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जो बेटा न कर सका वो आज एक बहु ने कर दिखाया…

मालती बहुत ध्यान रखती अपने ससुरजी का, लेकिन उनका अकेलापन वो कैसे बांटती? हमेशा ही एक झिझक सी रहती थी दोनों ओर...

मालती बहुत ध्यान रखती अपने ससुरजी का, लेकिन उनका अकेलापन वो कैसे बांटती? हमेशा ही एक झिझक सी रहती थी दोनों ओर…

बालकनी में मोहन जी चुपचाप बैठे नीचे बच्चों को खेलता देख रहे थे। 

“बाबूजी, जाइये नीचे से घूम आईये”, मालती उनकी बहु ने कहा। 

“नहीं बहु यहीं ठीक है।” और फिर से एक लम्बी चुप्पी छा गई। 

मालती कुछ देर दूर से अपने ससुर जी को ताकती रही, फिर घर के बचे कामों को निपटाते लगी।  मन ही मन अपने पिता तुल्य ससुर जी की मानसिक स्तिथि से दुखी मालती सोच में डूब गई। अभी साल भर पहले तक कैसा तेज़ से भरा चेहरा रहता था बाबूजी का। गांव के साल भर में दो चक्कर तो लग ही जाते मालती और अविनाश के। बाबूजी और माँजी की ख़ुशी देखते बनती थी। तब ताजे फल, सब्ज़ियाँ और जाने क्या-क्या रोज़ ले कर आते अपने बेटे बहु के लिये। 

ससुराल कभी मालती को ससुराल लगा ही नहीं था। सास-ससुर से इतना प्रेम और स्नेह पा गदगद हो उठती मालती। लेकिन कहते हैं ना सब दिन एक समान नहीं होते। ऐसा ही कुछ हुआ इस खुशहाल परिवार में। अच्छी भली माँजी एक दिन ऐसा सोई की फिर उठी ही नहीं। 

बाबूजी को बहुत सदमा लगा। जिस जीवसंगनी के साथ इतने बरस बिताये वो बिना कुछ आहट दिये चली गई। ख़बर सुनते अविनाश और मालती दौड़े चले आये अपने बाबूजी के पास। भारी मन से सारा क्रिया-कर्म निपटा अविनाश और मालती उन्हें अपने साथ ले आये। अकेले गाँव में बाबूजी का रहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था। बाबूजी भी इस सच्चाई से परिचित थे, तो बेमन ही सही, आ गए बंगलौर बेटे बहु के साथ। 

मालती बहुत ध्यान रखती अपने ससुरजी का लेकिन उनका अकेलापन कैसे बांटती? एक झिझक सी दोनों ओर रहती। अविनाश को भी काम से फुर्सत नहीं रहती थी। एक रविवार मिलता तो उस दिन कुछ पल दोनों साथ बिताते। मालती बहुत चाहती बाबूजी वहाँ सोसाइटी के हमउम्र लोगों के साथ घुले-मिलें लेकिन मोहन बाबू ठहरे गाँव के शहर के लोगों से झिझकते मिलने-जुलने में। 

कुछ दिनों के मंथन के बाद मालती एक निष्कर्ष पर पहुंची। अविनाश से पूछा तो उसने भी सहमति जता दी। फिर क्या था महीनों बाद सुकून की नींद सोई मालती। अगले दिन दोपहर को बालकनी में बैठे मोहन जी को मालती ने कहा, “बाबूजी तैयार हो जाइये, कुछ बच्चे आ रहे हैं, आपसे गणित पढ़ने।”

“क्या? लेकिन क्यों बहु और फिर मैं कैसे…?” 

“क्यों नहीं बाबूजी मुझे क्या पता नहीं आपको गणित में कितनी रूचि है और अविनाश को भी तो अपने ही गणित पढ़ाया है। पढ़ाई में होशियार होने के बाद भी घर के आर्थिक हालातों ने आपको आगे पढ़ने नहीं दिया। इसलिए मैंने सोचा क्यों ना आसपास के बच्चों को आप पढ़ाई में मदद कर दें।” 

“लेकिन फिर भी बहु अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ, इस बुढ़ापे में क्या मुझसे बच्चों को पढ़ना हो पायेगा?” 

“बाबूजी, उम्र तो सबकी बढ़ती है लेकिन इसका मतलब ये नहीं की हम जीना छोड़ दें और फिर आप चिंता क्यों करते हैं? हम हैं ना आपके साथ, आपके संबल।”

मालती की बातों को सुन मोहन बाबू का चेहरा चमक उठा। आज महीनों बाद अपने ससुरजी के चेहरे पे वही चमक दिखी थी मालती को। कुछ ही दिनों में मोहन बाबू बदल से गए छोटे-छोटे बच्चों को गणित पढ़ाते। उनके साथ बोलते हँसते अपनी जिंदगी दोबारा जीना सीख गए मोहन बाबू। 

“बाबूजी को जिंदगी के दूसरा मौके से परिचय करवा उनकी आयु बढ़ा दी तुमने मालती। मैं बेटा हो कर भी जो देख-सुन और महसूस ना कर पाया, तुम बहु बन कर गईं।” 

“ऐसा ना बोलो अविनाश। बाबूजी सिर्फ मेरे ससुर नहीं, मेरे पिता भी हैं।” और दूर बैठे दोनों पति-पत्नी अपने पिता को फिर से अपने टूटे हुए बाबूजी को अपनी जिंदगी जीता देखने लगे। 

मूल चित्र : triloks from Getty Images Signature via Canva Pro

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