कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं?  जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!

मैं नहीं मानती आपके ऐसे रिवाज़ को…

सब कहती कि एक औरत जब तक बेटे की माँ नही बनती तब तक वो माँ नहीं होती। एक बेटा ही एक औरत के औरत होने का पूर्ण दर्जा दिलाता है...

सब कहती कि एक औरत जब तक बेटे की माँ नही बनती तब तक वो माँ नहीं होती। एक बेटा ही एक औरत के औरत होने का पूर्ण दर्जा दिलाता है…

नोट : इंटरनेशनल विमेंस डे 2021के लिए ‘ये मेरा चैलेंज है’ कॉटेस्ट के अंतर्गत आयी आपकी सभी कहानियाँ एक से बढ़कर एक हैं। तीन बेहतरीन कहानियों की श्रृंखला में दूसरी कहानी है विनीता धीमान की। आपको हम सब की ओर से अनेक शुभकामनाएं !

मैं विनीता, आज आपको अपनी एक आपबीती बता रही हूं कि कैसे मैंने अपने ससुराल के एक रिवाज़ को मानने से इनकार कर दिया था। आज भी मैं अपने उस नए रिवाज़ का पालन कर रही हूं और जब तक मैं जिंदा रहूंगी तब तक मैं अपने उस विश्वास पर कायम रहूंगी और उसका पालन करूँगी।

आपको तो पता है कि हमारे समाज मे आज भी ऐसे कई रीति रिवाज है जो समय के साथ वैसे के वैसे आज भी मनाए जाते हैं और समाज के कुछ ठेकेदार लोग उन रीति रिवाजों को सबसे मनवाने के लिए तैयार रहते हैं। जहाँ भी किसी ने कोई गलती की तो आज भी उन्हें बुरा मान कर, उनपर अपने कानून लगा दिए जाते हैं।

मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था…

मेरी शादी के बाद जब मैं अपने ससुराल गयी तो सबने कहा कि अब तुम करवाचौथ का व्रत करना और अहोई का व्रत तब तक मत करना जब तक तुम्हारे लड़का न हो जाये। उस समय तो मैंने किसी से कुछ नही कहा क्योकि अभी शादी को कुछ ही दिन तो हुए थे। किसी को भी ठीक से नहीं जानती थी। धीरे-धीरे सभी देवरानी और जेठानियों के साथ अच्छी बनने लगी।

सब कहती हैं कि एक औरत जब तक बेटे की माँ नही बनती तब तक वो माँ नही होती। एक बेटा ही एक औरत के औरत होने का पूर्ण दर्जा दिलाता है एक बेटी नहीं। तभी मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ, सब परिवार वाले खुश थे  लेकिन मैं एक अजीब सी उलझन में थी। यदि मुझे बेटा नहीं हुआ तो मैं अहोई का व्रत नहीं कर पाऊँगी।

कुछ महीनों के बाद मेरा इंतजार खत्म हुआ और मेरी गोद मे एक प्यारी सी परी मेरी बेटी ‘कुहू’ आ गई। और उसके आने के बाद समय पंख लगाकर उड़ चला और करवाचौथ के बाद अहोई का व्रत भी आ गया।

व्रत से एक दिन पहले सब तैयारी कर रहे थे। हमारे यहाँ व्रत की सुबह बेटे के नाम से एक कलश भरा जाता है जिसमें मिठाई, फल, और पैसे रखे जाते हैं। सब जेठानियाँ और देवरानी उसी की तैयारी कर रही थीं। तभी मेरी दादी सास मुझसे बोलीं, “बहू तुम उदास मत हो। इस बार व्रत नहीं  कर सकती तो कोई बात नहीं। अगली बार अहोई माता तुम्हे बेटा देंगी तब कर लेना।”

मैं नहीं मानती आपके रिवाज़ को

मैंने उनसे कहा, “नहीं दादी जी, मैं तो कल ही व्रत करूँगी। मैं नहीं मानती आपके रिवाज़ को। जब एक माता के लिए व्रत करना है, जो खुद एक औरत है तो वो बेटी होने पर मुझे शाप कैसे देंगी? उल्टा अहोई माता तो खुश होंगी कि एक औरत ने अपनी बेटी के लिए मेरे व्रत का पालन किया है।”

