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आज सुप्रिया और अविनाश को एकांत में देखा तो राधा से भी रहा ना गया। पलों को एकांत में बिताने को सोच वो उत्पल के पास गई।
सुप्रिया और अविनाश को एकांत में पल बिताते देख आज राधा के भी मन में अचानक कई भाव जागृत हो गए। मौन पड़े इन अंधेरों में जाने क्या मन ही मन बुदबुदाहट सी उठी।
शादी को देखते-देखते पांच साल गुज़र गए। याद है उसे घर की बड़ी बहू बनकर आई थी। तब घर में दो ही कमरे थे, एक कमरे में सास-ससुर और दूजा कहने को नई बहुरिया का पर मज़मा जमा रहता था लोगों का। एकांत की तो सोच ही नहीं सकते थे।
छप्पर पड़े घर में जब राधा के पैर पड़े थे तो दिवाली सी मनी थी। कनखियों सी देखती राधा अपने उत्पल (पति) को घूंघट में ही लजाए जा रही थी। पर शायद ही इन पांच सालों में कभी मौका मिला था अच्छे से जब उत्पल और राधा ने शांति से एकांत में कुछ आत्मिक क्षण बिताए हों।
शायद जब प्यार से दोनों ने बात करने की कोशिश करी तो कभी बाबूजी की खांसी ने ये महसूस कराया कि अरे तुम दोनों एकांत में ना हो या कभी इशारों में बात करनी चाही तो सासू मां की तिरछी नज़रें ये समझा गईं कि बहू थोड़ा लोक-लाज का ध्यान रखो। इतना बेशरम होना भी ठीक नहीं!
खैर! वंशवृद्धि के लिए दिया गया एकांत तो सिर्फ एहसान के जैसा लगा। धीरे-धीरे साल बीता गर्भ ठहरा और राधा व्यस्त हो गई पारिवारिक जिम्मेदारियों में। अब ना राधा को कोई एकांत का समय और ना उत्पल को कोई मांग।
राधा का देवर अविनाश भी पैरों पर खड़ा हो चुका था। अब उत्पल की जिम्मेदारियों में उसने भी साथ देना शुरू कर दिया। दोनों भाइयों का व्यापार बढ़ा तो दो से पांच कमरों वाला घर खरीद लिया।
अब तो घर में छोटी बहू के आने की तैयारियां शुरू हो चुकी थीं। राधा ने कहा सोच रखा था कि शायद पांच साल बाद ही सही कुछ पल तो साथ एकांत में बिता पाएंगे। पर कहां आराम था राधा को, घर बदलते ही शादी की तैयारियां शुरू हो गईं। घर की बड़ी बहू होने के नाते जिम्मेदारियां भी बड़ी थीं। कहीं कोई तैयारियों में कमी ना रह जाए। कोई रिश्तेदार नाराज़ ना होकर जाए। शादी की तैयारियां भली भांति निपटें वगैरह-वगैरह।
आज बारात के समय किसी दुल्हन से कम ना लग रही थी राधा। उत्पल तो इतने सालों के बाद एक टक बस राधा के रुप और लावण्य को देखता ही रह गया था। दोनों में पांच साल पहले के वो पुराने भाव फिर से पनपने लगे थे। इतने व्यस्त माहौल में भी चोरी के पल निकाल ही ले रहे थे। हो भी क्यूं ना? अब घर में कमरे भी तो बढ़ गए थे।
राधा भी नवविवाहित दुल्हन की तरह इतराए घूम रही थी। रिझाने में कोई कसर ना छोड़ी राधा ने। लगा इन पलों को इन मुट्ठी से फिसलने ना दे। शादी के कामों को निपटाने के बाद जब आज सुप्रिया और अविनाश को एकांत में देखा तो राधा से भी रहा ना गया। पलों को एकांत में बिताने को सोच वो उत्पल के पास गई।
शायद आज पांच साल का इंतज़ार पूरा हो रहा था। आज पहली बार बिना किसी रोक-टोक के इतने करीब थे। आंखों ही आंखों में कितने संवाद हो गए दोनों के बीच। अश्रुधारा तो ऐसे फूंटी मानों बरसों से रुका सैलाब बह निकला।
बहुत कुछ कहना था एक-दूसरे से पर होंठों ने साथ नहीं दिया। बस आंखों ही आंखों से टकटकी लगाए देखते रहे। मानों कितनी शिकायतें थीं दोनों को। जब हमें एक-दूसरे को जानना था तब हम क्यूं नहीं इतने पास थे। मिलन की बेला पास आ रही थी कि अचानक सावित्री जी (राधा की सास) की आवाज़ आई।
राधा ने बाहर आकर देखा कि हर तरफ रिश्तेदारों का मज़मा लगा है। सासू मां बेचारी अकेली लगीं हैं कामों को निपटाने में। उसे लगा जैसे उसने महापाप कर दिया हो। क्या इतने ज़रूरी थे अंतरंग पल जिसमें उसे इन कामों का ध्यान ना रहा।
रसोई में खड़ी सोच रही राधा के कंधों पर उत्पल का हाथ पड़ते ही चौंक गई।
“क्या हुआ राधा? क्या सोच रही तुम? हमने कोई पाप नहीं किया। जो समय हमें तब मिलना चाहिए था जब हमें जरूरत थी नहीं मिला। हमारा वैवाहिक जीवन तब शुरू ही हुआ था। यह कोई दैहिक आकर्षण नहीं है राधा। प्यार हमारा शारीरिक आकर्षण से भी ऊपर है।
शायद इन आगे के सालों में तुमको और समझना चाहता हूं। जिसने हर त्याग के बाद भी अपने प्रेम में कोई भी कमी नहीं आने दी। बस आज के बाद तुम्हें और समय देना चाहूंगा। जिससे हमारे रिश्ते में और विश्वास और प्यार बढ़े।”
राधा की आंखों में खुशी के आंसू बह रहे थे। कहीं ना कहीं दोनों में आज और प्यार, सम्मान बढ़ गया था।
दोस्तों! कैसी लगी मेरी कहानी अपने विचार ज़रूर व्यक्त करें।
मूल चित्र : pixelshot via Canva Pro
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