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एक दिन यही रेस आपकी अपनी बेटी जीत लेगी और वह उसकी अपनी जीत होगी, कोई नहीं होगा उसका जीत का दावेदार या हकदार।
मार्च महीने के दूसरे पखवाड़े में महिलाओं के आत्मसम्मान और गौरव मनाने का दिवस ‘महिला दिवस’ है लेकिन पहले पखवाड़े के शुरुआत में ही, जिंदगी से भरपूर एक लड़की ने यह कहते हुए मौत को गले लगा लिया, “नहीं है शिकवा-शिकायतें मुझे किसी से।”
सोचता रहा रात भर उसके बारे में और हाथ आया मेरे यह ख्याल कि अपराधी तो हम सब भी हैं, जिन्होंने सिर्फ ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ के नारे को आलोचना के लिए चुना लेकिन कभी भी, बेटियां जो केवल अपनी नहीं साझा होती हैं, को नहीं समझ सके। नहीं समझ सके कि उसकी जिंदगी से क़ीमती और कुछ भी नहीं है। घर, इज्जत, शान, दुनियादारी, शादी, सब चीज़ें उसे वो खुशी नहीं दे सकतीं जो सच में वो चाहती है। पर हमने हमेशा इन चीजों के लिए उसको दांव पर लगाया।
ख्याल की आंधी वहां जाकर एक बार फिर टंग सी गई और मैं रह गया फिर भौचक्का। कैसे सर्वोच्च अदालत में बलात्कारी से पूछा जा सकता है कि वह ‘उस लड़की’ से शादी करने को तैयार है? लगा कि रक्माबाई फिर से कोर्ट के दहलीज़ पर खड़ी है और कह रही है उसे अपने पति के साथ नहीं रहना है क्योंकि वह व्यभिचारी है और उसे उससे मुक्ति चाहिए। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354 कहती है किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाना अपराध है, जिसके लिए एक से पांच साल तक की सजा भी मुकरर्र है। क्या सर्वोच्च अदालत ने जो कहा वह उस महिला के गरिमा का अपमान नहीं था?
बुक शेल्फ पर पड़ी किताब ‘नो नेशन फॉर विमेन’ जो न जाने कितने आकंड़ों और दलील से यही सिद्ध करने की कोशिश करती है। मेरे सपनों का देश भारत महिलाओं के लिए सुरक्षित न कभी था न कभी रहा है, कभी रहेगा इसकी उम्मीद बची है।
उसी उम्मीद को फिर से जिंदा करने आ जाती है असम के खेतों से एक लड़की, जो कछुआ और खरगोश की कहानी के तरह अपने दौड़ की शुरुआत धीमा रखती है। सब उसके जीतने की उम्मीद छोड़ देते है फिर अचानक से आखिरी हिस्से में वह अपनी रफ्तार बदलती है और सब को चौंका देती है।
जवाहर नवोदय विधालय से तराशी गई हिमा दास, कभी लड़को के साथ फुटबॉल खेलती और पुलिस में जाने का सपना देखती। कोच ने हिमा के खेल को देखते हुए उसे एथलीट के लिए तैयार करना शुरू किया। घर वालों ने हिमा को तैयारी करने के लिए गुवाहाटी जाने की अनुमति दे दी चलो वहां तीन वक्त का खाना तो मिलेगा। पिता ने मेहनत से पैसे जोड़कर ADIDAS के मंहगे जूते खरीद कर दिए। जिसने खुद उसे अपना ब्रांड एम्बेसडर बनाया है।
उम्मीद, मेहनत और जस्बे ने कुछ ऐसा जोड़ बनाया कि वह ग्लोबल ट्रैक पर गोल्ड झटकने वाली पहली भारतीय महिला बन गई। एले इंडिया, फेमिना, वोग जैसे मैग्जीन के कवर पर आज हिमा दास है जहां अब तक केवल सुंदरता को ही जगह मिलती थी। हिमा ने इन पत्रिकाओं को अपने बहते पसीने के आगे झुका दिया कि वो भी खूबसूरत है उन लाखों लड़कियों के उम्मीदों के लिए जो हिमा दास के तरह सपने देखती हैं और उसको पूरा करना चाहती है।
हिमा की कहानी तो यही कहती है कि इस देश में महिलाओं के लिए पूरा का पूरा जीवन ही एक रेस है जिसे उसको जीतना ही है। फिर क्या फर्क पड़ता है कि आपकी शुरुआती लाइन कहां से खींची गई थी। ठीक है आपके पास सब कुछ अच्छा और ठीक-ठाक नहीं था और जिंदगी लाखों समस्याओं के आगे हर रोज हारती हुई दिखती है पर उससे लड़ना भी उस कन्सिस्टेन्सी से होगा और एक दिन वो रेस जो आप जीत लेंगी वह आपकी अपनी होगी, कोई नहीं होगा उसका जीत का दावेदार या हकदार।
आज हिमा दास जिस खाकी को पहनकर दमक रही है। उसने अपने जीवन की एक और रेस जीत ली है। हिमा को पता है यह उसके जीवन की आखरी रेस नहीं है। देश को हिमा जैसी कोहिनूर पर गर्व है। यकीन मानिए देश को अपनी हर बेटी पर गर्व होगा, बस उसके जीने की तकलीफ थोड़ी कम कर दें। उसको अपनी इज्जत, शान और दुनियादारी के वेदी पर अपनी जीवन लीला समाप्त नहीं करने दें। हर बेटी को उसका आसमां छूने दें, चमकता हुआ सूरज और ध्रुव तारा वह खुद बन जाएगी।
मूल चित्र : YouTube/Canva Pro
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