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सोनू, तेरे जन्म के बाद जब पहली बार सूरज ने तुझे गोद में उठाया तो बस ऐसा लगा जैसे हमारा मयंक वापस आ गया।
“मिन्नी ओ मिन्नी! उठ पाँच बज गए” सीढ़ियों से आती पिताजी के पैरों की आहट सुनकर माँ ने खद्दर की रजाई में दुबक कर सोती हुई मिन्नी को झिंझोड़ा।
“ओहो माँ सोने दो ना, हम सब रात देर तक जाग रहे थे।”
“क्यूँ? देर तक क्यों जाग रहे थे? रेडियो सुनने के लिए। नशा है नशा!पिताजी को पता चल गया ना तो तुम्हारे साथ-साथ मेरी भी शामत आएगी। खुद तो बिगड़ी हुई है, सोनू और टिन्नी को भी बिगाड़ने पर तुली है। माँ बड़बड़ाती हुई सोनू को उठाने लगी थीं।”
तभी बाहर से पिताजी की धीर गंभीर आवाज़ आई “सोनू, मिन्नी, टिन्नी उठ गए क्या? चलो पढ़ने बैठो।” और जो अब तक सोने के लिए अम्मा से बहस कर रही थी, “जी पिताजी उठे हैं” बोलते हुए किताब उठा कर पढ़ने का उपक्रम करने लगी। सोनू और टिन्नी भी आँखे मलते हुए उठ बैठे थे। नींद से भरी आँखों को जबरन खोल कर किताब में आँख गड़ाए तीनों ही पिताजी के सुबह की सैर पर जाने का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे । और मन कर रहा था कि बंद होती दोनों पलकों के बीच कोई लकड़ी फंसा लें। तभी गेट खड़कने की आवाज़ आते ही किताबें फेंक तीनों फिर से रज़ाई में दुबक गए थे।
माँ भी उन तीनों की मासूम नींद को लगभग एक घंटे का एक और मौका दे कर कमरे से रेडियो उठा कर ‘हरि ओम शरण’ जी के भजनों का आनंद लेते हुए हरसिंगार के फूल चुनने बाहर आईं। यही तो एक घंटा होता जो उनका अपना होता उसके बाद तो बस अंगीठी,चाय ,खाना, कपड़ा,स्कूल, सफाई वगैरह-वगैरह।
माँ को रेडियो सिलोन पर आने वाला बिनाका गीतमाला सुनना बेहद पसंद था और विविध भारती के तो क्या कहने। अम्मा तो गाती भी बहुत अच्छा थीं पर पिताजी को ‘हरिऔध’ जी की कविता “दिवस का अवसान समीप था गगन था कुछ लोहित हो चला..” ही गुनगुनाते सुना था। वो भी इतना बेसुरा होता कि तीनों मुँह दबा कर हँसते थे, खुलकर हंसने की हिम्मत जो नहीं थी। इसीलिए पिताजी को हिटलर की उपाधि दे दी थी।
हाँ! तो घर में उनकी हिटलरशाही ही थी। पौष्टिक खाओ, ढंग के कपड़े पहनो, जल्दी सो ,जल्दी उठो, मेहनत से पढ़ो, कॉलेज से घर ,घर से कॉलेज,फालतू में मत घूमो, शाम ढलने के पहले घर आ जाओ, साथ में खाना खाओ, खाते समय बात न करो और तो और फिल्में न देखो, फिल्मी गाने न सुनो, न गाओ, बाप रे बाप नियमों की लंबी चौड़ी लिस्ट थी।
पर नये नये जवान होते बच्चों को कोई नियमों और बंधनों में बाँध सका है क्या, जो हिटलर साहब के अलिखित नियम बाँध पाते। अनुशासन प्रिय पेशे से डॉक्टर पिता जी नौ बजे तक सो जाते क्यूँकि उन्हें चार बजे उठना होता और बच्चों को उठाना होता।और बिनाका गीतमाला का समय तो आठ बजे से ही होता। तो बस परिवार का हर सदस्य उन दिनों बहुत अनुशासन प्रिय हो गया था सब आठ बजे ही सो जाते ।
एक दिन पिताजी के सामने पेशी हुई कि “तुम सब इतनी जल्दी क्यों सो जाते हो” तो सोनू भैया ने बड़े आत्मविश्वास के साथ आगे आ कर कहा कि “पिताजी वो हम लोग सुबह थोड़ा और जल्दी उठना चाहते हैं इसलिए जल्दी सो जाते हैं।” और अन्दर से नारियल समान पिताजी उस दिन अपने बच्चों पर गर्व महसूस कर रहे थे कि वाह मेरे द्वारा दिए जाने वाले संस्कारों का अभ्यास रंग ला रहा है। पर उन्हें क्या पता कि जल्दी सोने की आड़ में हम रजाई में रेडियो लेकर घुस जाते और विविध भारती का आखिरी नमस्कार, शुभरात्रि सुन कर ही सोते ।
