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‘जागो!’ ये थी महिलाओं के लिए बेगम रुकैया सखावत हुसैन की आवाज़

बेगम रुकैया सखावत हुसैन ने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा के माध्यम से अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागृत करने का प्रयास किया था।

बेगम रुकैया सखावत हुसैन ने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा के माध्यम से अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागृत करने का प्रयास किया था।

भारतीय इतिहास में 19वीं सदी का आरंभ वह देशकाल है, जिससे गुजरने पर पता चलता है कि उस दौर में तमाम अंर्तविरोधों के बाद भी स्त्रियों में पढ़ने-लिखने की गहरी चाह थी। कई महिलाओं के आत्मस्वीकृति और आत्मकथाओं के माध्यम से यह बात उभर कर सामने आते है कि कुछ महिलाएं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारीयों का निर्वाह करते हुए समय चुराकर पढ़ना-लिखना सीख रही थी, कुछ महिलाएं पति या भाई के सहयोग से पढ़ना-लिखना सीख रही थी। कई महिलाएं अपनी शिक्षित होने की उपलब्धि को छुपाती भी थी।

बहुसंख्यक परिवार में यह मान्यता प्रचलित थी कि पढ़ी-लिखी लड़कियां अपने विवाह के बाद विधवा हो जाती हैं या अक्षरों की जानकारी महिलाओं को कुटिल बना देता है। ऐसे माहौल में मुस्लिम महिलाओं के लिए बेगम रुकैया सखावत हुसैन एक ऐसी उम्मीद का नाम है जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है।

बेगम रुकैया सखावत हुसैन उन्नसवीं और बीसवीं सदी के बंगाली मुस्लिम समाज में महिलाओं के विरुद्ध चल रहे परंपराओं और नियम-कायदों की कड़ी निंदा की। बेगम रुकैया औपनिवेशिक बंगाल में मुस्लिम समाज कि महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक समाज की आलोचना की प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में नजर आती हैं जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा के माध्यम से अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागृत करने का प्रयास किया।

बेगम रुकैया खातून का जन्म 9 दिसंबर 1880 में रंगपुर जिले के (जो अब बांग्लादेश में है) पेराबाउड में एक धनाढ़्य जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता ज़हीरुद्दीन अबू अली हैदर साबेर जो अरबी, फारसी, पश्तो, उर्दू और अंग्रेजी के अच्छी जानकारी रखते थे, एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे। चार पत्नियों, नौ बेटों और छह बेटियों के उनके परिवार में स्त्रियों को पर्दे के नियम का कड़ाई  से पालन करना होता था। रुकैया के पिता की पहली पत्नी राहतउन्निसां साबेर चौधरानी की दो बेटे और तीन बेटियों में दूसरे स्थान पर थी।

रुकैया की अपनी आत्मकथा “मोतीचूर” में बचपन की घटनाओं का विवरण

अपने बचपन की घटनाओं के बारे में रुकैया अपनी आत्मकथा “मोतीचूर” में लिखती हैं कि उनके घर पर कोई व्यक्ति मिलने के लिए आ जाता तब छोटी बालिकाओं को भी दौड़ाकर छुप जाना पड़ता था, कभी रसोई में, कभी बड़ी टोकरी के पीछे, कभी बिस्तर के नीचे, भले ही आने वाला आगंतुक स्त्री ही क्यों न हो? वह इसलिए क्योंकि परिवार की महिलाओं और लड़कियों को पर्दे नियमों को सख्ती से पालन करने की हिदायत थी।

रुकैया की बहनें अपने बड़े भाई से पढ़ा करती थी। वह खुशकिस्मत थीं कि स्कूल नहीं जाने के बाद भी, उन्हें बड़े भाई इब्राहिम साबेर ने अपनी बहनों को पढ़ने-लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके लिए इब्राहिम साबेर और उनकी बहन रात होने का इंतजार करती थी, रात के भोजन के बाद जब उनके पिता सोने के लिए चले जाते, तब वो अपनी बहन और बड़े भाई से रात के सन्नाटे में, मोमबत्ती की रोशनी में अंग्रेजी पढ़ना सिखती थी क्योंकि उस समय किसी को मालूम होने का खतरा नहीं रहता था।