मैंने अपनी दादी सास को मनाने की पूरी कोशिश की लेकिन मेरी दादी सास नहीं मानीं। थोड़ी देर बाद सब पुरुषों की भीड़ भी आ गयी। सब मुझे समझाने लगे। तभी मेरी सास आईं और बोलीं, “बहू जिद करनी अच्छी बात नहीं होती। जब सब कह रहे तो मान जा।”

अब मैंने भी ठान लिया था कि इस बार सबको समझाना ही पड़ेगा। फिर क्या था, मैंने सबसे कहा, “आप लोग गुस्सा न करें। आप सब मेरी बात सुनिए। यदि आप सब मेरी बात पसंद नहीं आई तो मैं यह व्रत नहीं करँगी।”

इस पर सब मान गए। फिर मैंने कहा, “आप बताइए कल का व्रत एक माँ का है एक माँ के लिए। तो वह व्रत एक बेटी के लिए क्यों नहीं हो सकता? जब मुझे प्रसव का दर्द वैसा ही होगा, जब चाहे मेरा बेटा हो बेटी? मैं अपना दूध दोनो बच्चों को समान रूप से पिलाऊंगी, दोनो बच्चों का पालन पोषण भी एक समान करूँगी। मेरी कोख से ही बेटी पैदा हुई है, उसी कोख में मेरा बेटा भी पलेगा। वही खून, खाना सब वैसा ही होगा तो आप सब क्यो चाहते हो मैं एक माँ होकर अपने दोनो बच्चों में भेदभाव करूँ?”

मेरे इतना सब कहने के बाद मेरी जेठानियाँ भी बोलने लगीं, “हाँ विनीता सही कह रही है। आज तक हम सब चुप थीं क्योंकि हम सब डरती थीं। लेकिन जब आज विनीता ने यह सब कहा है तो हम भी इसके साथ हैं। और आज के बाद हम भी अपने बच्चों के लिए व्रत करेंगी।”

हम सब की बातों को सुनकर मेरे ससुराल वाले मान गए और मेरी दादी सास ने मेरे सिर पर हाथ रखा और बोलीं, “वाह विनीता! आज तो तूने सबको चुप करा दिया? तेरी जैसी बहू सबको मिलनी चाहिए।”  उनकी बात सुनकर मैं उनके गले लग गयी और मेरी सास ने तो अपना कंगन उतार कर के ही दे दिया।

फिर क्या था अगले दिन सुबह हम सब एक नए अहोई व्रत को करने को तैयार थे जो सिर्फ बच्चों के लिए होता है। तब से आज सात साल हो गए है मैं हर साल यह व्रत अपने दोनों बच्चों के लिए करती हूं और मेरी ससुराल में सब महिलाएं अपने बच्चों के लिए।

आज भी हमारे समाज में बदलाव की आवश्यकता है लेकिन कोई भी उस मुद्दे पर बात नहीं करता। यदि कोई यह ठान कि ये मेरा चैलेंज है और मैं इसे पूरा कर के ही दम लूंगी तो सच मानिए हमारे समाज की कितने ही अंधविश्वास खत्म हो जाएँ। लेकिन इस बारे में कोई सोचता ही नहीं है।

यदि मैं भी यह मान लेती कि कोई बात नहीं, इस बार अहोई का व्रत नहीं किया तो नहीं, अगली बार बेटा होने पर करूँगी तो शायद वो कल आता ही नहीं। वैसे व्रत करने से कुछ नहीं होता लेकिन आत्मसंतुष्टि के लिए हम महिलाएं न जाने कितने ही अंधविश्वास से घिरी हैं और उनका पालन भी पूरे मनोयोग से करती हैं।

आपको मेरी यह आपबीती सच्ची कहानी पसंद आये तो कमेंट सेक्शन में जरूर बताना की क्या मैंने सही किया? आप मेरी जगह होते तो क्या करते?

मूल चित्र : VSanandhakrishna from Getty Images via Canva Pro

विमेन्सवेब एक खुला मंच है, जो विविध विचारों को प्रकाशित करता है। इस लेख में प्रकट किये गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं जो ज़रुरी नहीं की इस मंच की सोच को प्रतिबिम्बित करते हो।यदि आपके संपूरक या भिन्न विचार हों  तो आप भी विमेन्स वेब के लिए लिख सकते हैं।

About the Author

90 Posts | 613,199 Views
All Categories