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कहानियां आपने बहुत सुनी होंगी लेकिन ‘अजीब दास्तान्स’ सी नहीं!

अजीब दास्तान्स को देख कर आप बिल्कुल हक्के-बक्के रह जाते हैं क्योंकि इन कहानियों के अंत कल्पना से परे हैं और किरदारों का अभिनय कमाल का है।

अजीब दास्तान्स को देख कर आप बिल्कुल हक्के-बक्के रह जाते हैं क्योंकि इन कहानियों के अंत कल्पना से परे हैं और किरदारों का अभिनय कमाल का है।

भारत में मुस्लिम शासकों के दौर में आज के पुरानी दिल्ली के किसी भी दरवाजे पर कुछ लोग खड़े होकर कहानियां सुनाया करते थे, जिनको दास्तानगोह कहा जाता और उनकी कहानी सुनाई की यह कला दास्तानगोई के नाम से इतिहास में दर्ज हुई।

आज भी कुछ कलाकार दास्तानगोई की परंपरा को न केवल जिंदा रखने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि इसको अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की भी कोशिश कर रहे हैं। इन दास्तानगोई की खास बात यह है कि इसका प्रभाव सुनने वाले पर बहुत गहरा होता है क्योंकि अक्सर इनका अंत मजबूत, निडर, चतुर-चालाक होता है।

इसमें खुशनुमा अंत भी होता है पर उस अंत में एक अलग गहराई भी होती है।

क्या है ‘अजीब दास्तान्स’ की दास्तानगोई?

दास्तानागोई  के शब्द से  दास्तान को लेकर ‘अजीब दास्तान्स’ बुनने का काम  डायरेक्टर शशांक खेतान, राज मेहता, नीरज घेवान और कायोज़ ईरानी ने करण जौहर के प्रोडक्शन कंपनी के बैनर तले किया है।

सवाल यह है कि जब दास्तानागोई के लाइव प्रोग्राम समय-समय पर कमोबेश हर बड़े महानगरों में होते ही रहते हैं, तो फिर कुछ  इंच के रूपहले टीवी, लैपटॉप या मोबाइल पर ओटीटी प्लेटफार्म नेटफिल्क्स पर चार कहानियों की ‘अजीब दास्तान्स’ देखी ही क्यों जाए?

मैं कहूंगा, इसकी पहली वज़ह तो कोविड महामारी के दूसरी लहर के कारण घरों में सुरक्षित रहने के विकल्प से घिरे हुए है, ऐसे में ‘अजीब दास्तान्स’ वह मनोरंजन कराने में कामयाब होती है।

अजीब दास्तान्सके  चारों कहानियों की दास्तागोई इस तरह से रची या बुनी गई है कि वह कई मुद्दों में उलझा हुआ हमारे समाजिक जीवन की सच्चाई को बहुत ही हल्के-फुल्के तरीके से रख देती है।

दूसरी वज़ह यह है कि ‘अजीब दास्तान्स’ में सुनाई गई कहानियां बताना चाह रही है कि आप चाहे समाज में चाहे कोई भी हों, समलैंगिक, किसी भी जात-बिरादरी, कोठियों में रहने वाले या किसी के घर में काम करने वाले, शारीरिक रूप से आप स्वस्थ्य हो या अवस्थ आप प्यार भी कर सकते हैं और नफरत भी।

सिर्फ इंसान भर होने के नाते आप अपनी भावनाओं के सम्मान पाने के अधिकारी हैं।

मजनू

अजब दास्तान की पहली कहानी “मजनू” का डायरेक्शन शशांक खेतान ने किया है।

कहानी शुरुआत में ही अपने डायलांग जो बबलू(जयदीप अहलावत) और लिपाक्षी(फातिमा सना शेख) के शादी के पहली रात का है, जैसा अपना अंत भी लिख देती है।

कहानी में इंट्री होती है तीसरे किरदार राज(अरमान रहलान) का। लगता है वह लिपाक्षी के साथ भाग जाएगा, पर नहीं कहानी बताती है उसके पति बबलू के बारे में और उसके बाद कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते सबसे मजबूत किरदार लिपाक्षी को भी धोखा दे देती है।

कहानी में अचानक से आने वाले मोड़ और कलाकारों का किदरार में आए बदलाव का जो परफार्मेस है, वही मजा देती है। अजब दास्तान के पहली कहानी का।

खिलौना

दूसरी कहानी “खिलौना” जिसको राज मेहता ने डायरेक्ट किया है। कह सकते हैं मालिक और नौकर के बीच वर्गीय सं घर्ष के दास्तान की कहानी है।

मीनल(नुसरत) एक नौकरानी है जिसकी छोटी बहन बिन्नी(इनायत) का पालन पोषण घरों में काम करके करती है और सुनील(अभिषेक बनर्जी) सोसाइटी के बाहर लोगों के कपड़े इस्त्री करता है।

