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बहु के घरवालों को अच्छे लेन-देन की समझ नहीं है…

"क्यों आंगन में तुम्हें खिचड़ी खाते समय तुम्हारे ससुराल वालों ने तुम्हें नेग नहीं दिए? वैसे भी इतना बड़ा संयुक्त परिवार है भाभी का।"

“क्यों आंगन में तुम्हें खिचड़ी खाते समय तुम्हारे ससुराल वालों ने तुम्हें नेग नहीं दिए? वैसे भी इतना बड़ा संयुक्त परिवार है भाभी का।”

मायके से विदा होके रागिनी ससुराल के चौखट के सामने आ गयी थी। कार घर के ठीक बाहर गेट के सामने खड़ी थी अपनी नयी नवेली दुल्हन लेकर अनुज घर के बाहर कार में ही बैठा था। 

माँ ने अभी गाड़ी में ही बैठने के लिए कहा था।

“दुल्हन आ गयी! दुल्हन आ गयी!” घर में चारो तरफ एक भागमभाग मच रही थी।

तभी रागिनी ने देखा एक महिला कार के अंदर कुछ ढूंढ रही है। उसे समझ नहीं आया कि ये से क्या हो रहा है। तभी सासु माँ गीता जी मुस्कुराते हुए पास कर बोलीं, “बहु सास की साड़ी कहां रखी है?”

गीता जी के इतना कहते रागिनी को याद आया कि माँ ने कहा था, “ये साड़ी मैं समधनजी के लिए रख रही हूं। तेरी विदाई के समय तेरे साथ कार में ही रखी जायेगी, क्योंकि इसी साड़ी को पहनकर वो बहु को उतारने की रस्म पूरी करेंगी।”

रागिनी ने आगे की सीट पर रखे गिफ्ट के पैकेट की तरफ इशारा किया।

गिफ्ट का पैकेट लेकर गीता जी अंदर गयीं, लेकिन लौटी तो उनके चेहरे से मुस्कुराहट गायब थी।

रागिनी ने देखा तो उन्होंने वहीं साड़ी पहनी थी जो रागिनी की माँ ने दी थी। वहाँ मौजूद औरतें साड़ी की तारीफ कर रही थीं लेकिन गीताजी को साड़ी नही पसंद आयी थी। 

उन्होंने बहु के गृहप्रवेश की सारी रस्में की गृहप्रवेश के समय दरवाजे पर ही उसकी ननद निशा ने दरवाजा रोका और भाई से कहा, “बिना नेग लिए अंदर जाने नही दूँगी, पूरे 50000 तो चाहिए ही मुझे। आखिर इकलौती बहन हुँ तुम्हारी। लाओ मेरा नेग।”

अनुज ने कहा, “अरे निशा तू भी ना, चल जाने दे अंदर परेशान मत कर। वैसे भी रात भर जाग कर थक चुका हूं। कल ले लेना अभी तो नही मेरे पास।”

निशा ने पूछा, “क्यों आंगन में तुम्हें खिचड़ी खाते समय तुम्हारे ससुराल वालों ने तुम्हें नेग नहीं दिए? वैसे भी इतना बड़ा संयुक्त परिवार है भाभी का।”

“अच्छा, वो पैसे मिले तो हैं, लेकिन मैंने गिने नहीं।”

तब तक अनुज की बात को बीच में काटते हुए गीता जी ने कहा, “निशा जाने दे बेटा अंदर। सबको देना-लेना नहीं आता, इसके लिए तो बड़ा दिल चाहिए। मुझे मिली साड़ी देखकर तुझे ये बात खुद ही समझ जानी चाहिए थी।”

वहाँ मौजूद सबके बीच में इस तरह गीता जी का व्यंग्य करना रागिनी को बिल्कुल भी अच्छा नहीं  लगा, लेकिन रागिनी अपमान का घूंट पी के रह गयी।

सारी रस्में होने के बाद गीता जी ने अनुज से कहा, “बेटा,  मुझे वो चोरौंधा(बेटी की माँ, बेटे की माँ को ये उपहार दूल्हे के हांथो भिजवाती है, ये कहते हुए कि ये सीधा अपनी माँ को देना, बिना किसी को बताये) तो देना जो तेरी सास ने तुझे दिया।”

