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कामकाजी हो, हर वक्त चलती नहीं क्यों, बड़े शहर और ओहदे पर आकर, बिंदी तजती नहीं क्यों, हाय, तुम्हारी आंखों से लाज का काजल बहता जाए, क्यों।
कल्पना में सत्यता का शब्द पिरोए,हम-तुम रोएं,गांव की हो, आंचल ढंकती नहीं क्यों,तुम सुहागन हों, चूड़ियां खनकती नहीं क्यों,कामकाजी हो, हर वक्त चलती नहीं क्यों,बड़े शहर और ओहदे पर आकर, बिंदी तजती नहीं क्यों,हाय, तुम्हारी आंखों से लाज का काजल बहता जाए, क्यों।
तुम्हारी निर्रथक बातों में सत्य संवारे,हम बोल-बोल हारे,अरे आंचल से सरकता लिहाज पलकों में समाए,चूड़ियों की खनक जुबां की मिठास में उतर आए,और शहर हो चाहे गांव,मेहनत का मोल बिंदी से बुद्धि तक विस्तृत हो आए,और, ऐसे भ्रम-जाल का गांठ पल्लू से खुलता जाए,तुम्हारे तनी भृकुटी को हाय, इस हो-हल्ले की हाय-हाय।
मूल चित्र : Stil from the Short Film, BETI, YouTube
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