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मेरे बेटे नहीं तेरी बेटियां वंश का नाम रोशन करेंगी…

लेकिन इन सब के बीच एक बात जो दिनेश देखते रह जाते की राजीव की दोनो बेटियो में पूरा घर सम्भाल रखा था और साये की तरह राजीव के साथ लगी रहतीं।

लेकिन इन सब के बीच एक बात जो दिनेश देखते रह जाते की राजीव की दोनो बेटियो में पूरा घर सम्भाल रखा था और साये की तरह राजीव के साथ लगी रहतीं।

ट्रिंग ट्रिंग राजीव का फोन बजे जा रहा था, राजीव ने फोन उठाकर जैसे ही ‘हेल्लो’ कहा उसकी आवाज दूसरे तरफ से किये फ़ोन को सुनकर भर्रा गयी। रोते आवाज में खुद को संभालते हुए कहा, “भैया (दिनेश)आप? बोलिये ना कैसे याद किया? सब ठीक है ना? आप कैसे हैं? भाभी कैसी हैं? आपको मेरा फोन नम्बर कैसे मिला? अनगिनत सवालों की राजीव ने जैसे झड़ी लगा दी।”

“क्या वर्षों के सवाल आज ही फोन पर पूछ लेगा तू, अपने भाई से? इतने सालों में याद ना आयी अपने भाई की तुझे, जो एक बार मुड़कर भी नही देखा तूने? गाँव के बबलू ने दिया तेरा नम्बर यही रहता हैं ना वो भी।”

“ओह्ह! नहीं भैया ऐसी बात नहीं है, मैंने तो हर पल हर घड़ी आपको याद किया, बस वो…”, कहते हुए राजीव चुप हो गया।

“बस वो क्या? अभी तक अपनी पूरी बात नहीं बोल पाता तू? अच्छा सुन तू तो नहीं आया बनारस मुझसे मिलने। मैं आया हूं तेरी भाभी (सीता)को लेकर मुंबई। तुझसे मिलने का बहुत मन था हमारा, तो अगर तेरी इजाजत हो तो हम तेरे घर आ सकते हैं? वरना हम लौट जाएंगे।”

“कैसी बात कर रहे है भैया? अपने घर आने में कैसी इजाजत, आप स्टेशन पर ही रहिएगा मैं आता हूँ”, कहकर राजीव ने फोन रखा तभी उनकी बेटी श्रध्दा का भी फोन आया।

“हेलो! क्या पापा कहाँ बिजी थे? कब से आपका फोन ट्राय कर रही थी।”

“तुझसे बाद में बात करता हूं बेटा मुझे अभी स्टेशन जाना होगा।”

“लेकिन स्टेशन क्यों पापा? इतनी जल्दी में क्यों हैं? क्या बात है बताइए तो सही।”

“बेटा बाद में बताऊंगा।”

“अच्छा! ठीक है।”

कहकर राजीव घर से बाहर निकले। चौराहे पर उनको श्रद्धा मिली, लेकिन आज राजीव के मन की गति इतनी तेज थी कि उनको गाड़ी की स्पीड भी कम लग रही थी। उनका बस चलता तो वो शायद उड़कर स्टेशन पहुंच जाते। श्रद्धा अपने पापा के चेहरे पर घबराहट वाली खुशी के भाव देख रही थी।

स्टेशन पर पहुंचते राजीव की नजर अपने भाई भाभी को ढूंढने लगी। राजीव अपने फोन से फोन किये जा रहे थे लेकिन फोन नहीं उठ रहा था। चारों तरफ भागते दौड़ते राजीव को देख श्रद्धा परेशान हो रही थी। वो जैसे ही तेज से दौड़ी, “पापा  रूको! बताओ तो सही किस से मिलना है?” कहते हुए रोकने के लिए तभी वो एक आदमी से टकरा गई और उस आदमी का फोन नीचे गिर गया।

श्रद्धा फोन के सभी पार्ट्स को उठाकर उनको पकड़ाते हुए बोली, “अंकलजी माफ करना, मैं थोड़ा जल्दी में थी।”

“कोई बात नही बेटा, मैं यहाँ फोन बूथ ढूंढ रहा हूं भाई को फोन करने के लिए। लेकिन मुझे मिल नहीं रहा और ये फोन भी हैंग हो रहा है। तो फोन रिसीव नहीं हो पा रहा। मैं यहाँ पहली बार आया हूँ, इसलिए मुझे कुछ पता नहीं।”

तभी पीछे से राजीव ने आवाज दी, “भईया।”

और अपने भाई के चरण छूने गए तो दिनेश ने राजीव का हाथ पकड़कर कसकर अपने  गले से लगा लिया। देखकर ऐसा लगा ही नहीं कि इनके बीच कभी कोई गिला शिकवा भी था। श्रद्धा अपलक देखती रह गयी कि हो क्या रहा है?

