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बॉम्बे बेगम्स इस बात को स्थापित करने में कामयाब हो जाती है कि सभी महिलाएं समाज की एक ही मानसिकता से लड़ रही है और वह है पितृसत्ता।
वेबसीरिज बॉम्बे बेगम्स मौज़ुदा मुबंईया जीवन में महिलाओं के जीवन संघर्ष जिसमें उनका शरीर उनके ही विरुद्ध एक शातिर हथियार बन जाता है कि कहानी कहता है। परंतु, कहानी जिस मुबंईया शैली में दर्शकों के सामने आती है उससे अधिकांश दशर्क ऊब चुके हैं। सबसे पहले सीरिज का नाम “बॉम्बे बेगम्स” ही चुभता है क्योंकि महिलाओं के उसके अपने शरीर के साथ जीवन-संघर्ष फिर चाहे वो आम हो या खास किसी भी मुल्क में एक ही तरह का है। इसलिए केवल “बेगम्स” भी काफी होता।
“बांम्बे बेगम्स” ताश के 52 पत्तों में चार बेगम की कहानी है जिनकी महत्वकांक्षा उनके सपने, इच्छाओं और निराशा सब कुछ पुरुष सत्ता से टकराती है। दुनिया की तमाम महिलाएं चाहे वह आम महिला हो या खास सबों के अस्तित्व से टकराता हुआ सवाल ही उनको सबसे अधिक झकझोरता है। सीरिज इन बेगमों के अलावा अन्य कुछ किरदारों की भी है जो कहानी के पात्रों के इर्ग-गिर्द घूमते हैं। उन सब में विवेक गोंबर का किरदार सबसे अधिक असरदार है क्योंकि वह पितृसता के वास्तविक चेहरे वाली झलक अपने साथ लेकर चलता है।
लेखक, निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव और बोरनिला चटर्जी ने रानी (पूजा भट्ट), फातिमा (शाहाना गोस्वामी), आशया (प्लाबिता बोर्थाकुर), लिली (अमृता सुभाष) और शाई (आराध्या आनंद) के सहारे पांच अलग-अलग महत्वकांक्षी महिलाओं की कहानी नए अंदाज में प्रस्तुत किया है। रानी एक बैंक की कामयाब सीओ है जिसका लड़का, लिली के लड़के का एक्सीडेंट कर देता है।
लिली एक बार डांसर है पर अपने लड़के को इस दुनिया से निकालना चाहती है। रानी मामला सेटल करना चाहती है लेकिन लिंली को पैसा नहीं इज्ज़त चाहिए। रानी के बैंक में सहकर्मी फातिमा अपने कैरियर में आगे बढ़ना चाहती है अपनी पहचान चाहती है लेकिन उसका पर्सनल लाइफ उसकी महत्वाकांक्षा के आड़े आ जाती है।
यह सवाल कमोबेश हर कामकाजी महिला के साथ खड़ा रहता है करियर और परिवार का चयन में एक को तिलांजली देने का दंव्द फातिमा के चेहरे पर आता जाता रहा है। रानी के ही कंपनी में आशया काम करती है वह कॉपॉरेट लीडर बनना चाहती है। उसकी सफलता के रास्ते में कई समस्याएं आती है जिसमें बॉडी और च्वाइसेंस का मसला भी आता है। वह कहती भी है कि हमारी सोसायटी बॉडी और च्वाइसेस के आगे देखती ही नहीं है, जिसको कहते हुए उसकी आखों में दर्द और मह्त्वकांक्षा एक साथ झलक आते हैं।
रानी, आयशा और फातिमा सहकर्मी है। तीनों अलग-अलग मौके पर अपना-अपना, सुख-दुख साझा करते हैं। मूल रूप से कहानी यह बताती है कि पितृसत्तात्मक समाज में लड़ते हुए एक महिला निजी और बाहरी दायरे में किन-किन मोर्चे पर लड़ते हुए अपनी पहचान बनाती है, उसका दम फूल जाता है, वह हांफती भी है, पर हार नहीं मानती है। क्या हर हालात से लड़ते हुए वह जीत जाती हैं?
इस कहानी का मुख्य आकर्षण है अपना ओटीटी डेब्यू कर रही पूजा भट्ट जो अपने कारण सीरिज देखने को मजबूर भी करती है और कहानी के बीच में आकर उनसे मोह भटकने लगता है। अमृता सुभाष जो मराठी सिनेमा के साथ-साथ हिंदी सिनेमा में अच्छी पहचान बना रही है उनका अभिनय काफी संतुलित है। रानी के सतौली बेटी के रूप में आध्या आनंद का यह पहला हिंदी प्रोजेक्ट है वह जिन विरोधाभास को दिखा रही है वह काफी उधेड़बुन में सिमटा हुआ दिखता है।
इसी तरह से उनका किरदार भी सामने आता है जो अचानक से कोई बड़ी बात कर जाता है पर खुद हिपोक्रेट के तरह उलझा हुआ है। आयशा के किरदार में प्लाबिता ठाकुर के आंखो का पानी ही उनसे सबकुछ करवा रखा है। उनके अंदर का कलाकार अभी सामने नहीं आया दिखता है, उनके पूरे काफ्ट्र को अभी और मझने की जरूरत लगती है।
फातिमा के किरदार मे शाहाना ने जो न ही अधिक प्रभावित करती है न ही परेशान करती है, शायद वह अपने हर किरदार की सीमाएं बांध देना चाहती है, इसी तरह का बंधा हुआ अभिनय अ सूटेबल बॉय में भी दिखा था उनका। इसके अतिरिक्त पुरुष किरदारों में विवेक गोम्बर, दानिस हुसैन, इमान शाह, प्रशांत सिंह, मनीष चौधरी और राहुल बोस है। पर किसी पुरुष किरदार के पास करने को कुछ है नहीं, विवेक और मनीष चौधरी के हिस्से में जितना आया है उसमें वह प्रभावशाली रहे है।
प्रगतिशील कहानी कहने वाली अलंकृता श्रीवास्तव पर “लिपस्टिक अंडर बुर्का” जैसी कहानी कहने का दवाब इस सीरिज के ऊपर भी दिखता है। सीरिज में कहानी कहने के लिए उनके पास सिनेमा से अधिक समय भी था पर पूरी कहानी मुबंईया जैसे बनने में खो जाती है। सारे प्रगतिशील जिसमें मीटू, मेनोपांज, गर्भपात, लिव इन, सरोगेसी सब एक-एक करके आते है पर वह स्थापित होने से पहले गर्म पानी के भाप के तरह गायब हो जाते है।
वैसे सीरिज अब विवादों में घिरने के कारण कानूनी नोटिस भी झेल रही है। पूरी कहानी इस बात स्थापित करने में कामयाब हो जाती है कि चाहे इज्जत के तलाश में एक बार डांसर हो या स्थापित सीओ सभी महिलाएं समाज की एक ही मानसिकता से लड़ रही है वह है पितृसत्ता। सभी महिलाओं का सिस्टरहुड ही इस लड़ाई को जीतने का हौसला दे सकता है इसलिए एक-दूसरे पर शक करने बजाय भरोसा करना ज्यादा जरूरी रही है।
मूल चित्र : Screenshot of the web series, Bombay Begums
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