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शायद पैदा ही पुरखिन होती हैं हमारी बेटियां…

मायके से विदा होते, माँ के गले लग उनकी आँख पोंछते, जब पीठ पर हल्की सी धौल जमा रुखाई से खुद को अलग करती हैं, तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!

मायके से विदा होते, माँ के गले लग उनकी आँख पोंछते, जब पीठ पर हल्की सी धौल जमा रुखाई से खुद को अलग करती हैं, तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!

सर्दियों की शाम घर लौटकर,
मुंह हाथ धोते पिता का
हाथ पकड़ जब
आस्तीन जरा सी ऊपर कर
कहती हैं “भिगो मत लेना!”
तब पुरखिन होती हैं बेटियां।

बुखार में बेसुध पड़ी माँ के,
माथे को हाथ से सहलाती,
देह के ताप का अँदाजा लगा
अचानक उठ खड़ी हो,
तेलबत्ती कर,
होंठों से मंत्र बुदबुदाती
माँ की जब नजर उतारती हैं,
तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ।

छोटे भाई की नाक पोंछ,
ज़रा सा नमक-अदरक चटा,
जब सर्दी को धमका दूर भगाती हैं,
तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ।

मायके से विदा होते,
माँ के गले लग
उनकी आँख पोंछते,
जब पीठ पर हल्की सी धौल जमा
रुखाई से खुद को अलग करती हैं,
तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!

भाई-भतीजियों के शुभ को
किवाड़ पर सतिए काढ़ती,
देहरी पर मंतर-तंतर करती
जब धागे बाँध मनौती करती हैं,
तब पुरखिन होती हैं बेटियाँ!

मूल चित्र : Sharath Kumar via Pexels

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