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आया बसन्त…

होने लगा है जिस पल से मुझको खुद में तेरे होने का एहसास। मैं खो सी गई। मैं, मैं न रही, बस तू ही मुझमें, बस तू ही ख़ास।

होने लगा है जिस पल से मुझको खुद में तेरे होने का एहसास। मैं खो सी गई। मैं, मैं न रही, बस तू ही मुझमें, बस तू ही ख़ास।

होने लगा है जिस पल से मुझको
खुद में तेरे होने का एहसास।
मैं खो सी गई। मैं, मैं न रही,
बस तू ही मुझमें, बस तू ही ख़ास।

मेरे अन्तर्मन की गहराई में कभी
बहती नदिया की अविरल धारा।
और कभी लहरों का तूफान लेकर
सागर समा जाता सारा।

जैसे बसन्त के आने पर
धरती करती अपना श्रंगार।
तेरे एहसास की आहट से,
बज उठता मन का तार-तार।

बार-बार ये करता प्रश्न,
मेरा एकाकी और शंकित मन, 
कौन हो तुम? कहाँ से आए?
बसन्त हो तुम या हो सावन?

निरंतर समाते जा रहे हो,
मेरे हृदय के धरातल में।
मैं मौन खड़ी सकुचाई सी,
सिमट रही बस आँचल में।

यूँ ही सदा छाए रहना तुम,
जीवन में मेरे ऋतुराज बसन्त।
मदमस्त, बेफिक्र, अल्हड़ सी
तितली सी उडूँ जीवन-पर्यन्त।

मूल चित्र : Rahul Pandit from Pexels

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Samidha Naveen Varma

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