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गुजरात हाई कोर्ट: मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार पर प्रतिबंध हो

गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि सभी स्थानों पर महिला के मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर उनके बहिष्कार पर प्रतिबंध होना चाहिए। 

गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि सभी स्थानों पर महिला के मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर उनके बहिष्कार पर प्रतिबंध होना चाहिए। 

ये लेख अंग्रेजी में पहले यहां प्रकाशित हुआ और इसका हिंदी अनुवाद रागिनी अजय पाठक ने किया 

एक  रिपोर्ट  के मुताबिक 9 मार्च 2021 को गुजरात HC ने महिलाओं के निषेध सामाजिक बहिष्कार का प्रस्ताव दिया है जो धार्मिक और शैक्षिक, सभी निजी और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ उनकी मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर भेदभाव करता है।

यह प्रस्ताव रिट आवेदक निर्झरी मुकुल सिन्हा की एक शिकायत के जवाब में आया है, जो एक शर्मनाक घटना, जो भुज के एक शिक्षा संस्थान में हुई थी, के आधार पर है।

रिट आवेदक निर्झरी मुकुल सिन्हा ने मासिक धर्म के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार की प्रथा को समाप्त करने के विशेष रूप से कानून बनाने के लिए दिशा-निर्देश देने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।

क्या थी याचिका

गुजरात हाई कोर्ट की मासिक धर्म को लेकर इस याचिका में दलील दी गई कि मासिक धर्म की स्थिति के आधार पर महिलाओं के बहिष्कार की प्रथा, संविधान में अनुच्छेद 14, 15, 17, 19, और 21 में निहित, मानवीय, कानूनी और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

औरतों के प्रति क्यों नही बदल रही समाज की सोच

वर्तमान सामाजिक परिवेश में जहाँ आज हम सब खुद को आधुनिक सोच वाले कहते हैं, जहाँ आज समाज में महिलाओं ने खुद को शिक्षा से लेकर विज्ञान तक, हर क्षेत्र में खुद को साबित किया है, वहाँ आज भी हमारे समाज मे महिलाओं के प्रति ज़्यादा कुछ नहीं बदला है।

बड़े बुजुर्ग एवं समाज के बुद्धिजीवी लोग कहते हैं कि शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो हमें अज्ञान के अंधेरे से निकलकर ज्ञान का रास्ता दिखाता है। विज्ञान हमें आडम्बरों के जाल से निकालकर हमारी सोच को आज़ाद करता है। यह शिक्षा ही है जो चमत्कार के झूठे पर्दे को चीर कर तर्कशील विज्ञान से हमें रूबरू कराती है।

शिक्षा की देवी साक्षात माँ सरस्वती है और हमारे समाज मे महिलाओं को देवी कहा जाता है लेकिन कैसा महसूस होगा अगर शिक्षा की भूमिस्थल पर कोई आडम्बरों के बीज बोने की कोशिश करे?

ऐसी ही एक घटना गुजरात के भुज जिले में स्वामीनारायण मंदिर द्वारा चलायी गयी एक शैक्षिक संसथान में लड़कियों के हास्टल में देखने को मिली। जहाँ उन्होंने इस बात को साबित कर दिया कि साक्षर होना और शिक्षित होना दो बेहद अलग बात हैं।

इस संस्थान के गर्ल्स हॉस्टल की 68 लड़कियों के कपड़े उतरवाकर जांच की गई। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि हॉस्टल के नियम के अनुसार मासिक धर्म शुरू होने पर कोई लड़की हॉस्टल के रूम में ना रहकर बेसमेंट में रहेगी। यहीं नही उस दौरान लड़की  किचन में नही जा सकती है और उसके खाना खाने के बर्तन भी अलग होंगे। और वेक्टर को शक हुआ कि कुछ लडकियां इस नियम का उलंघन कर रही हैं।

