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जो मेरे साथ हुआ वो मेरी बहू के साथ नहीं होगा…

बेटा, एक औरत को औरत ही समझ सकती है। आदमी तो औरत को बहलाता है कि बस मैं ही हूं तुझे समझने वाला। औरत ही दूसरी औरत का असली सहारा है।

बेटा, एक औरत को औरत ही समझ सकती है। आदमी तो औरत को बहलाता है कि बस मैं ही हूं तुझे समझने वाला। औरत ही दूसरी औरत का असली सहारा है।

“बेटा! ये आदमी तो औरतों को लड़वाकर अपनी सत्ता कायम रखते हैं। उनकी बातों में आकर क्या लड़ना। असल ज़िंदगी में तो औरत ही औरत का सहारा होती है। चाहे वो माँ के रूप में हो, चाहे बहन, चाहे बेटी, चाहे सास, चाहे ननद, चाहे देवरानी-जेठानी”, माँ की सासू माँ ने कहा।

माँ की शादी 13 साल की उम्र में हो गई थी। तब पिता जी की उम्र तकरीबन 15 साल रही होगी।
माँ के शहर तक जाने के लिए तो बस चलती थी, परन्तु उससे आगे गांव तक बैलगाड़ी या तांगा ही चलता था।

माँ शादी से पहले कभी अपने गांव से बाहर गई ही नहीं थी। चार भाइयों की लाडली बहन थी, तो कभी नाना ने उन्हें उनकी नानी के घर तक नहीं जाने दिया था। गांव में एक प्राइमरी स्कूल था वो भी बस लड़कों के लिए, तो कभी स्कूल तक भी नहीं गई थी माँ।

शादी हुई तो माँ ससुराल जाने की खुशी में सारा काम खुद ही करवा रही थी, आज पहली बार गांव की सीमा के पार जा रही थी। माँ की बारात दो दिन रुकी गांव, तीसरे दिन विदा होते-होते रात हो चुकी थी।

माँ को विदाई के वक़्त नींद आ गई थी तो , उनकी बुआ ने उन्हें गोदी में उठा कर बारात वाली बस में बिठाया था। पिता जी भी दोस्तों के साथ बैठने की ज़िद्द में दुल्हन के साथ ना बैठकर बस की पिछली सीट पर दोस्तों के साथ ताश खेलने बैठ गए थे।

बारात पहुंची, माँ की सासू माँ ने स्वागत किया। सब देख रहे थे, “अरे फूलों! इतनी दुबली पतली छोरी? वंश कैसे बढ़ाएगी?”

माँ की सासू माँ ने कभी अपने लिए तो किसी को जवाब नहीं दिया था पर माँ के लिए ज़रुर बोली, “अरे! अभी आई है। खूब खिलाऊंगी, पिलाऊंगी अपनी बेटी को ,अपने आप तगड़ी हो जाएगी।”

सबने मुंह सिकोड़ लिया, “लो भला! सास के घर भी कोई बहू तगड़ी हुई है कभी? ससुराल तो चक्की है, आओ और आते ही दो पाटों के बीच पिसते रहो।”

माँ की खुशी अब तलक तो डर में बदल चुकी थी। सब औरतें अपनी तरह तरह की बातें बनाकर उस तेरह साल की बच्ची को अपने तराजू में  तोल रही थी। धीरे-धीरे मेहमान गए, माँ की सासू माँ ने खाना बनाया और बहू बेटे को खिलाया।

पिता जी ने आते ही बोल दिया, “अब मैं बैठक में नहीं सोऊंगा मुझे भी कमरा चाहिए।”

माँ की सासू माँ ने माँ को अपने साथ सुलाया। माँ को रात को नानी की याद आई और रोने लग गई।
दादी ने बहुत समझाया, पर माँ ने एक ना सुनी। फिर दादा जी ने धमकाया, “अब सो जाओ, कल छोड़ आयेंगे।”

फिर माँ दादी से चिपक कर सोई। अगले दिन दोनों सास-बहू खेत जाने की तैयारी में लग गईं। आते वक़्त दोनों गाय के लिए घास की गठरी लेकर आए।

घर आकर माँ ज़ोर से चिल्लाई, “सासू माँ! देखो मुझे सांप ने काट लिया, कितना खून बह गया! देखो मेरे कपड़े!”

दादी जल्दी से माँ को अंदर लेकर गई, “क्या तू इससे पहले महीने से नहीं हुई?”

“महीना क्या होता है? मुझे नहीं पता। ये खून बंद करो। मैं मरने वाली हूं मुझे तो सांप ने काट लिया!”

“नहीं बेटा! ऐसा होता है। तुम मेरी बात सुनो, मैं बताती हूं।”

“नहीं! तुम्हें क्यूँ नहीं काटा फिर, सासू माँ?”

“बेटा! ये सबके साथ होता है। चुप हो जा। तुझे आंगनवाड़ी वाली चाची के पास ले जाऊंगी वो समझाएगी। और सासू माँ नहीं माँ बोला कर, लेे दूध पी ले थोड़ा और सो जा।”

तभी माँ की चाची सास आई, “अरी! बहू ऐसे बेसुध क्यूँ पड़ी है? पेट से है क्या?”

“नहीं-नहीं अभी तो बच्ची है। थक गई खेत से आए थे।”

“अरे इतना सिर ना चढ़ा बहू को! तरह साल की उम्र में मेरा बेटा भी हो गया था।”

“अभी कच्ची उम्र है, कच्चे मटके में पानी भरना कौन सी अच्छी बात है?”

“अरे! मतलब बहू को छोरे के साथ ना सोने देती तुम जीजी?”

“ना अभी नहीं! मेरे साथ जो हुआ कच्ची उम्र में मेरी बहू के साथ नहीं होने दूंगी।”

“अरे! जब माँ-बाप ने ना सोची इतनी तो जीजी तुम क्यों इतना सोच रही हो? तुम तो सास हो!”

“मैं सास नहीं इसकी दूसरी माँ ही हूं।”

माँ दादी की बातें सुन रही थी। जो डर माँ के दिल में सास के लिए बैठा हुआ था, सब ख़त्म हो गया। और माँ अपनी दूसरी माँ के गले मिलकर खूब रोई।

तब दादी ने समझाया, “एक औरत को औरत ही समझ सकती है। आदमी तो औरत को बहलाता है कि बस मैं ही हूं तुझे समझने वाला। औरत ही दूसरी औरत का असली सहारा है। आज अगर मैंने तुझे सहारा नहीं दिया तो बुढ़ापे में तू कैसे मेरा सहारा बनेगी? ये तो मन का वहम है कि बेटे सहारा होते हैं बुढ़ापे का, असल में तो बहू सहारा बनती है बुढ़ापे का। तू तो फिर भी मेरी बेटी है।”

दादी ने माँ का खूब साथ दिया इतना कि वो अपनी सगी माँ का प्यार भी भूल गई और सासू माँ के रूप में माँ को मिली, अपनी दूसरी माँ।

सचमुच इंसानियत और समझदारी किसी डिग्री से नहीं आती। अगर सब औरतें ऐसा सोचें कि जो हमारे साथ हुआ वो अगली पीढ़ी के साथ ना हो तो कोई बेटी विदा होते वक़्त ना रोए। अगर औरत ही औरत का सहारा बने तो ये वृद्धाश्रम जैसी दीमक भी ख़त्म हो जाए।

आप भी अपने विचार ज़रुर लिखें।

मूल चित्र : YouTube

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