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अविनाश प्यार करता था नेहा को लेकिन माँ बाप के सामने होंठ सिल लेता कुछ बोलता ही नहीं क्या गलत क्या सही जैसे विवेक ही ख़त्म हो जाता उसका।
नेहा का मन बहुत बेचैन हो रहा था। एक अजीब सी घबराहट सुबह से हो रही थी। दीदी का भी सुबह से ना जाने कितनी बार फ़ोन आ चूका था। हर बार वही सवाल, ‘कब निकल रही हो? माँ बहुत याद कर रही है।’
क्या जवाब देती वह? जब खुद ही इंतजार कर रही थी कि कब इज़ाज़त मिलेगी अपनी बीमार माँ को देखने जाने की।
कितना गलत बोलते हैं सब कि कोई फ़र्क नहीं है बेटे बेटी में। सब झूठ है, बहुत फ़र्क है तभी तो तड़प रही हूँ आज अपनी माँ से मिलने को। अगर लड़का होती तो क्या इज़ाज़त लेनी होती किसी से? नहीं ना? खुद से बातें करती नेहा बेचैन हो काम निपटाये जा रही थी। सबको पता था कि नेहा की माँ बीमार है लेकिन किसी ने भी हाल नहीं पूछा।
पापा के जाने के बाद कितने तकलीफों से पाला था नेहा और स्नेहा को उनकी माँ ने। उम्र कम थी माँ की जब पापा की मृत्यु हुई थी। नेहा के मामा और नानू ने बहुत कहा दूसरी शादी को पर माँ नहीं मानी। पापा के ऑफिस में छोटी सी नौकरी लग गई और फिर वे तीनों ही एक दूसरे की दुनियां बन गए।
जब तक नानू थे तो कोई ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। उनके जाने के बाद मामा की अपनी जिम्मेदारियां थी तो माँ ने उनसे मदद लेनी बंद कर दी। नेहा, स्नेहा और उनकी माँ ख़ुश थे अपने छोटे से संसार में।
सुनील, माँ के ऑफिस में ही काम करते थे और माँ को पसंद थे। जल्दी ही स्नेहा और सुनील की शादी हो गई। स्नेहा ख़ुश थी सुनील के साथ।
नेहा के लिए रिश्ता मामा लाये थे और अच्छा घर देख माँ ने शादी कर दी। माँ को अकेली छोड़ने का बिलकुल मन नहीं था नेहा का।
“माँ कैसे अकेली रहोगी तुम मुझे नहीं करनी शादी।”
जब भी नेहा अपनी माँ से कहती तो माँ का जवाब होता, “तू वहाँ ख़ुश रहेगी, तो मैं यहाँ ख़ुश रहूंगी और कौन सा दूर जा रही है? बस आधे घंटे का तो रास्ता है, मैंने फ़ोन किया और तू सामने।”
उफ़ माँ कितने गलत थे ना हम! आधे घंटे का सफ़र भी नहीं कर सकती थी अपनी इच्छा से।
नेहा के ससुराल में कुल चार लोग थे, सास-ससुर, अविनाश और खुद नेहा। शुरू में तो ठीक ही लगा पर धीरे धीरे समझ गई नेहा यहाँ कुछ भी अपनी मर्जी से नहीं कर सकती थी।
भिंडी की सब्ज़ी सुखी बनेगी या रसे वाली, ये भी अपनी मर्ज़ी से नहीं कर सकती थी। सासु माँ नाराज़ हो जाती और खाना नहीं खाती। फिर घंटो अविनाश उन्हें मनाते और नेहा माफ़ी मांगती रहती फिर वो खाती खाना। नेहा का दिल करता कहीं भाग जाये इस जेल से…
अविनाश प्यार करता था नेहा को लेकिन माँ बाप के सामने होंठ सिल लेता कुछ बोलता ही नहीं क्या गलत क्या सही जैसे विवेक ही ख़त्म हो जाता उसका। बहुत गुस्सा करती नेहा जब वो अकेले होते पर अविनाश उसे हर बार मना लेता।
इस बार माँ बहुत बीमार हो गई थी। जॉन्डिस हो गया था जो बहुत बढ़ गया हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा। स्नेहा और सुनील थे उनके पास थे लेकिन वो नेहा को बहुत याद कर रही थी।
“मम्मीजी, मेरी माँ की तबीयत ठीक नहीं है। मैं जा के मिल आती हूँ। सुबह जा शाम को आ जाऊंगी।”
नेहा की बात सुनते ही उसकी सास ने मुँह बना लिया।
“देख बहु तेरे ससुर जी से पूछना पड़ेगा। अब रसोई की बात तो है नहीं की मैं बता दूँ या इज़ाज़त दे दूँ। रिश्तेदारी का मामला तो मर्द ही संभालते हैं।”
“लेकिन मम्मीजी पापाजी तो शहर से बाहर हैं। आप कॉल कर के पूछ लेतीं…”
नेहा का इतना कहना था की सास ने तांडव शुरू कर दिया, “अब इन छोटी छोटी बातों के लिए इनको परेशान करूँ? बहुत सिर चढ़ गई हो बहु तुम।”
नेहा चुपचाप रोती हुई अपने रूम में आ गई। अविनाश सब सुन रहे थे और नेहा को देख खुद को व्यस्त दिखाने को मोबाइल में घुस गए। नेहा को नफ़रत सी होने लगी अपने ही पति से, “जब हिम्मत नहीं थी तो क्यूँ की शादी?”