वह हमेशा मीनल और बिन्नी को समझाता है ये मालिक लोग जो कोठियों में रहते है कभी किसी के सगे नहीं होते है इसलिए इनके यहां संभल कर काम करना।

किसी बात पर कोठी वाले साहब उसको मारते हैं जिसका बदला लिया जाता है। परंतु, कहानी अपने अंत में जिस अजाम तक पहुंचती है वह जितना हैरान करता है उतना ही चौंका देती है।

आप बिल्कुल  हक्के-बक्के रह जाते हैं क्योंकि अंत वाली घटना कल्पना से परे है और किरदार का अभिनय तो कमाल का ही है।

गीली-पुच्ची

नीरज घेवान ने अजीब दास्तान में तीसरी कहानी अपने निर्देशन में सुनाई है जो पहले एक जाति की  लड़की की कहानी लगती है फिर एक लेस्बियन लड़की की कहानी लगती है और अंत में आकर फिर चौकाती है।

भारती मंडल(कोंकना शर्मा) एक फैक्ट्री वर्कर है जो डेस्क जांब अपनी फैक्ट्री में चाहती है। पिछड़ी जाति के होने के कारण वह नौकरी भारती को नहीं प्रिया(अदिति राव हैदरी) को दे दी जाती है।

भारती को दुख होता है पर परिस्थितियों से लड़कर वह काफी मजबूत हो चुकी है। वह प्रिया से दोस्ती भी कर लेती है दोनों के दोस्ती में एक मोड़ आता है जब समाज की तमाम चौहद्दीया एक साथ नज़र भी आती है जो अक्सर जाति, ओहदे और सामाजिक हैसियत से तय होते हैं।

कहानी का अंत खुशनुमा न होकर भी एक चौकाने वाली ख़ुशी देता है। कोकर्णा और अदिति राव हैदरी ने अपने किरदार को जिस तरह से निभाया है वह यथार्थ के बहुत करीब सा दिखता है।

अनकही

अजब दास्तान की चौथी कहानी कायोज इरानी ने अपने निर्देशन में सुनाने की कोशिश की है, जिसकी सबसे बड़ी खास बात कहानी के भाव में छुपी हुई है। यह कहना ज्यादा सही होगा कि अनकही एक भावप्रधान कहानी है।

कहानी एक लड़की की है जिसकी सुनने की क्षमता धीरे-धीरे कम हो रही है। उसकी मां नताशा (शेफाली शाह) बेटी के लिए साइन लैंग्वेज सीखती है। पर नताशा का पति रोहन (तोता राय चौधरी) अपनी बेटी के साथ मां के तरह का रिश्ता नहीं बना पा रहा है।

कहानी में मानव कौल आते हैं, जो न सुन सकते हैं, न बोल सकते हैं। मानव और शेफाली के बिना डायलाग का संवाद इतने भावपूर्ण और पावरफुल है कि वह आंखों का पोर गिला कर देते हैं।

कायोज इरान अनकही के कहानी को एक अलग ही लेवल पर ले जाते हैं।

संधा हुआ है ‘अजीब दास्तान्स’ में अभिनय और बाकी सब कुछ

अजब दास्तान शायद इसलिए क्योंकि चारो कहानियों के किरदार जैसे दिखते हैं वैसे कहानियों में होते नहीं हैं।

चारों कहानी में कभी संवाद अंचभित करता है, तो कभी किरदारों का अभिनय और अंत तो खैर चौंका ही देता है।

चारों कहानियों का अंत इसलिए चौका देता है क्योंकि किरदार को जैसे रचा गया है उससे पता ही नहीं चलता कि अंत इतना मजबूत, निडर और चालाक भी हो सकता है जबकि कहानी तो भावनाओं और बेचारगी से भरी हुई थीं।

अजीब दास्तान में जिन चार दास्तानों को सुनाने/दिखाने की कोशिश की गई है, उसमें अनकही एक अलग ही दर्जे पर ले जाती है, तो गीली पुच्ची दो महिलाओं के वजूद और उनके बीच के सिस्टरहुड की तलाश में है। खिलौना में वर्गीय असुरक्षाबोध है तो मंजनू में अपने प्यार को पाने के चाह में बदला लेने की कहानी है।

चारों दास्तान का डायरेक्शन, स्क्रीनप्ले, कलाकारों का अभिनय सब कमाल है, किसी भी चीज में कमी खोजना भूसे के ढ़ेर में सूई खोजने के जैसा लगता है।

सबसे अच्छा लगता है चारों दास्तानों मे किरदारों का निडर, चतुर और यथार्थपरक होना। यही खूबियां दास्तानगोई के शैली के तरह दास्तानों में खो जाने को मजबूर करती है।

मूल चित्र : Still from Trailer of Ajeeb Dastaans from, YouTube

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