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बुरा न मानो होली है? अगर किसी महिला ने जबर्दस्ती रंग लगाने का विरोध किया तो घमंडी, बदतमीज और ना जाने क्या क्या कहा जाता है उसे।
होली का त्यौहार अब कुछ दिनों बाद आने ही वाला है। वैसे तो होली भाईचारे एवं खुशियों का त्यौहार कहा जाता है। वैसे तो होली मनाने का तरीका, होली के रंग, पिचकारियां सब समय के साथ बदल गए हैं, लेकिन कुछ है जो आज भी नहीं बदला। जिसमें बदलाव लाना सबसे ज्यादा ज़रूरी है वो है, होली पर रंग लगाने के बहाने महिलाओं से छेड़छाड़, उनपर अभद्र टिप्पणी करना और उनके साथ अश्लील हरकतें करना।
होली के आते ही बहुत सी महिलाएँ डर जाती हैं। उस दिन कई लड़कियां और महिलाएँ अपने घरों से बाहर निकलने से डरती हैं। और जो निकलना चाहती हैं, उन्हें निकलने नहीं दिया जाता। इस डर से कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाये।
महिलाओं के साथ रंग के बहाने ऐसी अश्लील हरकतें करने वाले जरूरी नहीं कि हर बार कोई बाहरी पुरुष ही हो, रंगों की आड़ में कई बार महिलाओ के साथ उनका कोई खास रिश्तेदार, सगी सम्बन्धी, या नजदीकी मित्र भी ऐसी हरकतें कर जाते हैं। जिसे महिला शर्म के कारण किसी से साझा भी नहीं कर पाती।
पुरुषों की इन हरकतों को देखकर ऐसा लगता है कि इस पितृसत्तात्मक समाज में होली में रंग खेलने और उसे मनाने का अधिकार सिर्फ पुरुषों को ही दिया।
अब यहाँ प्रश्न ये उठता है कि महिलाओं के साथ पुरुष आखिर ऐसा करते क्यों है? क्यों हैं ये ‘बुरा न मानो होली है’ का चलन? और आखिर क्यों ना बुरा मानूँ मैं?
हमारे समाज के समाजिक व्यवस्था की रूपरेखा ही पितृसत्तात्मक समाज ने ऐसी बनायी है जिसमें महिलाओं को पुरुष अपने भोग एवं कामवासना को दूर करने की वस्तु मात्र समझते हैं। परवरिश का ढांचा ऐसा बनाया गया है जहाँ महिलाओं का ही इस्तेमाल करके महिलाओं के प्रति विरोध में इस्तेमाल किया जाता है।
महिलाओं को हमेशा चुपचाप, शर्म ,लाज, घूँघट और चार दीवारी के भीतर रहना ही सिखाया जाता है और पुरुषों को पूरी छूट दी जाती है। अधिकतर मामलों में शोषण की शिकार महिला को घर वालों द्वारा ही सामाजिक लोक-लाज के डर से चुप करा दिया जाता है। इसी बात का फायदा आज तक ओछी मानसिकता के पुरूष उठाते आ रहे क्योंकि वो अच्छी तरह से जानते हैं कि महिला लोक-निन्दा, लोक-लाज के भय से बाहर या परिवार में किसी से कुछ भी नहीं कहेगी।
होली के अवसर पर होली के बहाने महिलाओं पर बनने वाले अश्लीलल गाने, व्हाट्सएप मैसेज, फेसबुक, ट्विटर मिम्स हर जगह धड़ल्ले से शेयर किया जाते हैं और कोई विरोध की आवाज भी नहीं उठती। लोग इसको हँसी-मजाक का नाम देकर टाल देते हैं।
पुरुषवादी मानसिकता होली के पर्व पर रंगों के बहाने महिलाओं के घाघरा, चोली, ब्लाउज, साड़ी दुप्पटे में ही घुसने और घूरने को बेचैन रहते हैं। जो कुंठा पहले सिर्फ जुबानी थी अब डिजिटल भी हो गयी है।
हालांकि महिलाओं के प्रति कुंठित सोच वाले पुरुष तो साल भर एक्टिव रहते हैं लेकिन होली पर रंगों के बहाने वो अपनी यौन कुंठा को पूरा करने की पुरजोर कोशिश करते हैं। लेकिन अगर किसी महिला ने जबर्दस्ती रंग लगाने का विरोध किया तो घमंडी, बदतमीज और ना जाने क्या क्या संज्ञा और उपनाम महिलाओं से जोड़ दिए जाते हैं।
सबसे दुःख की बात कई बार तो इस विरोध को विरोध ना समझकर जबरन आपस में कई पुरुष मिलकर एक महिला को रंग लगा देते हैं क्योंकि वो उसके विरोध को विरोध नहीं महिला का नाटक मानते हैं।
पता नहीं कब, क्यों, किसने और किस लिए महिलाओं को जबरन रंग लगाने की परंपरा होली के त्योहार में जोड़ दी क्योंकि ये हमारे ग्रथों या शास्त्रों में तो नहीं लिखा गया कि कोई पुरुष किसी महिला को जबरन रंग लगाए और उसका अपमान करे।
यहाँ विरोध होली पर्व या होली के रंगों का नहीं बल्कि जिस तरीके से इस त्योहार की आड़ में महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार किया जाता है ये विद्रोह उसका है। पितृसत्तात्मक समाज में पूरी की पूरी अवधारणा को महिलाओं के खिलाफ रचा गया है। ऐसे में अगर महिलाओं का अपमान या उनके साथ अमानवीय हरकतें होली के रूप में भी सामने आती हैं तो इनका विरोध दर्ज करना हर महिला का प्रथम कर्तव्य एवं अधिकार है।
मूल चित्र : Photo by Swarnavo Chakrabarti on Unsplash
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