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तुलसी के पति मरने से लेकर दादीसा की डांट पर हमारे घर की महिलाऐं आज भी रो देती हैं क्योकि ये हिन्दी सीरियल सिर्फ मनोरंजन प्रोगाम नहीं है...
तुलसी के पति मरने से लेकर दादीसा की डांट पर हमारे घर की महिलाऐं आज भी रो देती हैं क्योकि ये हिन्दी सीरियल सिर्फ मनोरंजन प्रोगाम नहीं है…
भारत में चलने वाले सीरियल बहुत हद तक अवसाद का कारण बनते हैं। इन मनोरंजन प्रोग्राम के अधीन एक औरत लाचार और विवश होती हैं जो महज पारिवारिक जिम्मेदारियों में उलझी रहती हैं। उनकी जिंदगी एक जिम्मेदारियों का पिटारा है जिसे उन्हें निभाना है। उन्हें हर वक्त घरवालों के बारे सोचना होता है। उनकी खुद की पहचान शायद मायने नहीं रखती है। सामंजस्य बैठाना उनकी जिम्मेदारी होती है। भारत में चले आ रहे सीरियल हमें एक कुंठित सोच की तरफ धकलते हैं जो शायद आज के वक्त में मौजूद नहीं हैं।
हिन्दी सीरियल हमारे देश की महिलाओं का एक साथी है, तुलसी के पति मरने से लेकर दादीसा की डांट पर हमारे घर की महिलाऐं आज भी रो देती हैं। एक सीरियल सिर्फ मनोरंजन प्रोगाम नहीं है बल्कि हमारी जिंदगी का एक सच है। जिसे वक्त के साथ हम भूल जाते हैं। दु:ख हमें इस बात का नहीं है तुलसी का पति मर गया है बल्कि इस बात को होता है कि आने वाले वक्त में उसकी जिंदगी कैसी होगी। पति के न रहने पर समाज और घर के ताने वह कैसे सहेगी। उसके बच्चों का क्या होगा।
सीरियल का अविष्कार हमारे समाज की दिक्कतों और उनसे उभरने वाली मानसिकता के लिए हुआ था। तारा, देख भाई देख, हम पांच, फिल्मी चक्कर, तू-तू, मैं-मैं – ये भारत में बने वो सीरियल थे जिन्हें आज भी पंसद किया जाता है। महज पंद्रह साल में सीरियल का रुख बहुत हद तक बदल गया हैं।
आज सीरियल का मतलब है आपसी रंजीशें, तकरार, डायन, चुड़ैल जैसी अंधविश्वास को बढ़ावा देना। हम सोच भी नहीं सकते पर झारखंड या बिहार के किसी गांव आज भी किसी औरत को डायन बताकर मार दिया जाता है। उसका समाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है।
हर रोज कितनी ही महिलाऐं अंधविश्वास के नाम बलि चढ़ती हैं। खाप पंचायतों के कितने ही फैसलों से औरतों की जिंदगी बर्बाद हो जाती है। डायन या चुड़ैल बताकर कर उन्हें समाज के सामने निर्वस्त्र किया जाता है। उनकी परेशानियां शायद ही एक आम आदमी समझ सके।
सीरियल के नाम पर हमारे देश में नागिन, डायन, दुर्गा, इमली जैसे सीरियल को दिखाये जाते हैं जिनका वास्तविकता से कोई मतलब नहीं होता है। कुछ सीरियल्स में महिला को सशक्त करने में एक सौ से ज्यादा एपिसोड लगा दिये जाते हैं।
मुझे आज भी याद है जब मम्मी आंनदी को देखकर रोती थीं तो उनका मानना था कि इतनी छोटी उम्र में बेटी की शादी के कारण, उसका जीवन खराब हो जायेगा। ससुराल के काम करते–करते उसकी जिंदगी खाक हो जायेगी। सीरियल महिलाओं को उनकी जिंदगी से जोड़ने का एक जरिया है पर आज के वक्त हम उनकी भवानाओं के साथ खेलते हैं।
