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गुज़र जाऊं, सारे चाहे-अनचाहे मोड़ से और तब परिभाषित हो जाएगी, जीवन की मेरी परिभाषा।
सवांश जीना चाहती हूँ,
बसंत और सावन की तरह।
कुछ नारंगी,
कुछ हरी-भरी,
सुगन्धित, सुवाषित,
हरसिंगार के झरमुट सी।
जिंदगी के सफर में,
चाहती हूं मिल जाए,
एक दिन पूरा,
मेरे हिस्से का मुझे।
और समा जाऊं उसके विस्तार में,
इस तरह की,
जैसे जलतरंग में जलपरी,
पार कर सारी,
विवश्ताओं की नदियां,
बंदिशों के बंधन।
गुज़र जाऊं,
सारे चाहे-अनचाहे मोड़ से,
और तब परिभाषित हो जाएगी,
जीवन की मेरी परिभाषा।
परिभाषित हो जैसे,
आकाश चाँद -तारों से,
सूर्य ताप से,
नदी अपनी निर्मलता और गति से।
मूल चित्र: Offsyz via Pexels
I am a bilingual writer and blogger. My works have been part of several international and national anthologies. I write poetry and stories inspired by nature and the world around me. read more...
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