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मेरे साथ कुछ गलत होता है तो गलत होने की सुई मुझ पर ही आकर टिकती है और दुनिया के बुद्धिजीवी, हाथ में मेरा चरित्र प्रमाणपत्र थमा देते हैं।
मैं एक स्त्री हूँ! हाँ, कहने को तो मैं इस समाज का ही एक हिस्सा हूं या कहूँ एक महत्वपूर्ण अंग हूँ। इस जगत की जननी हूँ फिर भी हर जगह उपेक्षित हूँ। पूरे परिवार को पाल सकती हूँ लेकिन अपने भीतर पल रही अपने ही जैसी को बचा नहीं पाती हूँ। यहां तक कि मेरे प्रति हो रहे अन्याय के लिए भी हर बार मुझे ही आशंकित नज़रों से देखा जाता है, तो क्या सच में मैं ही अकेली दोषी हूँ? क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ?
न्याय की मंदिर से लेकर संविधान तक, मेरे हित में यूँ तो बहुत से नियम व कानून बनाए गए हैं। उन नियम कायदों के बावजूद भी मेरा वजूद हर वक़्त खतरों में घिरा रहता है। जब भी कभी खुद को घूरती नज़रों को देखती हूँ तो लगता है जैसे महिला होना एक अभिशाप है। मैंने (स्त्री) तो हमेशा पुरुष को अपने से आगे ही देखना पसंद किया, चाहे वो पिता, भाई, पति या बेटे किसी भी रूप में हो। लेकिन जब-जब मैंने आगे बढ़ने की बात की तो कभी अनजानी सी पाबंदियों से, तो कभी समाज के नाम पर, मेरे पैरों को संस्कारों की जंजीरों से बांध दिया गया।
इतनी बंदिशें लगा दी गयीं कि पैर तक उठाने मुश्किल हो जाते हैं। क्यों? क्योकि मैं एक स्त्री हूँ? कहने को हम सब स्वतंत्र हैं लेकिन मेरे साथ स्वतंत्रता के नाम पर भी हर बार खिलवाड़ किया जाता रहा है। स्वतंत्र बनने की कोशिश की तो मेरे स्त्रीत्व पर ही उंगली उठायी जाती है। मेरे साथ कुछ गलत होता है तो तभी गलत होने की सुई हर बार मुझ पर ही आकर टिकती है। खड़े खड़े दुनिया के तमाम बुद्धिजीवी, हाथ में मेरा चरित्र प्रमाणपत्र थमा देते हैं।
आज समाज में ऐसे हालात बन गए कि महिला दिवस जैसे दिन मनाने की ज़रूरत पड़ गयी। दुनिया में महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता महसूस हो रही है। फिर भी जाने अनजाने हमें यही सुनने को मिलता है कि सारे कानून तुम्हारे लिए ही क्यों बनें हैं? अरे डर लगता है खून के रिश्तों से भी अकेले मिलने में। सहम जाती हूँ जब किसी रिश्ते में अधिक अपनापन दिखता है कि कहीं मुझे छलने का कोई प्रबंध तो नहीं? जितना घर से बाहर जाने में डर लगता है, हर वक़्त उतना ही घर के भीतर भी लगता है। क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ।
जब कभी भी मानसिक या शारीरिक रूप से मुझे घायल किया जाता है बहुत तकलीफ़ होती है। लेकिन कोई नहीं सुनता या कहूँ कोई सुनना ही नहीं चाहता। दर्द को झेलो, अत्याचार को बर्दाश्त करो, उपेक्षित हो रहे हो तो भी चुप रहो, यही चाहते हैं सब मुझ से। यही सब तो सिखाया भी जाते है हमें कि जितना हो सके चुप रहो। आवाज उठाना भी चाहो तो भी उलाहना मेरी ही होती है। दाग हर बार सिर्फ मेरे ही दामन पर लगता है। क्यों? सिर्फ इसलिए क्योकि मैं एक स्त्री हूँ?
कुछ ऐसी है मेरी कहानी, जहां त्याग की मूर्ति हर बार मुझे ही बनना पड़ता है। गलती मेरी हो या खुद को मर्द कहने वाले नामर्द की परंतु झेलना मुझे ही पड़ता है।
लेकिन अब और नहीं! मैं कहती हूँ हाँ मैं स्त्री हूँ। समाज का सिर्फ एक हिस्सा नहीं बल्कि अभिन्न हिस्सा हूँ मैं। यह बात समय रहते सब समझ जाएँ तो बेहतर है, क्योंकि क्या पता कब मैं बर्दाश्त करना बंद कर दूं। जिस दिन यह हुआ तो तय है, इस पुरुष प्रधान समाज को अस्तित्व में लाने तक से इंकार कर बैठूंगी।
डियर रीडर्स, आपकी इस बारे में क्या राय है? अगर आप मेरी बात से सहमत हैं तो इसे लाइक और शेयर भी कर सकते हैं।
मूल चित्र : EXTREME-PHOTOGRAPHER from Getty Images Signature via Canva Pro
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