तभी अचानक सोनू भाई साहब ने घर में एक धमाका कर डाला कि वो ‘एन डी ए’ की परीक्षा देने जा रहे हैं फौज में भर्ती होंगे। और पिताजी का गुस्सा एकदम चरम पर। अगर माँ बीच में न आ गई होतीं तो सोनू जी की जम कर कुटाई होने के आसार थे।
पिताजी अनुशासन प्रिय थे पर इस तरह से गुस्सा करते हम सब ने पहली बार उन्हें देखा था।और हाँ शायद पहली बार उनकी आँखों में आँसू भी। उधर सोनू भी कसमें खा रहे थे कि अब वो पढ़ाई नहीं करेंगे, बस फौज नहीं तो कुछ भी नहीं और घर एक युद्धक्षेत्र में बदल चुका था, सोनू की नज़रों में पिताजी दुनिया के सबसे बुरे पिता हो चुके थे। घर में दो रेडियो हुआ करते थे जो कि इस समय पिताजी के कब्जे में थे क्योंकि उन्हें लगता था कि सोनू के दिमाग में फौज की नौकरी करने के विचार का बीजारोपण उस छोटे से डब्बे की देन है। माँ दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थ बन-बन कर थक चुकी थीं।
अब इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य इसी शीतयुद्ध की स्थिति में दादी का गाँव से आगमन हुआ। सारा परिवार दादी के सामने एकदम सामान्य दिखाने की कोशिश कर रहा था यहाँ तक कि सोनू भी क्यूंकि वो दादी के सबसे लाड़ले और दुलारे थे। पर दादी की परखी नज़रों ने घर के तनावपूर्ण माहौल को पहचान लिया ।और उनका जासूसी अभियान शुरू हुआ और मुखबिर बनीं मिन्नी बिटिया, कारण था कि शायद दादी इस लड़ाई को खत्म करवा दें और रेडियो मिल जाए, बिना मेहनत मनोरंजन का एकमात्र वही तो साधन था।
आदि से अंत तक पूरी कहानी सुना दी गई। फिर दादी ने भी दोनों पक्षों के बीच सुलह कराने की पूरी कोशिश की। पर दोनों ही अपने अपने फैसले से डिगते नहीं दिख रहे थे। और उधर मिन्नी, टिन्नी का तो सारा दिमाग रेडियो पर लगा था, पिताजी और सोनू के झगडे में न जाने कितने भूले बिसरे गीत और बिनाका गीत माला छूट गए थे।
उस दिन जब मिन्नी टिन्नी स्कूल से वापस आईं तो घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था पिताजी घर पर नहीं थे अम्मा और दादी बाहर बगीचे में बैठ कर कुछ बातें कर रही थीं पर इन्हें देख कर दोनों चुप हो गईं।
कमरे में जा कर देखा तो सोनू भैया खिड़की के पास बैठ कर कुछ सोच रहे थे। अचानक माँ की आवाज़ आई “तुम लोग जल्दी से तैयार हो कर दादी के कमरे में चलो पिताजी ने सब को वहाँ ठीक पाँच बजे इकट्ठे होने को बोला है।”
ठीक पाँच बजे पिताजी दादी के पास आकर बैठ गए , माँ भी दरवाज़े के पास थोड़ा संकोच में, डरी-सहमी सी बैठी थीं। पिताजी ने अपनी गंभीर आवाज़ में बोलना शुरू किया , “आज मैं तुम सब को जो बताने जा रहा हूँ वो ध्यान से सुनो” और उधर दादी और माँ की आँखों से गंगा जमुना की जल धारा बाँध तोड़ बह निकली थी।
“सोनू मैं तुम्हारे खिलाफ नहीं हूँ मेरे बच्चे! बस डरता हूं, कहीं तुम्हें भी ना खो दूँ, अपने जान से ज्यादा प्यारे भाई मयंक की तरह” पिताजी ने रुँधे कंठ से कहना शुरू किया। पहला बम फूटा, हम तीनों के मुँह से एक साथ निकला “आपके भाई मयंक?”
