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मैं दरवाजे से लौट आई। सहेली के चेहरे पर चढ़ा हुआ मुखौटा जो दिख गया। आधुनिकता का ढोल पीटने वाली मेरी सहेली, विचारों से आधुनिक नहीं हो पाई।
“तुमको इतना मैं नहीं पढ़ा सकती, आखिर तुम दूसरे घर चली जाओगी। अमन, नमन तो यहीं रहेंगे, हमारी सेवा के लिए।”
प्रमिला की आवाज से मैं दरवाजे पर ही रुक गई। विश्वास नहीं हुआ, कानों से सुनी इस बात पर। क्या ये मेरी वही घनिष्ठ सखी है, जो बेटी -बेटे की समानता की इतनी लंबी-चौड़ी बातें करती थी।
मैं दरवाजे से लौट आई। सहेली के चेहरे पर चढ़ा हुआ मुखौटा जो दिख गया। आज हम महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहे, तो एक महिला द्वारा दूसरी के अधिकारों का हनन क्यों? जबकि नमन और अमन से ज्यादा तेज नमिता है। आधुनिकता का ढोल पीटने वाली मेरी सहेली, विचारों से आधुनिक नहीं हो पाई।
मैंने ठान लिया, सहेली के अंदर की नारी को जगाना है। मैं फिर प्रमिला के घर गई, उसे बधाई दी नमिता का चयन दिल्ली के एक नामी कॉलेज में होने पर। लेकिन प्रमिला खुश ना थी क्योंकि दोनों बेटे पढ़ने में कमजोर थे।
मैंने पूछा, “प्रमिला तुम खुश नहीं हो?”
“खुश हुँ पर नमिता तो पढ़-लिख कर दूसरे घर चली जाएगी। तो क्या फ़ायदा इसे इंजिनियरिंग कराने का?”
“इतिहास अपने को दोहरा रहा। हम कितने भी आधुनिक हो जाये पर सोच वहीं जो हमारी माँ और दादी की थी”, मैंने कहा।
“क्या मतलब, तू क्या कहना चाहती है।” प्रमिला ने मुझसे तुरंत पूछा।
“याद हैं प्रमिला, तुझे पढ़ने का बहुत मन था पर हमारे कस्बे में लड़कियों का कोई कॉलेज नहीं था। आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर जाना पड़ता था। तेरा तो चयन भी मैथ से ग्रेजुएशन के लिए हो गया था। पर तब तेरी दादी और माँ ने एक सुर में ये कह तुझे रोक लिया कि तू पराई अमानत है, क्या करेगी पढ़ कर।
आज तेरी जगह तेरी बेटी खड़ी है और तू अपनी माँ की जगह। समय, पात्र बदले हैं पर सोच नहीं। हम जब अपनी सोच को दिशा नहीं दे रहे तो नमिता आगे कैसे सोचेगी? क्या हम समाज को यही रूढ़िवादी सोच देंगे। हमें अपनी माँओ से आगे और हमारी बेटियों की हमसे आगे बढ़ना हैं। तभी समाज में बदलाव आयेगा।”
“मेरी आँखे खोलने के लिए धन्यवाद। नमिता दिल्ली ज़रूर जाएगी। उसके लिए खुला आसमां मैं खुद बनाऊँगी।” प्रमिला ने मुझसे भावुक रूप में कहा।
“अब मै चलती हूँ।”
कह जब में उठने लगी तो प्रमिला ने कहा, “ना ऐसे कैसे जाएगी। चाय बनाती हूँ। मुँह भी मीठा कर, एक सोई हुई नारी को जगाने के लिए।”
तभी मेरी नज़र नमिता पर पड़ी जो दरवाजे पर खड़ी, सब सुन रही थी। आँखों के आँसू आभार व्यक्त कर रहे थे। पास जा मैंने आँसू की बूंद को हथेली में ले पोंछ दिया, “अब खुशियाँ सामने हैं, आँसुओं का कोई काम नहीं।”
मैं खुश थी, मैंने अपनी बेटी के लिए रास्ता खोला पर साथ ही एक दूसरी बेटी के सपनों को मंजिल दी। छोटा सा ही सही प्रयास, किसी की जिंदगी में बड़ी खुशियाँ ले आता है। समाज बदल रहा है, और भी बदलेगा बस हमें अपनी सोच सही रखनी है।
“चैलेंज हैं हमारा, होगा पूरा हर नारी का सपना।”
मूल चित्र : Still from the short film Dost – Safi Mother – Daughter, YouTube
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