इस भयावह घटना ने महिलाओं में गुस्सा पैदा किया, और इस घटना के जवाब में गुजरात महिला मंच ने भुज हॉस्टल के वार्डन को तत्काल हटाने और इस घटना के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त पुलिस कार्रवाई की मांग की। गुजरात महिला मंच ने इस अधिनियम की निंदा करते हुए कहा कि, “यह घटना युवा महिलाओं के मूल अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लंघन करती है और कानून के अनुसार यह युवतियों की उदारता को अपमानित करती है, जिससे उन्हें मानसिक आघात और यौन उत्पीड़न होता है।”

कोर्ट ने कहा कि कई लड़कियों और महिलाओं को दैनिक जीवन में मासिक धर्म के कारण प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। पूजा कक्ष में प्रवेश नहीं करना, शहरी लड़कियों पर प्रमुख प्रतिबंध है, जबकि, रसोई में प्रवेश नहीं करना मासिक धर्म की अवधि में ग्रामीण लड़कियों पर प्रमुख प्रतिबंध है। मासिक धर्म की अवधि में लड़कियों और महिलाओं को पूजा करने और पवित्र पुस्तकों को छूने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है।”

महिलाओं को उनकी ‘शुद्ध और अशुद्ध स्थिति’ के आधार पर किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करने से रोकना कोई नई बात नहीं है

1991 में, केरल उच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर में 10 वर्ष से 50 वर्ष के बीच की महिलाओं के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया, क्योंकि वे मासिक धर्म की श्रेणी में आती हैं।

कई साल बाद, 28 सितंबर, 2018 को, सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया, जिसमें कहा गया था कि महिला धार्मिक आधार के तहत भी महिलाओं के साथ इस तरह का भेदभाव असंवैधानिक है।  इसके बावजूद, ऐसे कई लोग थे जो दृढ़ता से मानते थे कि इन परंपराओं को चुनौती देने से मंदिर प्रदूषित हो गया है, और मंदिर ट्रस्ट ने एक विस्तृत शुद्धि समारोह का आयोजन किया, क्योंकि मंदिर को ‘अपवित्र’ कर दिया गया था।

आज आधुनिक वैज्ञानिक युग में क्या हमारे समाज को महिलाओं के मासिक धर्म को लेकर सोच बदलने की ज़रूरत नहीं है?

मासिक धर्म के बारे में इस तरह की वर्जनाएं न केवल लड़कियों और महिलाओं के भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालती हैं, बल्कि उनकी जीवन शैली से भी समझौता कराती हैं, यहां तक ​​कि उनकी शिक्षा में बाधाएं भी पैदा होती हैं।

महिलाओं के रूप में, हम अभी भी समाज द्वारा ‘अशुद्ध या शुद्ध’ माने जाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।  लेकिन मेरी चिंता यह है कि आखिर कब तक हम महिलाओं को ये शुद्ध और अशुद्ध की लड़ाई लड़नी होगी और क्यों? समाज यह क्यों भूल जाता है कि प्रजनन प्रकृति की मानव जाति के प्रसार का तरीका है? और हम वास्तव में यह क्यों नहीं समझ सकते हैं कि मासिक धर्म पर आधारित इस तरह का भेदभाव वर्षों से सामाजिक-सांस्कृतिक मिथकों मान्यताओं और समाज के द्वारा बनाई गई कुरीति पर आधारित हैं?

गुजरात हाई कोर्ट की मासिक धर्म को लेकर इस रूलिंग के अलावा अब समय है कि हम महिलाएं इन सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं और रूढ़ियों को तोड़ें, जो बीमार मानसिकता वाले समाज के कुछ लोगों द्वारा बनाई गई हैं। ये हम महिलाओं के निजी शैक्षिक और सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रही हैं और हमें हमारे प्रार्थना करने, खाने, सोने के लिए हमारे मूल अधिकारों को हम से छीन रही हैं।

मूल चित्र : Youtube 

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About the Author

Deepti Gautam Mehta

A research scholar, A house-maker, A mother, and playing all the possible roles a woman could play at 34. But above all, I am a wanderer who is often entangled in her own mind read more...

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