अनुज पूछने लगा, “चोरौंधा? ये क्या होता है? उन्होंने ने तो ऐसा कुछ नहीं दिया मुझे।”

गीता जी एक दम बोल पड़ीं, “हाय राम! कितने कंजूस और बेशर्म निकले तेरे ससुराल वाले? चोरौंधा की रस्म में एक उपहार ना दे सके? कुछ नहीं तो नेग में 101 रुपये ही दे देते कि बेटा दे देना अपनी मां को।”

अनुज ने कहा, “अच्छा उपहार तो दिया मुझे उन्होंने ये कहकर कि मैं बिना किसी को बताये सीधा आपको दूँ। लेकिन ये चोरौंधा है, ये मुझे नहीं पता था। रुकिये अभी लाता हूँ।” ये कहते हुए अनुज ने कमरे से लाकर एक उपहार अपनी माँ को दिया।

वहाँ मौजूद सभी रिश्तेदार औरतें पूछने लगीं, “देखें तो सही कि आखिर समधन ने दिया क्या है?”

गीता जी ने उपहार खोला तो उसमें सोने की चेन के साथ कान की बूंदे थे। सभी तारीफ कर रहे थे लेकिन गीता जी का मुँह टेढ़ा ही रहा।

गीताजी ने मुँह बनाते हुए कहा, “कितने हल्के हैं जीजी। ये देखो दम ही नहीं है इसमें, ना वजन। मुझे तो 18 कैरट का सोना दिख रहा है।”

अनुज ने लाकर खिचड़ी खाने के समय भी मिले सभी उपहार रख दिये। लेकिन उसमें पैसों की गिनती हुई तो सिर्फ 30000 ही निकले। चार सोने की अंगूठी, तीन सोने की चेन, कपड़े इत्यादि, लेकिन किसी चीज की कोई कीमत नहीं थी उन लोगो की नजरों में।

गीता जी फिर बोलने लगीं, “देखो मैंने कहा था ना नहीं मिले होंगे। जब कि चार बुआ, चार चाचा, मामा-मामियों, तीन बड़ी बहनों से भरा पूरा परिवार है।”

ये सब बातें अंदर रागिनी सुनकर रोने लगी। उसे याद आ रहा था कि उसने अपनी मां को मना किया था, “माँ ये सोने की चेन आप ही पहनना। आप खाली गला रहती हो। कान की बुँदे ही सिर्फ दो। वैसे भी वो लोग पैसे वाले हैं।”

लेकिन उसकी मां ने कहा, “नहीं बेटा ये तो उनका हक बनता है। उन्हें भी तो इंतजार होगा। भले उनके पास कितना भी पैसा हो, लेकिन इस की बात ही अलग है। वहाँ चार औरते पूछेंगी, तो वो क्या कहेंगी?”

रिश्तेदारों ने अनुज को अपनी मर्जी और हैसियत के हिसाब से सामान दिए थे।

सास के बक्से से लेकर साड़ी, कपड़े ,फर्नीचर ,बर्तन दहेज में मिले हर एक समान  में ढूंढ ढूंढ कर कमी निकली गयी, जैसे शादी ना हुई कोई शॉपिंग कर के आये हों। फाइनल बात सबकी ये हुई कि अनुज के ससुराल से कुछ भी ढंग का नहीं मिला।

रागिनी के चेहरे पर उदासी थी और मन मे गुस्सा लेकिन माँ की मिली सीख से वो कुछ बोल नहीं पा रही थी कि बेटा अब उसी घर मे तेरा जीवन बीतना है तो रिश्तों में किसी बात को लेकर कड़वाहट या मनमुटाव मत रखना। हो सकता है कि हम लोगों की कोई बात या दिया समान उन्हें ना पसन्द आये, तो चुपचाप सुन लेना कुछ भी पलट कर मत कहना। अपने मधुर व्यवहार से सबका दिल जीतने की कोशिश करना।

अगले दिन रागिनी की माँ का फोन आया। उन्होंने रागिनी से पूछा, “कैसी है मेरी बिटिया रानी? खुश तो है ना? बाकी सभी कैसे हैं?”

