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एक विधवा का दुःख उसके चेहरे से दिखना चाहिए…

याद है जब तुम्हारे जेठ जी की मृत्यु हुयी, लोग मेरे चेहरे को घूर-घूर कर देखते थे कि मैं रो रही हूं या नहीं, मुझे कितना दु:ख हुआ है।

याद है जब तुम्हारे जेठ जी की मृत्यु हुयी, लोग मेरे चेहरे को घूर-घूर कर देखते थे कि मैं रो रही हूं या नहीं, मुझे कितना दु:ख हुआ है।

“नेहा क्या हुआ? तुम उदास क्यों बैठी हो? और रो क्यों रही हो? मैंने मना किया था ना। अब रोना बंद करो। कब तक यूँ ही रोती रहोगी।”

“भाभी, मैं बहुत ज्यादा असहज हो जाती हूं जब हर कोई मेरे चेहरे को घूरता है। समझ नहीं आता क्या करूं?”

“कुछ नहीं नेहा, लोगों की सोच खराब है। तुम दिल पर मत लो।”

“बहुत आसान है कह देना कि दिल पर मत लो, पर बहुत मुश्किल है भाभी। लोगों की नजरें चुभती हैं जब वो लोग लगातार मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहे होते हैं।”

“मुझे पता नहीं, पर तुम ध्यान मत दो। पता नहीं क्या ढूंढते हैं वो तुम्हारे चेहरे पर। तुम रोओ मत, अब चुप हो जाओ।”

मनीषा लगातार अपनी देवरानी को चुप करा रही थी। जिसका रोना था कि बंद ही नहीं हो रहा था। और मनीषा को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करें? कैसे नेहा को चुप कराये। आखिर उसने भी तो नोटिस किया था कैसे लोग नेहा को नोटिस करते हैं। दरअसल दो महीने पहले नेहा के पति ऋषभ की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी।

वह वैसे भी बहुत दुखी थी, ऊपर से जो भी मिलने आता वह नेहा के चेहरे को ऐसे घूर-घूर के देखता कि वह क्या प्रतिक्रिया दे रही है? जिससे नेहा असहज हो जाती। और सबसे बड़ी बात यह हरकतें पुरुष नहीं, मिलने वाली औरतें करतीं। पता नहीं क्या ढूंढती थीं वो नेहा के चेहरे पर। रिश्तेदार हो करके भी उसकी भावनाओं को नहीं समझते।

नेहा की शादी ऋषभ से सात महीने पहले ही हुई थी। ऋषभ के परिवार में उसकी माँ रमा जी, पिता कैलाश जी, बड़ा भाई उदय, भाभी मनीषा, एक प्यारा भतीजा रेयांंश था। रमा जी तो बहुत खुश थी नेहा और ऋषभ की शादी के बाद। सब से कहती थी, “भाई अब तो अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली। अब आराम से दोनों बहुओं के साथ रहूंगी और अपने पोते-पोतियों को खिलाऊंगी।”

पूरा परिवार खुश था। नेहा और मनीषा भी देवरानी-जेठानी कम, बहनों की तरह रहती थीं। पर यह खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रही। एक दिन रात को ऋषभ घर लौट रहा था तो एक्सीडेंट हो गया, जिसमें ऋषभ की मृत्यु हो गई और सब कुछ बदल गया।

पर रमा जी और उनके परिवार ने खुद को संभाला, सिर्फ नेहा के लिए। उम्र ही क्या थी नेहा की। इतनी कम उम्र में इतना बड़ा दु:ख। परिवार जैसे-तैसे संभलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मनीषा नोटिस करने लगी थी कि जो भी रिश्तेदार मिलने आते, अधिकतर नेहा के चेहरे को बड़ा घूर-घूर कर देखते हैं। पर मनीषा कुछ कह नहीं पाती।

पर आज नेहा ने कहा, तो मनीषा को लगा कि सही तो कहा नेहा ने। आखिर ये रिश्तेदार महिलाएं क्या पढ़ना चाहती हैं उसके चेहरे पर? या ये देख रही हैं कि वो दहाड़े मार कर रो रही है या नहीं? क्या उसके रोना का तरीका बताएगा कि उसे कितना दु:ख हुआ?

