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पति के छोड़े हुए जूठे खाने को पत्नी को ही खत्म करना होता है। ये तुम्हारे पति ने छोड़ा है, इसलिए इस पर तुम्हारा हक है और पत्नी-धर्म भी यही है।
नोट : ये लेख पहले अंग्रेजी में यहां पब्लिश हुआ और इसका अनुवाद रागिनी अजय पाठक ने किया है।
मेरी अभी नयी-नयी शादी हुयी थी और नयी बहु के रूप में ससुराल में ये मेरा पहला ‘भोजन’ था।
मैं चुपचाप आकर खाना खाने बैठ गयी। मुझे बहुत जोर से भूख लगी थी और भूख के मारे मेरे पेट से गुड़गुड़ की आवाज आ रही थी। मेरे सामने, खाने की टेबल पर, गर्मागर्म मुलायम फूली हुई पुड़ियाँ, आलू की सब्जी और रसगुल्ले रखे हुए थे। जिसे मैं बड़े ध्यान से देख रही थी और चुपचाप अपनी बारी आने का इंतजार कर रही थी।
घर के सभी पुरुष आये और उन्होंने पहले अपना नाश्ता खत्म कर लिया। लेकिन जब मेरी बारी आई, तो पता चला कि नाश्ता तो खत्म हो गया है। तब एक दयालु चाची जी ने कहा, “रूको मैं कुछ इंतजाम करती हूं” और वो न जाने कहाँ से थोड़े चावल और दही ले आयीं। पहला भोजन मेरा इस तरह निपटा।
वापिस दोपहर और फिर रात के खाने के समय मेरे साथ वही हुआ। मैं अपनी भूख से अब परेशान थी। लेकिन मैंने जब भी कुछ बोलना चाहा, मुझे ये कहकर चुप करा दिया गया कि “यही रिवाज है, पहले घर के आदमी खाना खाते हैं, उसके बाद ही औरतें खाना खा सकती हैं और अपने पति का जूठा खाना हर पत्नी का धर्म होता है।”
मुझे हर बार ये याद दिलाया जाता कि मैं नयी बहु हूँ और नयी बहु को इतना नहीं बोलना चाहिए, “मुझे थोड़ी तो शर्म रखनी चाहिए।”
जब मैंने अपने पति से इस बारे में बात की तो उन्होंने मुझसे कहा, “थोड़े दिनों की तो बात है, बर्दाश्त कर लो। कौन सा हमें यहाँ हमेशा रहना है।”
लेकिन ये सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ।
एक दिन दोपहर के भोजन के समय मैं अपनी खाने की प्लेट देखकर मन ही मन बहुत खुश हो गयी क्योंकि उसमें मेरी मनपसंद मछली का एक बड़ा पीस रखा हुआ था।
मैं सोचने लगी कि इनको कैसे पता चला कि मुझे ये मछली बहुत पसंद है? लेकिन मैंने जैसे ही मछली के टुकड़े को खाने के लिए अपना मुँह खोला, मेरी सासुमां ने मुझे बताया, “ये तुम्हारे पति ने छोड़ा है।”
मेरी नजरें एकटक उन पर ही टिक गईं। उसके बाद उन्होंने कहा, “ऐसे क्या देख रही हो? ये तो प्रथा है। पति के छोड़े हुए जूठे खाने को पत्नी को ही खत्म करना होता है। ये तुम्हारे पति ने छोड़ा है, इसलिए इस पर तुम्हारा हक है।”
ये बात सुनकर मुझे इतना ज्यादा बुरा लगा, जितना मुझे आज तक कभी नहीं लगा था। मैंने खुद से सवाल किया, “क्या किसी का जूठा खा कर जिंदा रहना मेरी नियति है? क्या मेरे माता-पिता को मुझे ऐसे देखकर अच्छा लगेगा?
