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मैंने तो अपनी पत्नी से दहेज़ भी नहीं लिया लेकिन वो तो ना सिन्दूर लगाना चाहती है, न मंदिर जाना चाहती है, बताइये अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?
आज भी औरत को अपने हिसाब से जीने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं। उनके सोच-विचार और जीने के तरीक़े को बुरे रवैये का नाम दिया जाता है सिर्फ़ इसलिए क्यूँकि वो रीति-रिवाज के हिसाब से नहीं होता। सोशल मीडिया के युग में, हम ऐप्स पर विभिन्न ट्रेंड्ज़ देखते हैं। उनमें से एक कन्फ़ेशन पेज है इन पर, लोग कन्फ़ेशन भेजते हैं जो बाद में गुमनाम रूप से पोस्ट की जाती हैं।
कुछ ऐसे ही कन्फ़ेशन से गुजरते हुए मैंने एक पोस्ट पढ़ी जिसने मुझे बहुत सारे विचारों के साथ छोड़ दिया।
एक वर्षीय व्यक्ति ने अपनी पत्नी विशेष रूप से उसके “रवैये” के बारे में एक बयान दिया। वह कहते हैं, “हमारे बीच सब अच्छा हैं, लेकिन समस्या उसका रवैया है। शादी के एक महीने के बाद ही वह अपने मंगल सूत्र को उतारने लगी। वह अपने माथे पर बिंदी भी नहीं लगाती है। मैंने कई बार उससे कहा कि वह इस तरह न करे लेकिन वह नहीं सुनती है।”
वह अपनी पत्नी के मंगलसूत्र और नथनी न पहनने के बारे में लिखते हैं। और यह भी कि सिंदूर (कुंगम) न लगाना, संस्कृति और परंपरा के खिलाफ जाना है।
हम एक प्रगतिशील समाज होने का दावा करते हैं लेकिन फिर भी क्या हम केवल उनको ही संस्कारी मानते हैं जो परंपराओं और संस्कृति का पालन करते हैं? क्या सिर्फ वे ही अच्छे इंसान हैं? मंगलसूत्र और सिंदूर विवाहित महिला का एक बाहरी प्रतीक है न कि उसका दृष्टिकोण और चरित्र का। वे अपने ‘बाहरी रूप’ में शामिल करने के लिए क्या चुनते हैं या नहीं उस पर उनको क्रिटिसाइज करना अनुचित है।
वह आगे अपने कन्फ़ेशन में लिखते हैं, “मेरी पत्नी शाकाहारी खाने या मंदिर आदि जाने या साड़ी पहनने के रीति-रिवाजों का पालन नहीं करती है। बिलकुल मेरी माँ जैसी नहीं है।” जो फिर से एक व्यक्तिगत जीवनशैली है जिसके लिए किसी को भी आंका नहीं जाना चाहिए।
उन्होंने यह भी लिखा, “वह सोचती है कि हमारी संस्कृति और परंपरा के आगे न झुककर वह बहुत बहादुर और बोल्ड है।” जो दर्शाता है कैसे महिलाओं को विद्रोही के रूप में देखा जाता है ख़ासतौर पर तब जब वे कुछ ऐसा करने का फैसला करती हैं जो परंपराओं और रीति रिवाजों के बॉक्स में फिट नहीं होता है।
उनके एक बयान में वह लिखते हैं, “मैं हमेशा एक कामकाजी महिला से शादी करना चाहता था, लेकिन जो परंपरा का आदर ना करे किसी ऐसे औरत से नहीं।” ये आज के प्रगतिशील समाज के झूठे पहलू को दिखाता है, जो आधुनिक सोच के मुखौटे के पीछे महिलाओं की तरफ़ रूढ़िवादी और पूर्वाग्रह सोच को छुपाते हैं और दर्शाता हैं कि कैसे महिलाओं और महिलाओं के करियर का समर्थन करते हैं फिर भी चाहते हैं कि वे अपने स्वयं के विचारों के बिना परंपरा और रिवाज द्वारा क्रमिक और बंधे रहें।
विवाह में इस तरह की उम्मीदें महिलाओं को बांधती हैं और उन्हें अपने मन से जीने से रोकती हैं जो कि उनके उस कथन में भी परिलक्षित होता है जहां वह अपनी पत्नी की तुलना अपनी माँ से करते हैं। और अपनी पत्नी की उनकी फ़्यूचर बेटी को अपने ही तरीक़ों में पालने की अपनी चिंता भी बताते हैं।
अपने फ़्यूचर जीवनसाथी के लिए दोनों पक्ष जो अपेक्षाएँ रखते हैं, उनपे शादी के पहले बात की जानी चाहिए ताकि इस तरह की स्थितियों से बचा जा सके मतलब अगर आप चाहते हैं कि आपकी पत्नी सिर्फ आपके अनुसार जीये तो आपको ये बात उससे साफ़-साफ़ करनी थी ना? पता नहीं क्यों आज भी औरत को अपने हिसाब से जीने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं?
पोस्ट की अंतिम पंक्ति प्रमुख थी जिसने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह कन्फ़ेशन कितना अहंवादी है। आज भी कितने पुरुष प्रगतिशील और आधुनिक होने का दावा तो करते हैं क्योंकि वे एक कामकाजी महिला से शादी करना चाहते हैं लेकिन साथ ही अपनी पत्नी से ये उम्मीद रखना कि वह हर रिवाज और परंपरा का पालन करे, आपके बारे में बहुत कुछ कह जाता है।
इस पोस्ट में ये शख़्स खुद इस बारे में बात करते हैं कि कैसे अपने पत्नी के परिवार से कोई दहेज नहीं लिया जैसे कि उसने एक बहुत बड़ा बलिदान दिया हो। पुरुषों की ‘इतना’ करने के लिए प्रशंसा प्राप्त करने की आवश्यकता इनके शब्दों में परिलक्षित होती है।
इस तरह की पोस्ट बताती हैं कि कैसे महिलाओं को अभी भी अपने स्वयं के रास्तों पर चलने और अपनी शर्तों पर जीने पर अपने जीवनसाथी या परिवार के सदस्यों द्वारा आलोचना सहनी पड़ती है। वे महिलाओं के लिए अपेक्षाएं निर्धारित करते हैं और यदि वे उनपे खरी नहीं उतरतीं, तो वे समाज में उनकी एक बुरी छवि चित्रित करते हैं।
उनकी सोच और जीने के तरीक़े को बुरे रवैये का नाम दिया जाता है सिर्फ़ इसलिए क्यूँकि वो रीति रिवाज के हिसाब से नहीं होता पर रीति रिवाज भी एक मुखौटा है जो अपनी रूढ़िवादी सोच को छुपाने के लिए बहाने के रूप में इस्तेमाल करते है।
हर इंसान को अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का हक़ है। जिस चीज़ के लिए कभी भी मर्द की आलोचना नहीं की जाती, उस पर औरत को क्यूँ बांधा जाता है कि वो “रीति-रिवाज़” के हिसाब से ही जीवन जिए?
क्या औरतों का अपने हिसाब से जीना गलत है? क्या औरत को अपने पति के अपेक्षाओं के हिसाब से जीना चाहिए? सिर्फ संस्कारी और सभ्य माने जाने के लिए?
मूल चित्र : alok verma via unsplash
A student with a passion for languages and writing. read more...
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