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अरे भाई औरतें हाउस वाइफ ही ठीक लगती हैं, बॉस नहीं…

इंटरव्यू हुआ और मैं सेलेक्ट हो गई। अगले दिन सुबह सुबह मुझे तैयार हुआ देख रमन चौंके, "कहाँ की तैयारी इतनी सुबह कोई किट्टी पार्टी है क्या?"

इंटरव्यू हुआ और मैं सेलेक्ट हो गई। अगले दिन सुबह सुबह मुझे तैयार हुआ देख रमन चौंके, “कहाँ की तैयारी इतनी सुबह कोई किट्टी पार्टी है क्या?”

रात की पार्टी के बाद बेखबर रमन तो गहरी नींद में सो गए थे लेकिन मेरी नींद उचट चुकी थी। बार बार रमन के शब्द कानो में गूंज रहे थे, “ये कुछ नहीं करती ये तो बस हॉउस वाइफ है।”

रमन की बातें मज़ाक में कही थी लेकिन उनकी वो मज़ाक में कही बात भी जाने क्यों दिल दुखा गई थी। पूरी पार्टी का मज़ा ख़राब हो गया था। मेरा उतरा चेहरा देख रमन ने बात सँभालने की लिहाज से झट से माफ़ी माँग ली, “अरे मैं तो मज़ाक कर रहा था इतना क्या बुरा मानना।”

लेकिन बात तो लग चुकी थी। ऐसा नहीं था की हॉउस वाइफ होने का मुझे कोई गम था। ये मेरी खुद की इच्छा थी कि मैं नौकरी छोड़ बच्चों और घर की देखभाल करूं।

अक्सर मेरा व्यक्तित्व देख पार्टी या सोशल सर्किल में कोई पूछ देता आप किस डिपार्टमेंट में जॉब करती हैं तो रमन कहते, “अरे नहीं नहीं, आपको ग़लतफहमी हुई है। ये कुछ नहीं करती बस हॉउस वाइफ है।”

रमन की ये बात मुझे बहुत बुरी लगती लेकिन हर बार रमन कहते, ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था’ लेकिन आज की पार्टी में जब रमन ने वही बात दुहराई तो सामने खड़े सज्जन पुरुष ने तुरंत कहा, “सही है भाईसाहब, औरतें हॉउस वाइफ ही ठीक लगती हैं बॉस नहीं।”

रमन और उस व्यक्ति की हँसी बेहद अपमान जनक लगी मुझे लेकिन इतने लोगो के बीच क्या तमाशा बनाती सो चुप रह गई।

नींद तो उचट ही चुकी थी सो बालकनी में आ कर बैठ गई। शादी के बीस साल हो चुके थे मेरे। रमन और मेरी मुलाक़ात ऑफिस में ही हुई थी। एक ही डिपार्टमेंट में थे। हम दोनों जल्दी ही जान-पहचान प्यार में बदल गई और हम शादी के बंधन में बंध गए। जल्दी ही दो जुड़वा बच्चों के मम्मी पापा भी बन गए। अब तक आसान लगती जिंदगी मुश्किल हो चली थी। नौकरी और दोनों बच्चे कैसे सँभालते?

बहुत मुश्किल समय था मेरे लिये और उतना ही मुश्किल अपनी नौकरी छोड़ने का निर्णय लेना था। हमेशा से टॉप पे रही थी। कॉलेज खत्म होते ही जॉब लग गई और अब तो प्रमोशन भी होने वाला था। ऐसे खूबसूरत मोड़ पे सब कुछ छोड़ना कोई आसान काम नहीं होता लेकिन बच्चों के भविष्य के विषय में सोच समझ कर मैंने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया। समय के साथ समझौता कर लिया था मैंने। अब तो रमन का भी प्रमोशन हो गया था और बच्चे भी पढ़ने के लिये बाहर चले गए।

मन ही मन अपने जीवन के उतार चढ़ाव के बारे में सोचते हुए मैंने अब अपने मन में कुछ निश्चय कर लिया था। अगले दिन ही मैंने रमन को ऑफिस भेज लैपटॉप संभाला। इतने सालों बाद ये सब वापस करना कोई आसान काम नहीं था लेकिन अब खुद के लिये कुछ करना था। इस सोच ने मेरी मनोबल को एक पल भी हिलने नहीं दिया।

सबसे पहले तो अपनी रिज्यूमे बनाई और कुछ जगहों पे भेज दिया। अब इंतजार करना था सब कुछ किस्मत पे छोड़ दिया था मैंने। लगभग एक हफ्ते बाद एक कॉल आया। नई ऑफिस थी और उन्हें एक्सपीरियंस एम्प्लोयी चाहिये था। पैसे बहुत कम थे लेकिन एक पहचान बनाने का मौका मिला था जिसे मैं नहीं खो सकती थी।

इंटरव्यू हुआ और मैं सेलेक्ट हो गई। अगले दिन सुबह सुबह मुझे तैयार हुआ देख रमन चौंके, “कहाँ की तैयारी इतनी सुबह कोई किट्टी पार्टी है क्या?”

“नहीं रमन मुझे तुम्हें कुछ बताना था।” अब रमन भी गंभीर हो चले थे।

“मेरी जॉब लग गई है। आज से मैं भी नौकरी पे जाऊंगी।” 

“लेकिन अब क्यों नीता? क्या कमी है जीवन में? मैं भी अच्छा कमाता हूँ। तुम एन्जॉय करो लाइफ को। क्यों इतने सालों बाद फिर से ये सब? ओह्ह, अब समझा मेरी उस दिन की बात बुरी लग गई क्या? अरे माफ़ी माँगी तो थी।”

“नहीं रमन, मुझे कोई बात बुरी नहीं लगी लेकिन अब बात सिर्फ आत्मनिर्भर होने की नहीं है। अपनी खोई पहचान वापस पाने की है। मैंने बच्चों की जिम्मेदारी अच्छे से निभा दी। अब वक़्त है मेरी अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने का जो सपने कहीं छूट से गए थे उन्हें पूरा करने का।” मेरी बातें सुन रमन ने मुझे गले लगा लिया, “तुम जो चाहे करो मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।”

…और फिर मैं निकल पड़ी अपनी पहचान बनाने, अपने धुंधले सपनों को वापस जीने, अपनी खुशियाँ खुद तलाशने, जिंदगी के एक नये सफर पे।

मूल चित्र : a still from short film Arranged, YouTube

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