तभी नेहा के मोबाइल पर स्नेहा का फ़ोन आया। अभी नेहा कुछ कहती की स्नेहा ने कहा, “नेहा जितनी जल्दी हो हॉस्पिटल पहुँचो, माँ अंतिम साँसे गिन रही हैं।” अपनी दीदी की बात सुन नेहा जड़ हो गई।
अविनाश को देख नेहा ने कहा, “मैं जा रही हूँ अपनी माँ से मिलने। आपको ख़बर कर दी मैंने और अब इज़ाज़त नहीं लूँगी किसी की।”
ये कह नेहा निकल गई। हॉस्पिटल के गेट पे ही सुनील, नेहा के जीजू मिल गए अपने जीजू के साथ दौड़ती नेहा माँ के कमरे के तरफ बढ़ी। अभी कॉरिडोर में ही थी की स्नेहा की चीख गुंजी। हाथ में लिया सब कुछ फैंक नेहा भागी। देखा तो माँ जा चुकी थी और स्नेहा दीदी माँ से लिपटी दहाड़े मार रो रही थी। नेहा वहीं बैठ गई। लूटी-पिटी सी सिर्फ ताकती रह गई।
खुद से नफ़रत हो गई नेहा को। जिनकी रात दिन सेवा की, गलतियां ना होने पे भी माफ़ी मांगती रही, उनसे एक इज़ाज़त नहीं मिली अपनी मरती माँ को देखने की। क्यूँ मैंने इज़ाज़त का इंतजार किया? क्यूँ? खुद को कोसती रह गई नेहा।
बाद में स्नेहा ने बताया की माँ अंतिम सांस तक नेहा-नेहा रटती रही। अब कर भी क्या सकती थी नेहा, सिर्फ माँ के तस्वीर को पकड़ माफ़ी मांगती और रोती रहती।
तेरहवीं में अविनाश आये अपने पिता के साथ। शायद नेहा के जीजू ने ख़बर की थी। घर के बड़े होने के नाते अपनी जिम्मेदारी निभा दी थी।
पूजा पाठ समाप्त होने के बाद अविनाश आये और नेहा को गले लगा रो पड़े, “मुझे माफ़ कर दो नेहा।”
हिरारत भरी नजरों से नेहा ने अविनाश को देखा, “किस-किस बात की माफ़ी मांगगो अविनाश? बाकि सारी बातें तो छोड़ो तुम, मेरी मरती हुई माँ से मिलने की इज़ाज़त नहीं मिली मुझे। मैं पूछती हूँ क्यूँ?”
“मुझमें हिम्मत नहीं थी नेहा, बहुत खोट है मुझमें पता है मुझे। लेकिन बहुत प्यार भी करता हूँ तुमसे। घर चलो नेहा। अब तुम्हें कोई शिकायत का मौका नहीं दूंगा। मम्मी-पापा से मैं बात करूँगा, उन्हें समझाऊंगा। मम्मी पापा को माफ़ कर दो नेहा।” अविनाश नेहा से मिन्नतें कर रहा था।
“नहीं अविनाश! मैंने फैसला ले लिया अब उस घर में मैं नहीं जाऊंगी। वहाँ की दीवारे चीख-चीख कर मुझे मेरी लाचारी बताएँगी। मेरी मरी हुई माँ का चेहरा दिखेगा उन दीवारों पे मुझे। खुद को माफ़ नहीं किया मैंने आज तक कि क्यूँ इंतजार किया तुम्हारे घरवालों के इज़ाज़त का और तुम कहते हो तुम्हारे मम्मी पापा को माफ़ कर दूँ?
अगर तुम्हें मेरे साथ रहना है तो हम अलग रहेंगे उस घर में मैं नहीं जाऊंगी। मुझे पता है इतनी हिम्मत नहीं होगी तुममें कि अपनी बीवी के साथ अलग रहो। अगर मंजूर है तो ठीक वरना अब से हमारे रास्ते अलग अलग हैं।”
इतना कह नेहा ने कमरा बंद कर दिया।
मूल चित्र : Still from 9BrightSide Ads, YouTube
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