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क्या आप उड़ीसा की बुलबुल कुतंला कुमारी सबत को जानते हैं?

कुतंला कुमारी सबत आजीवन महात्मा गांधी की अनुयायी रहीं और देश की आज़ादी के साथ उन्होंने महिलाओं की पितृसत्तामक गुलामी से भी आज़ादी चाही। 

कुतंला कुमारी सबत आजीवन महात्मा गांधी की अनुयायी रहीं और देश की आज़ादी के साथ उन्होंने महिलाओं की पितृसत्तामक गुलामी से भी आज़ादी चाही। 

भारत की कोकिला के रूप में सरोजनी नायडू का नाम इतिहास में दर्ज है। समान्य ज्ञान की जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति उनको जानता ही है और देश के लिए उनके योगदानों को भी। कुतंला कुमारी सबत भी स्वर कोलिला थीं, उन्हें उड़ीसा की बुलबुल कहा जाता है। यह उनके छोटे से जीवन का समान्य सा परिचय है। उड़ीसा की स्वर कोकिला के साथ-साथ वह उड़ीसा की वह महिला हैं जो आजीवन महात्मा गांधी की अनुयायी रहीं और भारत की आज़ादी के साथ-साथ उन्होंने महिलाओं का पितृसत्तामक गुलामी से मुक्ति का मार्ग भी देखा था।

कुतंला कुमारी सबत का शुरूआती जीवन

कुतंला कुमारी सबत का जन्म 8 फरवरी 1900 में उड़ीसा के बस्तर के जगदलपुर(जो अब छतीसगढ़ का हिस्सा है) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पेशे से डाक्टर और मां समान्य गृहणी थीं। उनके जन्म के पहले ही उनके माता-पिता ने कई कारणों से ईसाइ धर्म अपना लिया था। कुतंला का बचपन बर्मा में बीता जहां उसके पिता अपने पेशे के कारण कार्यरत थे।

पहली महिला डाक्टर होने का सौभाग्य

चौदह साल के उम्र में उनका परिवार जब उड़ीसा आकर बसा। तब कुंतला की शिक्षा शुरू हुई। उन्होंने अपनी पढ़ाई डाक्टरी के डिग्री के साथ 1921 में पूरा किया, वह भी सर्वोच्च अंक से। जिसके लिए उनको गोल्ड मेडल भी मिला। उनको कलकत्ता शहर की पहली महिला डाक्टर होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कमोबेश आठ साल कलकत्ता में काम करने के बाद वह दिल्ली आ गई जहां उनकी मुलाकात कृष्णा प्रसाद बह्मचारी से हुआ जिनसे उन्होंने विवाह किया और आर्य समाज को अपना लिया।

महिलाओं की मुक्ति का सपना

महात्मा गांधी के अनुयायी के रूप में उन्होंने देश के आजादी के साथ महिलाओं की मुक्ति का सपना देखा। महिला मुक्ति के बारे में उनके विचार उनकी कविताओं जो उन्होंने अपने शिक्षा के दौरान लिखी थीं, उनसे ही मिलते है। कुंतला हिंदी, बंगाली, बर्मी, अंग्रेजी और उड़ीसा भाषा में अपना अधिकार रखती थीं। कविताओं के लिए उन्होंने उड़ीया भाषा को अपना माध्यम बनाया। उन्होंने महावीर, जीवन और नारी भारती जैसी पत्रिकाओं का हिंदी में संपादन भी किया। उड़ीसा भाषा में साहित्य शोध के लिए उन्होंने भारती तपोवन संघ की स्थापना उड़ीसा में की।

लेख और कविता में थे महिला मुद्दे के विचार

उन्होंने महिला शिक्षा में मौजूद जातीय उपेक्षा, बाल-विवाह, भेदभाव और महिला के पर्दा के खिलाफ सिर्फ अपनी कविताओं में ही नहीं लिखा, उनके लेख और अधिकांश भाषण यहां तक कि  उनकी कविताएं भी महिलाओं के समानता-स्वतंत्रता के विचारों से प्ररित रहे। स्त्री समानता और स्वतंत्रता के उद्देश्य से उन्होंने उड़ीसा में महिला संघ की स्थापना की। महिला के शिक्षा में जातिय और कई भेदभाव पर उनके विचार इतने तीखे थे कि उनको सुनने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर बुलाया गया।

मानवीय संवेदना के प्रति समर्पित उनका जीवन जो कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्ति पाता रहा। महिला अधिकारों और भारत के स्वतंत्रता के उनके संघर्ष उन्हें उड़ीसा के अग्रणी महिलाओं के कतार में खड़ा करता है।

23 अगस्त 1938 को मृत्यु उड़ीसा और देश के लिए एक बहुत बड़ा सदमा रहा। छोटी सी उम्र उन्होंने उड़ीसा के बौद्धिक समाज में जो स्थान प्राप्त किया यह अनुकरणीय है।

देश के स्मृत्ति में उनका नाम भले ही धुंधला पड़ गया है पर उड़ीसा के लोगों में वहां के साहित्य में और वहां महिला मुक्ति के सपनों में उनकी कविताएं आज भी गूंजती है।

मूल चित्र : YouTube 

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