“हाँ मेरा जुड़वाँ भाई, अम्मा बाबूजी के सूरज, चाँद।मैं सूरज वो मयंक। बारहवीं पास करके मैं मेडिकल कॉलेज चला गया और वो ‘एन डी ए’ करने ‘खड़गवासला’।”
“और बस तीन साल के बाद वो बन गया फौजी अफसर। मेरी तो पढ़ाई चल रही थी । घर में सब का विचार था कि मयंक की शादी कर देनी चाहिए क्योंकि वो तो अब अच्छा खासा काम कर रहा है सब कुछ व्यवस्थित हो गया है और बस मयंक के लिए एक अच्छी लड़की खोजी जाने लगी और आखिरकार एक लड़की भा ही गई मेरे भाई को और नवरात्रों में खूब धूमधाम से शादी हो गई।” और पिताजी का कंठ भर्रा गया आवाज़ अटकने लगी।
फिर दादी ने बोलना शुरू किया। “सूरज और मयंक जुड़वां थे और दोनों में हद से ज्यादा प्यार भी था। शादी के लिए लंबी छुट्टी लेकर आया था मयंक और उस वक्त सूरज का भी ‘एम बी बी एस’ खत्म हो चुका था और वो घर रह कर पी जी की तैयारी कर रहा था। बहुत दिनों के बाद दोनों इतने दिन साथ रह रहे थे। ये सन बासठ की बात है अभी शादी हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि भारत चीन का युद्ध शुरू हो गया। रेडियो पर सेना की तरफ से सूचना प्रसारित होने लगी कि जो भी फौजी छुट्टी पर अपने-अपने घरों को गए हैं, उन सभी की छुट्टियों को रद्द किया जाता है और जल्द से जल्द वापस आने का आदेश दिया जाता है।”
और बस मयंक को अपनी नई नवेली ब्याहता, अपने माता-पिता और जान से प्यारे भाई को छोड़ कर जाना पड़ा। अब बस घर में चार जन और एक रेडियो। रेडियो हर वक्त चलता रहता।
उस दिन दोपहर के करीब दो बजे रेडियो पर “हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू” गाना बज रहा था कि तभी एक ज़रूरी सूचना…. ‘लद्दाख और मैकमोहन रेखा पर आज हमारे छः बहादुर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए हैं उन सब के नाम इस प्रकार हैं। ‘लेफ्टिनेंट मयंक मिश्रा’ और वहीं रसोई से आती हुई निशा के हाथ की थाली छूट कर गिरी तो उसकी झनझनाहट में रेडियो की आवाज़ गुम सी हो गई। और इधर दादी के मुंह से अपनी माँ निशा का नाम सुनकर तीनों बच्चे अवाक से रह गए थे।
तब दादी ने कहा हाँ मेरे बच्चों तुम्हारी माँ ही थी हमारे मयंक की पत्नी। एक तूफान सा आ गया था हम सब की ज़िंदगी में तिरंगे में लिपटे मयंक के क्षत विक्षत शरीर को देख कर। सब क्रिया कर्म होते ही निशा अपने मायके चली गई और सूरज भी अपनी पढ़ाई के लिए दिल्ली। गाँव का घर बिल्कुल मरघट सा लगता कोने में पड़ा रेडियो भी मुँह चिढ़ाता सा लगता। और उन दिनों को याद कर दादी फूट-फूट कर रोने लगीं ऐसा लग रहा था जैसे बरसों का गुबार बाहर आ रहा था। “मेरा मयंक वर्दी में कितना अच्छा लगता था, मेरी ही नज़र लग गई मेरे हीरे को।”
