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आलोक को भी अच्छा खाने का शौक था, वह निशा से रोज़ नई सब्ज़ी बनवा कर खाता, इन सब चक्करों में निशा को समय ही नहीं मिलता...
आलोक को भी अच्छा खाने का शौक था, वह निशा से रोज़ नई सब्ज़ी बनवा कर खाता, इन सब चक्करों में निशा को समय ही नहीं मिलता…
“नमस्ते मम्मीजी! कैसी हैं आप?”
“ख़ुश रहो बहु! बड़े दिनों बाद सास की याद आयी तुझे? कभी कभी हाल भी पूछ लिया कर अपनी सास का। नौकरी भी तो नहीं करती जो तुझे टाइम नहीं मिलता हाल पूछने का।”
“मम्मीजी, अभी पिछले हफ्ते ही तो फ़ोन किया था आपको।”
“अच्छा तो अब हिसाब भी रखती है किस तारीख को कितने टाइम बात किया सास से?”
“नाराज़ क्यों हो रही है मम्मीजी, टाइम नहीं मिला इसलिए फ़ोन नहीं कर पायी आपको।”
“हैं! टाइम नहीं मिला? अरे दो लोगो में करती ही क्या हो सारा दिन जो टाइम नहीं मिलता और तुम्हारे घर पर तो कामवाली भी आती है। सारा काम तो वही करती है, फिर तुम्हें काम ही क्या होगा? मेरा बेटा तो इतना सीधा है कि सिर्फ दाल चावल खा कर हफ्तों निकाल सकता है।”
“जी मम्मीजी! सही कहा आपने आगे से ध्यान रखूंगी।”
ये बातें हो रही थी नेहा और उसकी मम्मीजी अर्थात सासूमाँ के साथ। जिन्हें नेहा का कोई काम, काम ही नहीं लगता। नेहा की सासूमाँ को नेहा के परिवार में सिर्फ दो लोग दिखते लेकिन नेहा के दोनों बच्चों की वो हमेशा गिनती भूल जातीं, क्यूंकि उनके अनुसार तीन साल और पांच साल की बच्चे खाते ही क्या हैं?
एक कटोरी दाल चावल खिलने में नेहा के पसीने निकल जाते और जो उनका बेटा हफ्तों दाल चावल पर रह सकता है, उसे एक सब्ज़ी दो टाइम नहीं भाती। सुबह की बनी चटनी जिन्हें बासी लगे वैसे मम्मी के लाडले नेहा का काम कैसे बढ़ाएँगे भला? और हां सबसे मुख्य किरदार नेहा की कामवाली जिसके नाम पर ताने सुनते-सुनते आज सात-साल हो गए थे वो सिर्फ एक टाइम सुबह साफ-सफाई और बर्तन कर के चली जाती थी और सासूमाँ को लगता नेहा को काम ही क्या होगा सारा काम तो कामवाली करती है।
नेहा की अलोक से शादी के बाद नौकरी के कारण नेहा अलोक के साथ रहने आ गई थी। कुछ महीनों बाद ही नेहा की तबियत ख़राब रहने लगी। पता चला निशा प्रेग्नेंट थी। कुछ तकलीफ के चलते डॉक्टर ने सफर से मना कर दिया और ससुराल भी छोटे शहर में था तो नेहा और अलोक ने डिलीवरी का फैसला दिल्ली में करवाने का सोचा। नेहा को आराम की जरुरत थी तो अलोक ने एक बाई लगवा दी जो साफ-सफाई कर जाती और खाना नेहा बना लेती थी।
बेटे के होने के बाद काम बढ़ गया और बाई भी पहचान की हो गई तो नेहा ने उसे निकाला नहीं। देखते-देखते निशा के दो बच्चे हो जल्दी जल्दी बड़े हो गए। बच्चे को मालिश करना, नहलाना, खाना खिलाना, दोनों को पढ़ाना और उनकी शैतानियों में नेहा का पूरा दिन निकल जाता। आलोक को भी अच्छा खाने का शौक था। वह भर-भर के हरी सब्ज़ियाँ ले आता और निशा से रोज़ नई सब्ज़ी बनवा कर खाता। इन सब चक्करों में निशा को समय ही नहीं मिलता कि सासूमाँ को फ़ोन करे और नतीजा वही होता जब भी फ़ोन करती तो ताना सुनने को मिलता।