फिर राजीव ने दिनेश के पीछे खड़ी अपनी ममतामयी भाभी को देखा तो आँसूओ का जैसे सैलाब फूट पड़ा। राजीव ने जाकर उनके पैर छुए क्योंकि माँ के जाने के बाद उन्होंने ही राजीव के जीवन मे मां की कमी पूरी की थी।

राजीव ने श्रद्धा से सबका परिचय कराया। श्रद्धा ने आगे बढ़कर अपने ताऊ-ताई जी के पैर छुए और कार चला कर सबको घर ले आयी, सब साथ घर आ गए।

इधर श्रद्धा की माँ उमा परेशान होकर पूरे घर में घूम रही थी और अपनी बड़ी बेटी को फोन पर बता रही थी, “आज आने दे तेरे पापा को, खैर नहीं उनकी। बिना बताए इतनी जल्दी में पता नहीं गए कहाँ?”

तभी डोरबेल की आवाज आयी। उमा ने फोन रखकर दरवाजा खोला तो राजीव को देखते बोली, “ऐसे बिना बताए कौन जाता है? श्रद्धा तू इनके साथ कैसे? ये कहाँ मिल गए तुझे? अपने पापा को समझा दे कि आगे से ये सब मैं बर्दाश्त नहीं करूँगी समझी?”

कहते हुए वो जैसे ही उसकी निगाह पीछे खड़े दिनेश और सीता जी पर गयी वो उनको आश्चर्यचकित हो देखती रह गयी।

जेठ जी जवानी में व्यवहारहीन थे लेकिन जेठानी शुरू से उमा की जिंदगी में बड़ी बहन की तरह रही। आज भी दोनों देवरानी जेठानी वैसे ही मिलीं। सीता के पांव छुने को जैसे ही उमा ने हाथ बढ़ाये सीता ने उसे गले से लगा लिया। लेकिन उमा अपने जेठ से नाराज तो थी ही क्योंकि जिंदगी के कुछ घाव ऐसे होते है जो कभी नहीं भरते।

राजीव के दो बेटियाँ श्रध्दा और खुशी और दिनेश जी के सिर्फ दो  बेटे ही थी। सब बातचीत कर रहे थे और इधर उमा के पुराने घाव जैसे हरे हो गए वो चाह कर भी मुस्कुरा नहीं पा रही थी।

सब कुछ अच्छे से चल रहा था लेकिन सबके मन मे अपनी अपनी बातें थी जो बाहर आनी अभी बाकी थी। श्रद्धा को देखकर दिनेश की नजरें पछतावे और आत्मग्लानि से भर जातीं। एक दिन दिनेश ने दबी आवाज में पूछा, “खुशी नहीं दिख रही।”

“आज आएगी भाई साहब, शनिवार रविवार उसकी ऑफिस से छुट्टी होती है। शादी हो गयी तो उसकी परिवारिक जिम्मेदारियाँ भी हैं। इसी शहर में है तो समय मिलते कभी भी आ जाती है।”

दोपहर में खुशी अपने सास-ससुर, पति और बेटे के साथ घर आयी। सब मिल-जुलकर हँसी खुशी बात कर वापिस चले गए। लेकिन इन सब के बीच एक बात जो दिनेश देखते रह जाते की राजीव की दोनो बेटियो में पूरा घर सम्भाल रखा था और साये की तरह राजीव के साथ लगी रहतीं। पूरे घर मे प्यार, खुशी और चहल पहल बनी रहती।

दो दिन बाद दिनेश ने कहा, “अब मै वापिस जाऊंगा राजीव।”

“लेकिन इतनी जल्दी क्यों अभी तो आप आये हैं। कोई गलती हो गयी क्या हमसे?”

“अरे नहीं! पगले गलती तो मुझसे हुई थी वर्षो पहले जिसकी सजा मैं अब काट रहा हूं। मैं तो तुझसे और उमा से अपने किए की माफी मांगने आया था ताकि मरने से पहले कुछ पाप कम हो जाये। जानता हूँ कि गलती माफी के काबिल तो नहीं, लेकिन फिर भी हो सके तो उमा तुम मुझे माफ़ कर देना”, कहते हुए खड़े होकर दिनेश ने अपना गमछा कंधे से उतार कर पास खड़ी उमा के पैरों में रख दिया।

ये देख उमा कुछ बोल ही नहीं पा रही थी। वो आज फूटफूटकर रो पड़ी। उसे अपने पुराने सभी घाव याद आ गए कि कैसे उसको  बात बात में निरवंशी कहा जाता। जेठजी खाना भी नहीं खाने देते थे वो तो सीता जैसी जेठानी थी जो  चोरी चोरी उसको सब देती थी और करती भी क्या बिचारी उनकी सुनते ही नही थे जेठजी।”

तेज बारिश में दिनेश ने उमा और राजीव को दोनो बेटियों के साथ निरवंशी का ताना देकर घर से निकाल दिया था उस समय श्रद्धा को अस्पताल से आये सिर्फ सोलह दिन ही हुए थे ये जानते हुए भी की बच्ची कमजोर है थोड़ी भी तरस नहीं आया दिनेश को।

