ़ता है। उसके रचनात्मक स्पेस में कोई भी दखल उसके अभिव्यक्ति का दबाने की कोशिश जैसी बात है। रचनात्मक अभिव्यक्ति अगर किसी सामाजिक हकीकत को गलत तरीके से पेश करे, तब उसके खिलाफ ज़रूर बोला जाना चाहिए।
यह आश्चर्य नहीं तो क्या है? धर्म आधारित आहत हुई आस्था राजनीतिक मोर्चाबंदी बना लेती है पर मानवीय संवेदना या उसकी अस्मिता को आहत करने वाली भावना अपना मज़ाक बनते देखती रहती है और किसे एक के आवाज़ बुलंद करने बाट जोहती है। बहरहाल, अपनी अस्मिता के दोहन किए जाने पर अगर आधी आबादी स्वयं वस्तुनिष्ठ और संवेदनशील नहीं है तो यह दुखद है, जो आने वाले समय में उसके लिए चुनौतिपूर्ण भी हो सकता है।
मूल चित्र : Screenshot from Netflix/Amazon Prime
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