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उम्मीद है कि पगलैट भी फिल्म विधवाओं के जीवन से जुड़े सोशल बैरियर पर कड़ी चोट कर सके और उन्हें भी जीवन में रंग भरने का एक मौका दे सके!
शुक्रवार यानि 26 मार्च, 2021 को नेटफ्लिक्स पर एक विधवा के जीवन पर आधारित एक फिल्म आने वाली है। विधवा पढ़ते ही हर किसी की तरह आपके मन में भी यही ख्याल आया होगा कि सफेद कपड़ों में लिपटी ये कहानी भी बहुत दुख भरी होगी, बेचारी विधवा औरत पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा होगा।
देखा जाए तो सच भी है, हमारा समाज विधवाओं के जीवन को आसान रहने कहां देता है। भावनात्मक रूप से टूटी हुई औरत को समाज से तरह-तरह के ताने मिलते रहते हैं। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे इस बात का एहसास दिलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती कि वो विधवा है।
पगलैट फिल्म विधवा जीवन से जुड़े हमारे कई पूर्वाग्रहों और संकुचित मानसिकता पर चोट करती है। ये कॉमेडी-इमोशनल ड्रामा फिल्म उमेश विष्ट द्वारा निर्देशित है। फिल्म की प्रोड्यूसर हैं शोभा कपूर, एकता कपूर और गुनीत मोंगा।
फिल्म में संध्या का किरदार निभा रही हैं सान्या मल्होत्रा जो शांति कुंज में रहती हैं। शादी के कुछ महीनों बाद ही पति की अचानक मौत हो जाती है और संध्या विधवा हो जाती है। एक तरफ़ जहां उसका परिवार बेटे का जाने का दुख मना रहा है वहीं दूसरी तरफ़ संध्या के साथ अजीब थी भावनात्मक घटना घटती है।
संध्या चाह के भी अपने पति के जाने का दुख नहीं मना पा रही। ना तो उसे रोना आ रहा है और ना ही वो कुछ महसूस कर पा रही है। पति के जाने के बाद बनी परिस्थितियों में संध्या को अपने जीवन को फिर से टटोलने का मौका मिलता है। हर किसी दूसरी विधवा की तरह उसकी लाइफ में भी क्राइसिस होते हैं। लेकिन वो कैसे हिम्मत से अपना रास्ता चुनती है और कैसे परिवार का सामना करती है यही कहानी है इस फिल्म की।
पगलैट फिल्म की लाइन ‘जब लड़की लोगों को अकल आती है तो सब उन्हें पगलेट ही कहते हैं’ मुझे सही लगती है। क्योंकि जब भी औरतें समाज की बनाई सोच के ख़िलाफ़ जाती हैं तो सब उन्हें पागल ही कहते हैं। लेकिन हम अपने फ़ैसले खुद नहीं लेंगे ना तो दूसरे ले लेंगे, इसलिए पागल ही सही।
हमारे देश में यूं तो 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम के तहत विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया था पर दुख की बात यह है कि इस बारे में ना तब बात की गई थी ना अब की जाती है। विधवा शब्द को लेकर हमें अपनी मानसिक बाधा को पार करना ही होगा। हमारा समाज किसी न किसी तरीके से विधवाओं को उनके पति के मरने का बोध कराता रहता है। कभी सफेद वस्त्र पहना कर, कभी खाने पर पाबंदी लगाकर, कभी ज़मीन पर सुलाकर तो कभी दुत्कार कर।
विधवाओं का जीवन इतना आसान नहीं होता। कई औरतों को तो विधवा होने के बाद उनके समाज औऱ परिवार द्वारा हमेशा के लिए त्याग दिया जाता है। आप सोच रहे होंगे 21वीं सदी में ऐसा नहीं होता होगा लेकिन हम केवल बड़े शहरों की बात नहीं कर रहे हम पूरे भारत की बात कर रहे हैं।
जून 23, 2020 को अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस पर UN की एक रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में 258 मिलियन विधवाएं हैं। इनमें से हर 10 में से एक विधवा गरीबी में रहती है। साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 5.5 करोड़ औरतें विधवा थी जो दुनिया में सबसे ज़्यादा हैं।
आज भी घरों में कोई शादी या त्योहार होता है तो कई बार नई दुल्हन के पास किसी विधवा औरत को नहीं जाने दिया जाता और उसे किसी भी रीति-रिवाज में शामिल नहीं किया जाता। विधवाओं के साथ पितृसत्तात्मक रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं, विरासती अधिकारों का भेदभाव होता है।
आज भी जब कोई विधवा दूसरी शादी कर भी लेती है तो लोग या तो उस आदमी को दया की नज़र से देखते हैं या फिर उस औरत को तिरस्कार की नज़र से। तमाम सांस्कृतिक बंधनों में दबी ऐसी औरतों को अक्सर समाज नजरअंदाज कर देता है। एक इंसान के चले जाने से उससे जुड़े दूसरे इंसान की ज़िंदगी को कंट्रोल करने का अधिकार किसी को नहीं होता।
भारत के मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी विधवा जीवन पर बनने वाली अधिकतर फिल्में उन्हें अबला नारी की तरह ही दिखाती आई हैं। फिर वो चाहे 1971 की फिल्म कटी पतंग हो या फिर 2006 की फिल्म बाबुल। लेकिन हमेशा कुछ लोग होते हैं तो धारा के विपरित बहकर कुछ नया बताने की कोशिश करते हैं। ऐसी ही कुछ फिल्में थी रितुपर्णो घोष की चोखेर बाली (2003) और नागेश कुक्कुनुर की डोर (2006)।
उम्मीद है कि पगलैट भी फिल्म विधवाओं के जीवन से जुड़े सोशल बैरियर पर कड़ी चोट कर सके और उन्हें भी जीवन में रंग भरने का एक मौका दे सके।
मूल चित्र : Still from Pagglait Trailer, YouTube
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