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असम के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक जीवन में महिलाओं को समान स्तर दिलाने के संघर्ष में चंद्रप्रभा सैकयानी का नाम अग्रिम है।
भारत के आजादी के लड़ाई में शामिल महिलाओं का संघर्ष केवल विदेशी दास्तां से मुक्ति पाना ही नहीं था। महिलाएं एक खूदमुख्तार मूल्क में अपने लिए नए आसमान की तलाश भी कर रही है। जो महिलाओं के लिए एक नया समाज का निमार्ण करें जो उनको रूढ़िवादी मानसिकता से आजाद कर दे और उन्हें भी अपने सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले।
आजादी के पहले के भारत में महिलाओं की दुनिया घर और बाहर के दायरे में कितने ही पूर्वाग्रहों से भरा पड़ी थी। उस महौल मे महिलाओं के लिए घर की दहलीज़ लांघकर सार्वजनिक दुनिया में अपना रास्ता तय कर मंजिल तक पहुंचना सरल नहीं है।
घर और बाहर के दायरे में महिलाओं के मौजूद सामाजिक चुनौतियों के साथ कई महिलाएं संघर्ष कर रही थी। उनमें असम की चंद्रप्रभा सैकयानी का नाम भी एक चमकते हुए तारे के तरह ही है जो महिलाओं के विकास के लिए अपने संघर्ष से नई रोशनी और नई राह दिखा रहा था।
असम के कामरूप जिले के छोटे से गांव के मुखिया रतिराम मज़ूमदार के घर 24 दिसंवर 1901 में जन्म हुआ, चंद्रप्रभा का।
चंद्रप्रभा पढ़ना चाहती थी। उस दौर में लड़कियों को पढ़ाने के लिए स्कूल में कोई व्यवस्था नहीं थी और लड़कियों के पढ़ाई को लेकर कई बाधाएं भी मौजूद थीं। उन तमाम आलोचना से मौजूद घबराहटों को दूर करके चंद्रप्रभा अपनी बहन रजनीप्रभा के साथ प्राथमिक शिक्षा के लिए लड़कों के एक स्कूल में नाम लिखवा लिया।
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद चंद्रप्रभा ने कुछ दिनों तक स्कूल में अध्यापन का काम भी किया और बड़ी बहन रजनीप्रभा असम की पहली महिला चिकित्सक बनी। कुछ वर्षों के बाद चंद्रप्रभा ने स्वयं एक प्राथमिक स्कूल की स्थापना की और तेजपुर में एमवी स्कूल की हेड मिस्ट्रेस बन गईं।
चंद्रप्रभा और रजनीप्रभा, दोनों बहनों का मानना था कि असम के समाज में महिलाओं का सामाजिक विकास तभी हो सकता है जब महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक अधिकार मिलें।
जबकि असम का समाज कई तरह के रूढ़िवादी मान्यताओं में जकड़ा हुआ था, इसका असर चंद्रप्रभा के व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ा। उनका विवाह प्रसिद्ध उपन्यासकार दंडीनाथ कलिता के संग हुआ।
ससुराल में चंद्रप्रभा का स्वागत बहुत अच्छी तरह से नहीं हुआ। एक संतुलित वैवाविक जीवन के सुख से चंद्रप्रभा वंचित रही।
चंद्रप्रभा के स्वतंत्र विचार और महिलाओं के समानता को लेकर उनका नज़रिया भी पारिवारिक जीवन में बाधा बन रहा था। मानसिक यातनाओं से बचने के लिए उन्होंने अपने पुत्र के साथ पति से अलग रहने का तय कर लिया।
बाद के दिनों में चंद्रप्रभा के पुत्र अतुल सैकिया असम के प्रसिद्ध श्रमसंघ के नेता बने और मजदूरों के अधिकार के लिए संघर्ष किया।
अपने व्यक्तिगत जीवन के समस्याओं का प्रभाव चंद्रप्रभा ने कभी देश के आजादी के लिए किए गए संकल्पों और सामाजिक सुधार कार्यक्रमों पर नहीं पड़ने दिया। समाज सुधारक के रूप में उन्होंने अफीम-निषेध आंदोलन में गहरी दिलचस्पी ली।
चंद्रप्रभा महिलाओं को पुरुषवादी चंगुल से मुक्त करके आत्मनिर्भर करना चाहती थी। अपने पिता या पति का उपनाम रखने से उन्होंने इंकार कर दिया और एक नया उपनाम “सैकियानी” मान लिया और वह “सैंकियानी बेडेव” के नाम से जानी जाने लगीं।
चंद्रप्रभा स्वयं कवयित्री भी थी, उनकी कविताओं में कोमलता और भाववुता का भाव अधिक था। असम साहित्य सभा के अधिवेशन में एक बार उनको आमंत्रित किया गया।
उन्होंने वहां देखा कि महिलाओं को पर्दे के पीछे बैठाया गया है। महिलाओं के साथ इस तिरस्कार का विरोध किया और बैठक से उठकर चली गईं। उन्होंने महिला प्रतिनिधियों को इस सभा का बहिष्कार करने के लिए कहा। बाद में 1926 में उन्होंने “महिला समिति” बनाई।
महात्मा गॉंधी के नेतृत्व में चंद्रप्रभा स्वदेशी आंदोलन से जुड़ीं। तब चंद्रप्रभा असमिया महिलाओं का नेतृत्व संभालने वाली नेत्री के रूप में पहचानी जाने लगीं। महात्मा गॉंधी के प्रभाव से उन्होंने अपना जीवन असमिया महिलाओं के स्तर के उत्थान एवं प्रगतिशील असमिया समाज के निर्माण के प्रति समर्पित कर दिया।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के लिए गांधीजी के संदेश पर उन्होंने खादी धारण किया और असमिया समाज के घरों में कताई-बुनाई के लिए महिलाओं को प्रोत्साहित किया। वह चाहती थीं इस तरह से असम की घरेलू महिलाएं आर्थिक रूप से थोड़ी आत्मनिर्भर बन सकती है। इसके लिए उन्होंने स्कूल की प्रधानाध्यापिका के पद से त्यागपत्र देकर “महिला मोर्चा” गठन किया।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन उनकी गिरफ्तारी भी हुई।
असम के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक जीवन में महिलाओं को समान स्तर दिलाने के संघर्ष में चंद्रप्रभा सैकयानी का नाम अग्रीम कतार में है, जिसके लिए उन्हें शक्तिशाली रूढ़िवादी तत्वों का सामना करना पड़ा।
गुवाहाटी के मंदिर में दलितों को प्रवेश दिलाने का उनका आंदोलन असम की सामाजिक व्यवस्था में बदलाव का मील का पत्थर है, जिसके लिए असम समाज उनको कभी नहीं भूल सकता है।
1972 में उनकी मृत्यु के बाद आज भी असम की महिलाओं के लिए वह प्रेरणा स्त्रोत के रूप में मौजूद हैं।
मूल चित्र: via istampgallery
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