बेगम रुकैया से बेगम रुकैया सखावत हुसैन का सफर

बेगम रुकैया की शादी 1896 में कर दी गई जब वो सिर्फ सोलह वर्ष की थी और वो बेगम रुकैया सखावत हुसैन हो गई। रुकैया के पति सैयद सखावत हुसैन विधुर थे और पहली पत्नी से उन्हें एक बेटी थी। सखावत हुसैन ने पश्चिम में पढ़ाई की थी और वो स्वयं तरक्कीपसंद, उदार ख्याल एंव जहीन इंसान थे। वे बिहार में भागलपुर जिले अंग्रेज सरकार के बड़े ओहदे पर कार्यरत थे। वे अपनी नौजवान पत्नी रुकैया को सहचर के रूप में देखते थे। पढ़ाई-लिखाई और तरक्कीपसंद माहौल ने रुकैया के अंदर महिलाओं और खासतौर से मुसलमान महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के लिए संघर्ष की जमीन तैयार कर दी।

22 वर्ष की उम्र में बेगम का पहला लेख प्रकाशित हुआ

उनका पहला लेख ‘पिपासा’, 1902 में ‘नवप्रभा’ ज्ञानेंद्र लाल राय के संपादन में प्रकाशित हुआ जब रुकैया 22 वर्ष की थी। इसके बाद उनका लेख ‘महिला’ में गिरीश चंद्र सेन के संपादन में ‘गुलामी के प्रतीक आभूषण’ प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चित भी हुआ। उनके कई लेख ‘अर्द्दागी’, ‘गृह’, ‘बुर्का’, ‘सुगृहणी’ भी देखने को मिलते हैं जो ‘नवनूर’, ’नवप्रभा’ और ‘महिला’ पत्रों में प्रकाशित हुए। इन लेखों में बेगम रुकैया ने स्त्रियों के असमान विकास, आर्थिक साधनों से महिलाओं की दूरी, पुरुष प्रतिष्ठा के नाम पर महिलाओं के सीमाबद्ध दायरे पर अपना लेखन किया।

अपने लेखों में उन्होंने उत्पीड़न के खिलाफ स्त्रियों में जागरूकता में शिक्षा की भूमिका की ज़रूरत को केंद्रीय विषय बनाया था। उनकी प्रमुख रचनाएं सुलतानाज़ ड्रीम (1908, अंग्रेजी में लघु उपन्यास), मोतीचूर, खण्ड-1 और 2 (1904 और 1922), पद्मराग (1924, उपन्यास), अबरोधबासिनी (1931, व्यंग्य रचना संग्रह), कई कविताएं, कहानियां, अंग्रेजी और बंगला में कई लेख बेगम रुकैया रचनावली में संकलित है।

मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल का संचालन भी किया

रुकैया का विवाहित जीवन अधिक समय तक नहीं चला, 1909 में रुकैया के 29 वर्ष में ही सखावत हुसैन दिवंगत हो गये। सखावत हुसैन जानते थे कि रुकैया मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के लिए कुछ करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने उनके लिए दस हजार रुपये छोड़ गये। 13 वर्ष के विवाहित जीवन में प्रारंभ में ही दो बच्चों के मौत के बाद भी उदासी और अकेलेपन के माहौल में रुकैया ने अपने जीवन पर नियंत्रण रखा और पति के छोड़े गए धन से उनके नाम पर एक स्कूल शुरू करने का निश्चय किया। जो सखावत मैमोरियल गर्ल्स स्कूल के नाम से भागलपुर में शुरु हुआ पर सौतेली बेटी और दामाद के संपत्ति विवाद से तंग आकर उन्होंने पति का घर छोड़ दिया|

