कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
कमला चौधरी के बारे में न तो अधिक जानकारी मिलती है, न ही उनकी तस्वीर उपलब्ध है, बस उनका लिखा साहित्य ही उनकी थोड़ी जानकारी देता है।
भारतीय समाज में महिलाओं के सामाजिक स्थितियों के बारे में अधिकांश जानकारी, जो आज हमारे पास उपलब्ध है, उसमें महिलाओं के लेखन की बहुत बड़ी भूमिका है। जिन महिलाओं ने भारतीय समाज में महिलाओं के समस्याओं को इतिहास में दर्ज करने का काम किया, उन्होंने महिलाओं के सामाजिक समस्याओं को न केवल पुर्नपरिभाषित किया बल्कि उस स्थिति में सुधार के लिए संघर्ष भी किया।
कमला चौधरी का नाम उन महिला सुधारकों और लेखिकाओं के सूची में दर्ज है जिन्होंने भारतीय महिलाओं के सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृत्तिक प्रयासों पर सबसे अधिक ज़ोर दिया। एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर उन्होंने महिलाओं के समस्याओं की पहचान की, एक लेखिका के तौर पर उसे अपनी लेखनी में दर्ज किया और एक नेत्री के तौर पर सदन में महिलाओं के आवाज़ को बुलंदी प्रदान की।
दुभार्ग्य से, कमला चौधरी के बारे में न तो अधिक जानकारी ही मिलती है न ही उनकी तस्वीर ही उपलब्ध है। उनका लिखा साहित्य है जो उनके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी उपलब्ध कराता है।
उत्तरप्रदेश की राजधानी और नवाबों के शहर लखनऊ में कमला का जन्म 22 फरवरी 1908 को डिप्टी कलेक्टर पिता राय मोहन दयाल के घर हुआ। उस दौर में लड़की होने के कारण अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिए उन्हें भी अपने परिवार में संघर्ष करना पड़ा।
पिता के कई शहरों में तबादला होते रहने के कारण एक जगह स्थिर रहकर उनकी प्राथमिक शिक्षा नहीं हुई। इससे कमला का अपना अनुभव संसार महिलाओं के समस्याओं और दुविधाओं को लेकर बड़ा होता गया, जो स्कूली जीवन से उनके लेखन में भी उभर कर आने लगा था।
लेखन में उनकी अभिरूचि ही कमला को पंजाब से हिंदी साहित्य में रत्न और प्रभाकर की उपाधी हासिल कराने में मददगार सिद्ध हुई। 1927 में उनका विवाह जे.एम.चौधरी से हुआ और वह कमला चौधरी हो गईं।
हिंदी साहित्य में अध्यन की दक्षता प्राप्त करने के बाद कमला ने महिलाओं के आंतरिक दुनिया के पीड़ाओं को अपनी कहानियों में दर्ज करना शुरू किया। जाहिर है महिलाओं के आस-पास केंन्द्रित साहित्य रचने के कारण उन्हें नारीवादी भी कहा गया और उनके लेखन को आकर्षक और बोल्ड भी माना जाने लगा।
इसका एक कारण यह कहा जा सकता है कि जिस दौर में कमला लेखन कर रही थीं, यह वह दौर था जब कई महिलाएं स्कूल-कालेजों से शिक्षित होकर बाहर आ रही थीं और महिलाओं के सवालों को नए सिरे से पुर्नपरिभाषित कर रही थीं। उसके पहले तो समाज-सुधारक पुरुष ही महिलाओं के समस्याओं का समाधान मानवतावादी नज़रिये से कर रहे थे। इन प्रयासों में महिलाओं के लिए समानता और स्वतंत्रता वाली समाज के निमार्ण की तो कोई बात हो नहीं रही थी।
लैंगिक भेदभाव, विधवापन, महिला इच्छाओं, महिला मजदूरों के शोषण और महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव जैसे विषयों पर कमला चौधरी का लेखन देखने को मिलता हैं। उनके लेखन में महिलाओं के जीवन से जुड़ी वह सच्चाई देखने को मिलती है।
हालांकि कमला चौधरी का साहित्यक लेखन इनसे थोड़ा अलग था उन्माद(1934), पिकनिक(1936), यात्रा(1947), बेलपत्र, और प्रसादी कमंडल उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। इन साहित्यक रचनाओं के साथ उन्होंने महिलाओं के जीवन में सुधार के लिए सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में अपना प्रयास जारी रखा।
1930 के दशक में कमला चौधरी ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत अपने पारिवारिक परंपरा को तोड़ते हुए किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुई। महात्मा गांधी के शुरु किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन से देश के आजादी मिलने तक कमला चौधरी देश के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में कारावास तक का सफर किया।
जब भारत एक खुदमुख्तार मूल्क बना, तब उन्होंने भारत के संविधान बोर्ड के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में भारत के संविधान को प्रारूपित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका गठन 1950 में हुआ।
प्रांतीय सरकार जो आज उत्तरप्रदेश के रूप में जाना जाता है उसके सदस्य के रूप में भी कमला चौधरी ने अपनी भूमिका निभाई। वह राज्य सरकार में कल्याण सलाहकार बोर्ड की सदस्य रहीं और कांग्रेस कमेटी में वरिष्ठ उपाध्याक्ष के रूप में भी वे सक्रिय रहीं। इसके साथ-साथ वे जिला कांग्रेस कमेटी के शहरी और प्रांतीय महिला कांग्रेस कमेटी के विभिन्न पदों पर काम करती रहीं।
1962 में, वह हापुड़ से आम चुनाव जीति और तीसरी लोकसभा की सदस्य बनी। यह वह दौर था जब हापुड़ लोकसभा गाजियाबाद के क्षेत्र में आते थे। एक सांसद के तौर पर पांच साल उनकी भूमिका महिलाओं के सवालों पर काफी मुखरता वाला रहा।
एक समाज सुधारक के रूप में, महिलाओं के उत्थान के लिए वह विशेष रूप से सक्रिय रहीं। उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए सक्रिय रूप से काम किया। आजाद भारत के तीसरे दशक के शुरुआत में उनका निधन मेरठ में हुआ। एक लेखिका और राजनीतिक कार्यकत्ता के रूप में उनका जीवन बेमिसाल रहा फिर उनकी राजनीतिक और साहित्यिक उपेक्षा निराशा पैदा करती है।
मूल चित्र : अमर उजाला
read more...
Please enter your email address