इससे पहले की राजीव और उमा कुछ बोलते दिनेश ने निरीह और पश्चयाताप  भरी नजरों से सबको देखा और अपना चेहरा पकड़ कर वापिस सोफे पर बैठ गए। रुंधे हुए गले से खुद को संभालते हुए कहा, “श्रद्धा बिटिया मैं तुम सबका गुनहगार हुँ तुझे मैं मारना चाहता था तेरे और तेरी माँ मरने की दुआ मांगता था,  मैं हमेशा राजीव को बोलता रहता था उमा को छोड़ दे उसने तुझे निरवंशी कर दिया और  दूसरी शादी कर ले।”

“लेकिन तेरा बाप भी एक नम्बर का जिद्दी उसने साफ साफ कह दिया कुछ भी हो जाये मैं अपनी पत्नी और बच्चे का साथ नही छोडूंगा। तू जन्म के समय से पहले ही हो गयी थी डॉक्टर ने हमें उस समय बताया कि अब उमा कभी माँ नही बन पाएगी। उस की भी हालत बहुत नाजुक हैऔर तुझे सीसे में रखा उन लोगों ने। मैंने कहा राजीव से उसके इलाज में पैसे मत खर्च कर। लड़की है, मरती है तो मरने दे माँ बेटी को। तेरी दूसरी शादी कराऊंगा मैं, जो बेटा जन्म दे सके। मुझे तो सिर्फ दो बेटे ही थे शायद इसलिए राजीव का दर्द नहीं समझ पा रहा था।”

मैंने कहा,  “अगर मेरी बात नहीं मानी तो तुझे ये घर छोड़ना होगा अभी और प्रोपर्टी में  भी तेरा हिस्सा नहीं। राजीव उमा चाहते तो कानूनी सहारा ले सकते थे लेकिन इन लोगों ऐसा नहीं किया और चुपचाप घर छोड़ दिया। आज ऊपर वाले ने मुझे मेरी ही लाठी से मारा है। सीता ने हमेशा मुझे सही राह दिखाई लेकिन मेरी आँखों पर दो बेटों के पिता होने के अहंकार की पट्टी बंधी थी।

आज जब बेटे बड़े हो गए तो मैंने उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेज दिया, और उन लोगों ने वहाँ मुझे बिना बताए शादी कर के बस भी गए 10 साल बाद आये थे वो भी प्रोपर्टी  का बंटवारा करने और बेचकर विदेश ले जाने। अरे सीता पेपर तो देना!”

सीता ने प्रॉपर्टी के पेपर दिए तो दिनेश ने कहा, “ये रहा तेरा और मेरी बेटियों का प्रॉपर्टी में हिस्से के कागजात, फिर मैंने बंटवारा कर दिया। तू अपना हिस्सा लेने कभी नहीं आता। सीता ने कहा कि हम चलेंगे कागजात देने, तो मैंने उससे कहा कि क्या वो हमसे मिलेगा? तो सीता ने बड़े विश्वास से कहा, सुनिये जी राजीव उमा दिल के बहुत अच्छे हैं, आप चल के तो देखो एक बार।

मेरे भाई तू निरवंशी नहीं है, सीता सही थी। जिस आंगन में खुशियों की, संस्कारो की, किलकारियां गूंजती हैं वो घर कभी निरवंशी नहीं होता फिर चाहे वो किलकारियां बेटी की हो या बेटो की।”

पूरी बात सुनते श्रध्दा के आंखों में आंसू आ गये, उसने अपनी मां को सम्भाला। और आज उसे अपने माँ पापा पे पहले से भी ज्यादा गर्व था कि उन्होंने उसे छोड़ा नहीं।

“आज मेरा घर आँगन सुना है वंश होते हुए भी मैं निरवंशी सा जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। कोई सुध लेने वाला नहीं तो क्या फायदा ऐसे वंश का?”

राजीव ने आगे बढ़कर अपने भाई को गले लगाते हुए कहा, “आपने ऐसा कैसे सोचा अभी आपका भाई जिंदा है और मेरी बेटियां भी तो आपकी बेटी ही हुई ना?”

प्रिय पाठकगण, उम्मीद करती हूँ कि मेरी ये रचना आपको पसंद आएगी। कहानी का सार सिर्फ इतना है कि  भी बच्चे के जन्म के  समय ही यह तय ना कर ले कि बेटा है तो सहारा बनेगा बेटी है तो बोझ है। ये पूर्णतया आपकी परवरिश, आसपास का परिवेश और संस्कारों पर निर्भर करता है । जो बच्चा अपने बुजुर्ग मातापिता की सेवा खुशी खुशी करे सही मायने में वही वंश  कहलाने का अधिकारी होना चाहिए। फिर चाहे वो बेटा हो या बेटी।

मूल चित्र : Still from Ahmaed Foods DVC 2019, YouTube

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