कलकत्ता में अलीउल्लाह गली में छोटे से घर में केवल ग्यारह छात्राओं के साथ एक स्कूल शुरु किया। जो बाद में सर्कुलर रोड में स्थांतरित है। मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल का संचालन बेगम रुकैया के जीवन का निर्णायक मोड़ था। हालांकि मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के लिए स्कूल खोलने का बेगम रुकैया का यह प्रयास औपनिवेशिक भारत का पहला प्रयास नहीं था। परंतु बेगम रुकैया जिस सुव्यवस्थित योजना और साहसिक कोशिशों से इस स्कूल का संचालन कर रही थी। वह बेगम रुकैया को महिला शिक्षा के क्षेत्र में आगे के पंक्ति में खड़ा कर देता है। खासकर जब वहां उर्दू के साथ-साथ पर्सियन, अरबी, बंगाली और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जा रही थी जबकि शिक्षण का माध्यम उर्दू था।

बेगम रुकैया इस्लामी संप्रदाय के कट्टरपंथी भावनाओं के प्रति पूरी तरह संवेदनशील थी फिर भी मुसलमान लड़कियों को शिक्षा देने के कारण उन्हें समाज के वर्ग के आलोचना को बराबर झेलना पड़ा। मुस्लिम लड़कियों के लिए शिक्षा के अभियान पर उनके ऊपर ईसाईपरस्त और अंग्रेजपरस्त होने की आलोचना का शिकार होना पड़ा, लेकिन उनका स्कूल चलता रहा। बाद के दिनों में उनका स्कूल जूनियर स्कूल बना और उनकी छात्राएं दसवीं की परीक्षा में भी बैठी। उनका यह स्कूल सखावत मैमोरियल गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल के नाम से लार्ड सिन्हा रोड पर, कलकत्ता में आज भी चल रहा है।

लड़कियों के पाठ्यक्रम के शैक्षणिक कार्यक्रम रुकैया बेगम के लेखकीय रचनाओं से बिल्कुल मेल नहीं खाते थे। उन्होंने स्कूल के पाठयक्रम में उन नियमों से खुद को जोड़ कर रखा, जो महिलाओं को एक दायरे तक ही सीमित करते थे। क्योंकि वो इस्लामी संप्रदाय की कट्टरपंथी भावनाओं के टक्कर लेकर मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा के रास्ते को बंद नहीं करना चाहती थी।

बेगम रुकैया सखावत हुसैन का नारीवादी लेखन

औपनिवेशिक शासन के दौर में बेगम रुकैया का संघर्ष लिंग अधीनता के विषय पर आलोचात्मक था। रुकैया बेगम ने राजनीतिक सहभागिता में मुस्लिम महिलाओं के अधिनता के प्रश्न को राजनीतिक प्रश्न के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। अपनी रचनाओं में उन्होंने औपनिवेशिक और महिलाओं की सामुदायिक अधिनता का पुरजोर विरोध किया है। लिंग अधीनता पर उनका लेखन उनकी राजनीतिक सहभागिता को प्रदर्शित करता है।

बेगम रुकैया की नारीवादी आलोचना दो प्रस्थानबिंदु पर आधारित दिखती है। मौजूदा दौर में नारीवादी आंदोलन भी इन दो समस्याओं को महिलाओं के दोयम स्थिति के कारण के रूप में पहचानता है। वह महिलाओं की अधीनता के कारण के रूप में परिवार संस्था के कार्य करने के तरीके और धर्म जिस रूप में मानव समुदाय में स्थापित है; उसे मानती है। रुकैया परिवार संस्था को खत्म करने की बात नहीं करती। परंतु, परिवार के पुर्नरचना के लिए स्त्री-पुरुष समानता और वैवाहिक साझेदारी को जरूरी मानती है।

वह धर्म का मानव समुदाय के बीच मौजूद होने का विरोध नहीं करती; परंतु धर्म जिस तरह महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता को नियंत्रित करता है और महिलाओं के जीवन में अवरोध उत्पन्न करता है उसका पुरजोर विरोध करती है। वह पुरुषों से भी कहती है कि महिलाओं को समानता दे, उनके योगदान को स्वीकार करे और उनकी सहभागिता को बराबरी का महत्व दें। महिलओं के लिए उनकी आवाज थी- “जागो!”

नोट :- इस लेख को लिखने के लिए बेगम रुकैया के आत्मकथा “मोतीचूर” से जानकारीयां ली गई है।

मूल चित्र : Beingbideshi, Streekaal, Wikipedia

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