नहीं-नहीं, जवाब तो देना पड़ेगा। अगर मम्मी जी या घर के बड़े नहीं देते तो मैं दूंगी। पर दूंगी जरूर। मनीषा ठान चुकी थी कि अबकी बार किसी ने यह हरकत की तो वह जवाब जरूर देगी।

दो दिन बाद मनीषा की ताई सास और बुआ सास का एक साथ आना हुआ। आने के बाद थोड़ी देर तो वही रोना-धोना हुआ। उसके बाद जब सब कुछ नॉर्मल हो गया तो मनीषा ने दोनों के लिए खाना लगा दिया।

अब नेहा भी मनीषा के साथ-साथ किचन में चुपचाप काम करवा रही थी। तो उसकी बुआ सास ने नेहा को अपने पास ही बिठा लिया, “नेहा तुम रहने दो। मनीषा खाना खिला देगी। तुम परेशान मत हो।”

मनीषा ने भी इशारे से उसे बैठने के लिए कह दिया। पर नेहा थोड़ी देर बाद ही उठ करके मनीषा के पास आ गई। मनीषा समझ चुकी थी कि क्या हुआ होगा? मनीषा ने नेहा को रेयांश के साथ उसके कमरे भेज दिया क्योंकि रेयांश के कारण नेहा थोड़ी देर ही सही मुस्कुरा तो लेती थी। उस छोटे से बच्चे के साथ खेल कर वह खुश हो लेती थी।

थोड़ी देर बाद मनीषा भी अपनी ताई सास और बुआ सास के पास आकर बैठ गई। इतने में ताई सास ने कहा, “मनीषा, नेहा को बुला ले। अंदर अकेली रो रही होगी।”

“नहीं ताई जी, रेयांश हैं ना नेहा के साथ।”

कहते-कहते मनीषा बार बार बुआ जी के चेहरे की तरफ देखे जा रही थी। जब बुआ जी को असहज लगा तो उन्होंने मनीषा से पूछ ही लिया, “आखिर तू बार-बार मेरे चेहरे को घूरे क्यों जा रही है? क्या देखना चाहती है?”

“बुआ जी मैं सिर्फ इतना ही देखना चाहती हूं कि आपको अपने भतीजे के जाने का कितना दु:ख हुआ है?”

“क्या बकवास कर रही है?”

“यह मैं बकवास नहीं कर रही हूं। यह तरीका तो आप ही लोगों ने सिखाया है।”

“तुम कहना क्या चाहती हो बहू?” अब की बार रमा जी ने कहा।

“यही कि सब लोग नेहा के चेहरे पर क्या ढूंढते हैं? क्यों घूरते रहते हो उसके चेहरे को? क्या आंसू से पता चलता है कि दु:ख कितना गहरा है? उसको आखिर क्या महसूस करवाना चाहते हो?”

“बहू ऐसा कुछ नहीं है। तुम बेवजह ही बात पकड़ रही हो। तुम्हें गलतफहमी हुई है।”

“नहीं रमा, ये गलतफहमी नहीं है। लोगों की आदत होती है। तुम्हें याद है जब तुम्हारे जेठ जी की मृत्यु हो गई थी। लोग मेरे चेहरे को इसी तरह घूर-घूर कर देखते थे कि मैं रो रही हूं या नहीं। मुझे कितना दु:ख हुआ है। मुझे बहुत असहज लगता था पर कहूं किससे? पता नहीं ये औरतें घूर-घूर कर के क्या देखना चाहती हैं। अगर कोई दहाड़े मार-मार कर रो रहा है तो उसको दु:ख हुआ है, लेकिन पता नहीं ये कैसी सोच है?”

ये सब सुनकर बुआ जी से भी कुछ कहते ना बना।

सही तो है, आखिर हम दुखी इंसान के चेहरे पर ढूंढते क्या हैं? हमें खुद नहीं पता होता। पता नहीं क्यों? लोग रोने को ही दुख का पैरामीटर बना लेते हैं।

मूल चित्र : IMDB

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