रागिनी का मन हुआ वो अपनी मां के गले लग कर जोर-जोर से रो ले जी भर के। एक एक बात बता दे, लेकिन अगले ही पल उसे याद आया कि क्यों वो अपने दुःख से अपनी मां को भी दुःखी करे? तो उसने अपने आंसुओं पर कंट्रोल करते हुए कहा, “सब कुछ बढ़िया है माँ।”

तब तक फोन रागिनी को बुआ ने ले लिया और कहा, “कैसी है मेरी भतीजी?”

रागिनी ने कहा, “अच्छी हूँ बुआ।”

“और ससुराल में सब कैसे है सबके व्यवहार कैसे है तेरे साथ?”

तब तक सामने आईने से रागिनी को अपनी सास कमरे में आती दिखी।

“सभी का व्यवहार अच्छा है बुआ। क्यों कोई बात है?”

रागिनी को पता था कि बुआ भी बड़बोली और कमियां निकालने में माहिर इंसान है। तो उसने फोन इस बार स्पीकर पर कर दिया।

बुआ ने कहा, “कुछ नहीं। बस तेरे ससुराल वालों के नाम बड़े और दर्शन छोटे निकले। भाभी ने कितने महंगे महंगे समान चुन चुन कर दिए तुझे। एक तेरे ससुराल वाले हैं, मुझे सिंदूर बोहराई की अच्छी साड़ी भी ना दी। सोना चांदी की निशानी तो दूर की बात रही एक जोड़ी पायल तो दे ही सकते थे? अब तो मुझे बोलते लाज आती है कि मेरी भतीजी के ससुराल वाले इतने कंजूस हैं और तेरे भाई को भी फेरों के समय लावा (प्रदक्षिणा) का शर्ट पेंट अच्छा नहीं दिया।”

कमरे में घुसती सासुमां के कदम दरवाजे पर रुक कर बात सुनने लगीं।

तब रागिनी ने कहा, “बुआ हर इंसान अपनी तरफ से अच्छे से अच्छा उपहार देने की कोशिश करता है, अब वो बात अलग है कि सामने वाला उपहार भावना से ना जोड़कर पैसे से तौलने लगे, उपहार की कीमत नहीं हमे देने वाले का मन भी देखना चाहिए।”

पीछे से रागिनी की माँ ने बोला, “बिल्कुल ठीक कहा जीजी बिटिया ने। कमियां निकालने वाले तो भगवान में भी कमी निकाल दें। उनके लिए तो अच्छी से अच्छी चीजें भी खराब दिखती हैं क्योंकि वो कमियों से बना चश्मा जो आंखों पर पहन के निकलते हैं। अच्छा बिटिया रखती हूं, कल चौथी पर तेरे पापा और बाकी लोग जाएंगे। तुझसे मिलने कुछ चाहिए तुझे तो बोल भिजवा दूँ।”

“नहीं माँ कुछ नहीं चाहिए”, कहकर रागिनी ने फोन रखा। 

शीशे से रागिनी ने देखा गीताजी की नजरें झुकी हुई थीं। वो कमरे में अंदर आने की बजाय बाहर चली गयीं। लेकिन आज रागिनी के मन को सुकून था कि उसने अपने मन की बात अपनी सास तक पहुंचा दी थी।

लेकिन साथ ही वो मन ही मन सोचने लगी कितना कुछ बदल गया अचानक अब ससुराल या मायका कहीं से कोई कमी हुई तो सुनना सिर्फ उसको ही होगा चाहे उसकी गलती हो या ना हो।

प्रिय पाठकगण, उम्मीद करती हूँ कि मेरी ये रचना आप सबको पसंद आएगी। किसी त्रुटि के लिए माफ करें। चोरौंधा की रस्म उत्तर प्रदेश और  बिहार में  विवाह के समय निभाई जाती है जिसमे दुल्हन की माँ दूल्हे की माँ यानी अपनी समधन को दूल्हे के हाथों चुपके से उपहार भिजवाती है।जो दूल्हा अपनी माँ को ले जाकर देता है।

मूल चित्र : Still from India Alert, Dahej/YouTube

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