फिर पिताजी ने दादी को ढांढस बंधाते हुए आगे बताना शुरू किया कि उधर निशा का भी मन कहाँ मायके में था।जब देखो तब कहीं शून्य में निहारती हुई जाने क्या-क्या सोचा करती। कभी मयंक के साथ बिताए सुंदर पलों को याद कर मुस्कुराती तो कभी उसका तिरंगे में लिपटा शव याद आता तो बिलख पड़ती। अजीब सी हालत थी। घर में सब उसका मन लगाने की कोशिश करते पर उसके दुःख तो उसके अपने थे। सब कुछ इतने कम समय में हो गया था, एक महीने ही तो हुए थे उसी में सधवा, विधवा सब हो गई।
एक दिन अचानक उसका जी मिचलाने लगा और उल्टी हुई और एक नन्हें जीव की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी । मयंक का अंश उसके शरीर में पल रहा है यह सोच ही उसके लिए तिनके का सहारा बन गई। मायके में सब ने अबॉर्शन के लिए जोर दिया, समझाया पर उसने अपना निर्णय सब को सुना दिया कि नहीं वो ऐसा कुछ भी नहीं करेगी।
आगे पिताजी की हिचकिचाहट देखकर दादी अपने को संयत करते हुए बोलीं, “फिर लगभग एक महीने बाद एक दिन निशा ज़िद करके अपने पिता जी के साथ ससुराल वापस आ गई थी। उधर सूरज के लिए बहुत रिश्ते आने लगे थे पर वो शादी करने को तैयार ही नहीं हो रहा था । परिवार और बिरादरी का बहुत दबाव भी था ।जितने मुंह उतनी बातें। कोई निशा को मनहूस बोलता कोई सूरज को चरित्र प्रमाण-पत्र देने लगता। और बस इस सब से तंग आकर एक दिन मैंने और तुम्हारे दादाजी ने एक निर्णय लिया और दिल्ली तार भेज कर सूरज को बुलाया और अपनी कसम दे कर इन दोनों की शादी करवा दी। बड़ी बातें हुईं तरह-तरह की, पर दादाजी के आगे किसी की हिम्मत नहीं थी कुछ बोलने की। थोड़े दिन सब कुछ बहुत अजीब सा लगा, सबके दिल के घाव भी हरे थे पर समय के साथ सब ठीक होने लगा। और बच्चे सोनू, तेरे जन्म के बाद जब पहली बार सूरज ने तुझे गोद में उठाया तो बस ऐसा लगा जैसे हमारा मयंक वापस आ गया।”
कमरे में एक मौन सा पसर गया था, सब स्तब्ध थे। तभी सोनू ने उठकर पिताजी को गले से लगा लिया और बोला “मुझे गर्व है आप पर,आप दुनिया के सबसे अच्छे पिता हैं।” अपने पिता के इस रूप से एकदम अपरिचित , इस पहलू से एकदम अनभिज्ञ मिन्नी और टिन्नी भी पिता को स्नेह पाश में बाँधने को व्याकुल हो, उठकर उनके पास आ गईं थीं।
दूसरे दिन पिताजी दाढ़ी बना रहे थे कि तभी कहीं बगल के घर में ज़ोर-ज़ोर से विविध भारती पर गाना बज रहा था “तुझे सूरज कहूँ या चंदा तुझे फूल कहूँ या तारा” और अगली लाइन पिताजी गुनगुना उठे “मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा। सोनू ओ सोनू!!जा ‘एन डी ए’ का एडमिशन फॉर्म ले कर आ वर्ना उसकी आखिरी तारीख निकल जाएगी।”और माँ की आँखों में एक किरण सी चमक गई थी, सारे बादल जो छंट गए थे।
मूल चित्र: Parle via Youtube
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