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दादी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर अपनी ज़िद और बूते पर बच्चों को पढ़ाया। कम-ज्यादा जैसा भी हो सका, एक अच्छी जिंदगी देने की पूरी कोशिश की।
बात तब की है जब मैं इंजीनियरिंग के तीसरे साल में थी। दादी की तबीयत ठीक नहीं रहती थी। इलाज के दौरान पता चला की उन्हें कैंसर है, और वो भी अपने अंतिम चरण पर। मुझे फ़ौरन घर बुला लिया गया। मन में कितनी हिचक, डर, असमंजस कैसे एक साथ समाया था। बेचैनी, डर तो वाजिब लगा होगा, परन्तु असमंजस कैसा?
ट्रेन से घर की ओर जाते वक्त सब कुछ जी भर देख रही थी, क्या पता देखने मिले न मिले। घर पहुंची, हमेशा चलती चहकती दादी को बिस्तर पर बेसुध पड़ा देख सारी हिचक हवा हो गई। सूख कर हड्डी हो गई थी। लगा, अभी तो स्वस्थ छोड़ कर गई थी, अभी ये क्या हो गया। मां ने दादी को जगाया और मेरी ओर इशारा किया। मुझे तो लगा था कि पहचानेंगी ही नहीं मुझे। पर उन्होंने मुझे इशारे से पास बुलाया और गले लगाकर रोने लगी। मैं भी फूट पड़ी। फिर मां ने मुझे कुछ देर बाद अलग किया और कहा, “पास बैठो। रो नहीं, बातें करो। खुश रखो। आराम मिलेगा, तन-मन दोनों को।”, बातें हुई और फिर दादी ने कमजोर होती आवाज में तेजी लाकर कहा था, “पढ़-लिख कर खूब बड़ी आदमी बनना। नाम कमाना। सब कहें मेरी पोती इंजीनियर है।” (तब के ज़माने में यह बहुत बड़ी बात होती थी)
कुछ देर बाद जो अंदर गई, पापा से मिली। सूखा और मालिन उनका चेहरा देख रोना आ गया। पापा ने मुझे गले लगाया और रोने लगे। तब तो बूझ न सकी थी किन्तु आज समझ आता है, थे तो वो बेटे ही। मां को खो देने का दुख तो उनका भी कम न होगा। तब वो मेरे पिता कम एक पुत्र ज्यादा रहें होंगे। और हृदय विदारक रहा होगा सब घटित होते देखना।
रात को सोते वक्त अपने आप को कितना धिक्कारा था मैंने। अपने संकोच पर स्वयं ही प्रश्नचिन्ह लगा लज्जित होती रही थी। मेरी गलती कम थी, शायद।
मेरे परिवार में वर्षों बाद लड़की (मेरा) का जन्म हुआ था। हम संयुक्त परिवार में सभी भाई-बहनों को शिक्षा का बराबर मौका मिला। परन्तु उसी परिवार के नजदीकी रिश्तों में मैंने 16-20 वर्ष की लड़कियों का ब्याह कर विदा होते देखा, सुना था। मन में हिचक सहज था। परन्तु मेरे मां-पापा और दादी ने सदियों से आ रही कुरीति को स्वाहा कर दिया था। सुधार की गुंजाइश खैर अभी भी अपार है।
और फिर जब रिश्तेदार ऐसे हो, “सात पोते-पोतियां हैं। एक के भी हाथ पीले होते न देख पाएंगी। कैसा भाग्य।” कौन कहता उन मंदबुद्धियो को मेरी दादी कितनी भाग्यशाली थी। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर अपनी ज़िद और बूते पर बच्चों को पढ़ाया। कम-ज्यादा जैसा भी हो सका, एक अच्छी जिंदगी देने की पूरी कोशिश की। कौन बोलता उनलोगो को कि मेरी दादी एक आजाद ख्याल की निड़र महिला थी। और कैसे बताती उन्हें जिंदगी जीना उन्हें बखूबी आता था। और यह भी कि दुख और संघर्ष अपनी जगह, चुपके से कोल्ड ड्रिंक के दो घूंट लगाना उन्हें कितना भाता था।
अगले रोज उठी तो सिर्फ चिंता थी और ढेरों प्रार्थनाएं कि कहीं कोई चमत्कार हो जाए। लेकिन उनकी तकलीफ देखी भी नहीं जाती थी। दादी ने संसार से विदा मेरी अनुपस्थिति में ली, करीब इस घटना के दो महीने बाद। मैं फिर भाग कर घर आई, रोती-धोती। मन भर शिकायतें लेकर, “मुझसे मिलें बिना क्यों गई तुम।” नाराज़गी धीरे-धीरे तसल्ली में घुल गई कि तुम्हें पीड़ा से मुक्ति मिली।
पर सच कहूं, कभी-कभी सोचती हूं, “गुड बाय रह गया।”
लेकिन दादी, आपकी गौरैया आशीर्वाद बन मेरे पास रहने आगयी है। मैं इसका ध्यान रखूंगी। एक काम करना, इसके भाई-बहन, चाचा-चाची, बोय-फ्रेंड, एक्स, अगले-पिछले सब को भेज देना। चूं-चूं कर लड़ेंगी-चहकेंगी। और तुम याद आओगी।
मूल चित्र: Why Grandparents are the best/Filtercopy via Youtube
A space tech lover, engineer, researcher, an advocate of equal rights, homemaker, mother, blogger, writer and an avid reader. I write to acknowledge my feelings. read more...
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