उन्होंने तो हमेशा सबसे अच्छी चीजें मुझे लाकर दी। मैं कभी नहीं भूल सकती कि एक बेटा ना होने की वजह से, मेरे माता-पिता को समाज के लोगों ने कितनी बातें सुनायीं, सिर्फ इसलिए कि उनको तीन बेटियां थीं।”
धीरे धीरे मुझे ये एहसास होने लगा कि ये रिवाज हम महिलाओं से भेदभाव बनाये रखने का एक तरीका था। हम महिलाएं घर और रसोई की मल्लिका तो कही जातीं, लेकिन उस पर पूरा नियंत्रण पुरुषों का होता।
खाना सिर्फ आदमियों के लिए, उनकी पसन्द का बनाया जाता था, जिसे उन्हें बड़े प्यार से परोसा जाता था। महिलाओं को क्या पसंद है, इस बात से किसी को कोई मतलब नहीं था। खाने का समय भी पुरुषों द्वारा ही निर्धारित था और औरतें अंत में अपने पति का छोड़ा हुआ जूठा खाना खाती थीं। लेकिन अगर कभी कुछ भी नहीं बचता, तो औरतें भूखी ही रह जातीं। और ऐसा करके वो खुद को भाग्यशाली समझतीं क्योंकि उनकी नजरों में ये आदर्श गृहिणी होने की निशानी थी।
भोजन के हिस्से में भी भेदभाव किया जाता था। नॉनवेज खाने में सबसे बढ़िया मछली और मांस के टुकड़ों को पुरुषों के लिए रखा जाता। सबसे बड़े टुकड़े पर आदमियों का अधिकार था क्योंकि सबसे अच्छा खाना घर के आदमियों को परोसा जाता था।
घर की महिलाएं आदमियों के बराबर नहीं बैठ सकती थीं। जहाँ घर के आदमी बैठते थे, वहाँ औरतों को बैठने का अधिकार नहीं था। जैसे अगर घर के आदमी कुर्सी-टेबल पर बैठे हैं तो औरतों को फर्श पर बैठना होता था।
महिलाओं के लिए अलग से कोई नयी प्लेट या फैंसी थाली नहीं निकाली जाती थी। वो अपने पति की छोड़ी जूठी थाली में या फिर कोई भी पुरानी थाली प्लेट लेकर खाने बैठ जाती थीं। लड़कों को बहुत ज्यादा लाड़-प्यार किया जाता था लेकिन लड़कियों को ये अधिकार नहीं था।
घर की महिलाएं व्रत भी रखती थीं क्योंकि ये एक रिवाज था जिसे महिलाएं निभाती थीं। व्रत करके महिलाएं पत्नी-धर्म निभातीं और अपनी पति के लिए आशीर्वाद और पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त करती थीं। महिलाओं के लिए अलग अलग दिन निर्धारित किये गए थे व्रत रखने के लिए। पूरा दिन भूखा रह कर महिलाएं भगवान की पूजा करतीं, उनको फूल समर्पित करतीं। उन लोगों ने मुझ से कहा कि व्रत रखने से महिलाओं का स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
शुरुआत में मैं सब कुछ चुपचाप देखती रही। अधिकतर रातें मैंने भूखे रह कर गुजारी थीं। ऐसे ही तो मैं अपने पत्नी-धर्म को निभा सकती थी, है ना? मेरे पति और देवर दोनों ही मेरे हमउम्र थे, लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो घर के बुजुर्गों के खिलाफ कुछ बोल सकें या उनसे इन रूढ़िवादी रिवाजों के खिलाफ कोई सवाल जवाब कर सकें।
मैंने सबसे पहले अपनी महीने भर की छुट्टियों को रद्द कर दिया और अपने काम को वापिस ज्वाईन कर लिया। इसके लिए हमें शहर वापस आना था। लेकिन इससे भी मेरा दु:ख कम नहीं हुआ। मेरे नए रिश्तेदार मेरी नयी गृहस्थी को बसाने के लिए मेरे साथ आ गए। ये ही वो समय था जब मैंने अपनी आवाज उठाई क्योंकि यदि मैं ऐसा नहीं करती तो वो और उनके ये दकयानूसी रिवाज़ कभी न बदलते।
लेकिन मुझे ये सब अच्छे तरीके से करना था, आखिर हम थे तो एक परिवार ही और मेरी लड़ाई उनसे नहीं बल्कि इन रूढ़िवादी रिवाज़ों से थी।
बस फिर क्या था। उस दिन मैं रात के समय खाना खाने घर के आदमियों के साथ बैठ गयी। टेबल पर खाना रखा हुआ था और मैं अपने पति और देवर के बीच कुर्सी पर बैठ गयी। मुझे देखकर घर की औरते मुँह बनाने लगीं और सारे आदमी अचंभित रह गए।