जिस तरह से सीरियल्स में सास का किरदार करने वाली महिलाओं को दिखाया जाता है उससे लगता है कि एक सास क्रूर होती है, वह बहु को सिर्फ नौकरानी समझती है। सास सिर्फ बहु पर तरह-तरह के जुल्म करती है। बहु का काम होता है पति, सास-ससुर की सेवा करना, बच्चों को संभालना, पति की हाँ में हाँ मिलाना। पति के गलतियों पर उसे चुप रहना चाहिए। पारिवारिक कलेश से घर को उसे ही बचाना चाहिए। कोई उससे कुछ भी कहे उसे चुप रह कर सुनना चाहिए।
तारा जैसे सीरियल में आने वाले परिवर्तन को दिखाते हैं और बताते हैं कि कैसे एक महिला आत्मनिर्भरता से जीना चाहती है। हम पांच जैसे हँसने वाले सीरियल भी समाज को सीख दे सकते हैं कि लड़कियों को पढ़ाना कितना ज़रुरी है। पांच बेटियों के बाद बेटा की चाह रखना ज़रुरी नहीं है।
21वी सदी के दौर में जहां महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है वहीं इन सीरियल के अनुसार एक महिला को अपना अस्तित्व खो देना चाहिए। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते उसकी जिंदगी खत्म हो जायेगी। इन सबका असर मानसिक विकास पर होता है। और मानें ना मानें मध्य-वर्गी परिवार में मनोरंजन का एक ज़रिया आज भी टीवी है।
टीवी पर दिखाये जाने वाले सारे प्रोग्राम हम बच्चों को नहीं दिखा सकते हैं। क्योंकि आज टीवी पर बिग बॉस जैसे सीरियल आते हैं, जिनमें हिंसा, गाली जैसे शब्दों का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है। सुहागरात को लेकर टीवी पर चलते आ रहे प्रोगाम से बच्चों मे सेक्स को लेकर काफ़ी जिज्ञासा होती है।
साथ निभाना साथिया, गुम है किसी के प्यार, इशक में मर जाँवा जैसे हिन्दी सीरियल में परिवार के हर दूसरा या तीसरा सदस्य़ एक दूसरे के खिलाफ साजिश रचते हैं। कैसे अपराध को किया जाए, किस तरह से परिवार की दूसरी बहु को घर से निकाला जाए, संपति पर कैसे कब्जा किया जाए, परिवार कभी एकजुट नहीं रह सकता है, जैसे कितनी ही अवधारणा रोज हमारे मन में डाली जाती हैं। इसका असर हमारे घर के बच्चों पर होता है। जैसे–जैसे वह बड़े होते है, वैसे-वैसे उनके मन में यह घृणा बढ़ती जाती है।
जिन सीरियल को हम देख कर बड़े हुए, उससे हमें लगता है कि ससुराल में सास जुल्म करेगी, बात-बात पर ताने सुनायेगी, पति को ना कहने से उसके वैवाहिक जीवन पर असर पड़ेगा, शादी के बाद वह कभी जॉब नहीं कर पायेगी, ननद, जेठानी उसे पल-पल ताने मारेगी, संयुक्त परिवार में रहने से उसकी आजादी खो जायेगी। इन सब अवधारणों के कारण ही कई लडकियां जुल्म को सहती रहती हैं।
जब हिन्दी सीरियल से इतनी तकलीफ है तो हम ये सब क्यों देखते हैं? ऐसा इसलिए भी है क्योंकि भारत में ज्यादातर लोग मध्य वर्गी परिवार से आते हैं। जब टीवी देश में पहली बार आया था तभी से साथ में देखने की एक रिवायत चली आ रही है साथ देखने की, जिसका पालन आज भी घरों में होता है। इसीलिए टीवी को छोड़ पाना शायद मुश्किल होगा।
हिन्दी सीरियल को पूरी तरह से अपनी जिंदगी से निकाल पाना शायद मुश्किल हो पर हम कोशिश कर सकते है, समाज में एक अवधारणा जो फैल रही है। उसे रोका जा सके। सीरियल हमारे मनोरजन का जरिया होना चाहिए न कि अवसाद का।
मूल चित्र : caleidoscope
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