कुछ समय बाद नेहा की सासूमाँ नेहा के पास रहने आयी। वहाँ भी वह वही राग गाती रहती, “हम तो सारा काम खुद ही करते थे और सास की सेवा भी। लेकिन यहाँ कामवाली आती है फिर भी सास को ना फ़ोन करने की फुर्सत है ना सेवा करने की।”
निशा भी एक कान से सुन दूसरे से निकाल देती।
इसी बीच एक दिन नेहा को बहुत तेज़ बुखार आ गया। सारा बदन गर्म तवे सा तप रहा था। आनन फनान में अलोक ने डॉक्टर को दिखया। डॉक्टर ने तुरंत ब्लड टेस्ट करवाने को बोल दिया। जब रिपोर्ट्स आये तो नेहा को डेंगू निकला तुंरत नेहा को अस्पताल में भर्ती कर ईलाज शुरु हो गया।
अब तो घर और बच्चों की सभी जिम्मेदारी सासूमाँ पर आ गई। आज तक जो काम वाली के ताने सासूमाँ नेहा को मारती आ रही थी, उन्हें दो ही दिनों में चाँद तारे नज़र आने लगे थे। कामवाली सफाई करके जाती नहीं कि दोनों बच्चे लग जाते खिलौने बिखेरने में। एक बिस्किट खाते तो दो चूर कर के गिरा देते, तो कभी लड़ाई सुलझाने में सासूमाँ की हालत पतली हो जाती। इसके बाद हॉस्पिटल खाना भी भिजवाना होता, रात होते होते बुखार सा चढ़ जाता सासूमाँ को।
एक हफ्ते बाद नेहा घर आ गई। सासूमाँ की पतली हालत देख पूछा, “अरे मम्मीजी ये आप इतनी कमजोर क्यों लग रही हैं? डेंगू तो मुझे हुआ था और आप मुझसे मिलने एक दिन भी हॉस्पिटल नहीं आयीं?”
“अरे बहु समय कहाँ मिला मुझे जो तुझे देखने आती और मेरी ये हालत काम कर कर के हो गई है।”
“लेकिन मम्मीजी, कामवाली तो थी ना? मैंने तो उसे फ़ोन कर रोटियाँ बनाने को भी कह दिया था।”
“अब बस भी कर बहु, समझ गई मैं। छोटे बच्चों के साथ कितने काम होते हैं, एक कामवाली तो बस सहारा मात्र होती है। हमारे समय में नन्द, देवर सास ससुर से भरा पूरा परिवार होता था तो बच्चे कब हाथों हाथ पल गए पता ही नहीं चला, लेकिन एकल परिवार में तो माँ को हर किरदार निभाने पड़ते हैं।”
“जी मम्मीजी सही कहा आपने”, और दिल ही दिल में नेहा को पहली बार आपने बीमार होने की ख़ुशी हुई थी। अब तो एक हफ्ता अस्पताल में रहना नेहा को बिलकुल महंगा नहीं लग रहा था क्यूंकि अब उसकी मम्मीजी को ये तो समझ आ ही गया था की एकल परिवार में कितने काम होते हैं। मन ही मन मुस्कुरा उठी थी निशा क्यूंकि ‘अब ऊंट पहाड़ के नीचे जो आ गया था’ और कामवाली के तानो से निशा को आजादी मिल गई थी।
प्रिय पाठक गण, “दो लोगों का काम ही कितना होता है” अकसर ये जुमला उन औरतों को सुनने को मिल जाता है जो ससुराल से बाहर अपनी गृहस्थी बसाती हैं। लेकिन सच्चाई तो ये है कि एकल परिवार में एक औरत हर भूमिका में होती है और काम दुगना भी करती है। संयुक्त परिवार में बड़ों का साथ होता है लेकिन एकल परिवार में ना ये साथ होता है ना सहारा।
मूल चित्र : YouTube
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