इस व्यवहार के लिए मुझे बहुत डांट पड़ी। उस रात मैं सबके व्यवहार से थोड़ी परेशान हो गयी। मुझे बद्तमीज़ बहु करार कर दिया गया। लेकिन मैं चुप रही क्यूंकि तब मुझे अपनी मां की बात याद आ गयी, “एक चुप सौ सुख।” और मैंने अपना अगला प्लान तैयार कर लिया।
अब मैंने तय कर लिया था कि अब मैं अपने हाथों से अपनी पसंद का खाना बनाऊंगी। शाम को मैं जब अपने ऑफिस से वापिस आती तो मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मैं कितना थकी हूँ। मैंने अपने हाथों से अपनी पसंद का खाना बनाती।
रात के खाने के समय मैंने खाने को अपनी प्लेट में अच्छे से परोसती और खाने बैठ जाती। सब मुझे घूर-घूर कर देखते रहे पर मैंने सबको अनदेखा करना शुरू किया। ऐसे जैसे कि मुझे कुछ भी दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है।
मुझे तब अपने बाबा के कहे शब्द याद आ गए, “लोगों को ऐसा दिखाओ कि तुम उनको देख-सुन ही नहीं रहीं।”
एक दिन रात में घर पर कुछ मेहमान आये। घर के पुरुषों ने मेहमानों के साथ खाना खाया। उनके खाने के बाद पता चला कि सारा खाना खत्म हो गया। तब घर की औरतों ने भूखा रहने के फैसला किया। लेकिन मैंने बाहर से खाना आर्डर किया और खाना लेकर खाने बैठ गयी। नयी बहु को इस तरह बिना पूछे बाहर से खाना मंगा कर खाता हुआ देखकर वहाँ मौजूद मेहमान मुझे घूर-घूर कर देखने लगे। मैंने पत्नी-धर्म निभाना अब छोड़ दिया था।
मेरा विद्रोह घर में मेरे हक के लिए था। मुझे ‘असभ्य और बतमीज’ बड़ी बहू की संज्ञा दी गयी। बाकी लोग अपनी बहुओं को मुझसे दूर रखने लगे ताकि उनकी ‘अच्छी बहुएं’ मुझसे बात करके बिगाड़ ना जाएँ।
अब मैं वो बहु बन गयी थी जो अपने माता-पिता से मिलने के लिए किसी के परमिशन का इंतज़ार नहीं करती थी। मेरे माता-पिता को घर में मुझसे अकेले नहीं मिलने दिया जाता था क्योंकि उन्हें ये अधिकार नहीं था। तब मैंने तय किया कि अब मैं होटल में एक कमरा किराए पर लूँगी और पूरा दिन उनके साथ बिताऊँगी।
जब-जब मेरे माता-पिता ने मेरे ससुराल वालों के लिए उपहार दिए, मैंने हर बार अपने माता-पिता के लिए उपहार लिए। मैंने स्पष्ट कहा दिया, “जब तक मुझे घर में बराबरी का अधिकार नहीं मिलेगा, मैं ऐसा ही करूँगी।”
लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियों में बदलाव होने लगा। लोग मुझे समझने लगे और जैसा मैं चाहती थी वैसा हो गया, बिना पत्नी-धर्म ख़राब किये।
अब ये बहुत पुरानी बात हो चुकी है, लेकिन मुझे इस बात से खुशी हुई कि सदियों से चले आ रहे पत्नी-धर्म और उससे जुड़े पुराने रीति-रिवाज़ अब मेरे बाद घर में आने वाली महिलाओं पर लागू नहीं होते थे। मेरी देवरानी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मेरी बेटी घर इतने भाइयों और चाचाओं की सेना में जन्म लेने वाली पहली लड़की थी। अब नियम बदल चुके हैं और अब मेरी बेटी सबसे पहले खाना खाती है। अब उसकी पसंद को भी ध्यान में रखकर अच्छा खाना बनाया जाता है। अब घर के बड़े बुजुर्ग पहले मेरी बेटी की शादी के बारे में ना सोचकर उसके करियर के बारे में सोचते हैं।
घर और समाज में बदलाव लाने के लिए आपका हर कदम हर विद्रोह काम आता है और इन्हीं गलत रूढ़िवादी नियमों का विरोध करके हम एक ऐसे समाज का सपना देख सकते हैं जहाँ महिला और पुरुष एक समान हों।
मूल चित्र : Still from the All Out ad, YouTube
Sreemati Sen holds a Masters in Social Work from Visva Bharati, Shantiniketan. She is a Development Professional, specialised in Psychiatric care of Differently Abled Children. That hasn’t stopped her from exploring other fields. Years read more...
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