कोरोना वायरस के प्रकोप में, हम औरतें कैसे, इस मुश्किल का सामना करते हुए भी, एक दूसरे का समर्थन कर सकती हैं? जानने के लिए चेक करें हमारी स्पेशल फीड!
यूएन जनसंख्या कोष रिपोर्ट 2021 के माध्यम से, महिलाओं द्वारा अपने शरीर के बारे में ख़ुद के निर्णय लेने की उनकी क्षमता को मापा है।
महिलाओं को अपनी जिंदगी से जुड़े निर्णय लेने की आज़ादी बहुत कम जगहों पर देखी जाती है। ऐसे भी महिलाएं अपने हक़ के लिए लड़ना सीख ही रही हैं, जहां उन्होंने अपने निर्णय को लोगों के सामने रखना सीखा है। ऐसे में महिलाएं अपने सेहत से जुड़े निर्णय आसानी से ले सके, ऐसा बहुत कम मायनों में देखा जाता है।
साल 2020 में कोरोना के दौरान ऐसी अनेक खबरों ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा था, जिसमें महिलाओं के साथ होने वाले सेक्शुअल हैरेसमेंट के केस बढ़ने की खबरें आईं थीं।
साथ ही पुरुषों द्वारा कंडोम नहीं इस्तेमाल करने के कारण कई महिलाएं गर्भवती हुई थीं, जिन्हें बच्चा नहीं चाहिए था मगर महिलाओं को ऐसे अधिकार नहीं दिए जाते, जहां महिलाएं अपने शरीर से जुड़े निर्णय स्वयं ले सकें।
UNFPA State of World Population Report 2021 की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को अपनी जिंदगी से जुड़े फैसलों को लेने के लिए स्वतंत्रता नहीं होती।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष रिपोर्ट 2021 के अनुसार विकास की राह में अग्रसर 57 देशों में महिलाओं को अर्बोशन, कंट्रासेप्टिव, सेक्सुअलिटी आदि से जुड़े फैसले नहीं लेने दिए जाते हैं क्योंकि महिलाएं अपने ही शरीर से जुड़ी बातों से अनजान रहती हैं कि उन्हें कब, क्या और कौन से स्टेप लेने हैं..?
हालांकि रिपोर्ट में अनेकों बिंदू को दर्शाने का प्रयास हुआ है, मगर महिलाओं से जुड़े स्वास्थ्य के मुद्दे को अहम मानते हुए हम महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी हकीकत से रुबरु होंगे।
भारत में महिलाओं को एबॉर्शन अर्थात गर्भपात का अधिकार 24 हफ्तों तक दिया जाता है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट 1971 के अनुसार महिलाएं अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को जन्म देने और ना देने का अधिकार सुरक्षित रखती हैं।
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 में बदलावों के बाद अर्बोशन की सीमा को रेप सर्वाइवर्स, दिव्यांग महिलाओं और नाबालिगों के लिए 24 हफ्तों तक बढ़ा दिया गया है। साथ ही विवाहित जोड़ों के लिए एमटीपी एक्ट को बदलावों के साथ लाया गया है, जिसमें गर्भनिरोधक के काम नहीं करने पर गर्भ को गिराया जा सकता है। साथ ही क्रिटिकल केसों में अर्बोशन की अवधि को बढ़ाया भी जा सकता है।
एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 में भारत लगभग 15-49 आयुवर्ग की 1000 महिलाओं में से 47 महिलाओं ने गर्भपात को अपनाया था, जिसमें से 81 प्रतिशत गर्भपात MMA (Medical Method of Abortion) द्वारा किए गए थे।
यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें दवाओं द्वारा गर्भपात किया जाता है। 14 प्रतिशत गर्भपात सर्जिकल प्रोसेस से हुए थे और 5 प्रतिशत गर्भपातों को बिना किसी डॉक्टरी परामर्श के कर दिया गया था।
गर्भपात के लिए सर्जिकल प्रोसेस का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बिहार, मध्य प्रदेश, असम, गुजरात, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में किया गया था। चौंकाने वाली बात यह है कि साल 2015 के बाद सही आंकड़ें जारी ही नहीं हुए।
हालांकि ऐसे कई गर्भपात होते हैं, जिसमें महिलाओं की मर्जी नहीं पूछी जाती बल्कि जबरन गर्भपात करवा दिया जाता है। साथ ही लड़कियों के बीच सेक्स एजुकेशन के अभाव में प्रेगनेंट हो जाने पर बिना सोचे-समझे दवाइय़ों का सेवन किया जाता है।
असल बात यह है कि जहां लड़कियों को बिना ज्यादा जानकारी के गर्भपात का निर्णय लेना पड़ता है, वहां भी जबरन गर्भपात का दंश छुपा रहता है क्योंकि बिना महिलाओं को अपने शरीर से जुड़ी जानकारी नहीं होती। उनके अंदर जागरुकता का अभाव इतना ज्यादा होता है कि उन्हें अपने शरीर से जुड़े कानूनों समेत स्वास्थ्य की जानकारी नहीं होती।
गर्भपात की प्रक्रिया यूं देखा जाए तो बिल्कुल भी आसान नहीं होती क्योंकि यह महिलाओं को मानसिक रुप से कमजोर कर देती है, मगर अपने शरीर से जुड़ी बातें हर एक महिला को पता होनी चाहिए ताकि महिलाएं सही निर्णय ले सकें।
जैसे- गर्भपात में MMA- Medical Method of Abortion को असरकारक और सुरक्षित माना जाता है, जब इसे डॉक्टर की निगरानी में लिया जाए। MMA में misoprostol and mifepristone ड्रग्स के कोमबिनेशन को दिया जाता है। 9 हफ्तों के गर्भाधारण के बाद इसे लेने से 95-98 प्रतिशत तक असरदार साबित होता है।
ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं पर परिवार का दबाव होता है कि वे ज्यादा बच्चे पैदा करें। अधिकांश जगहों पर लोग महिलाओं पर केवल इसलिए दबाव बनाते हैं ताकि बच्चों के बड़े हो जाने के बाद बच्चों को भी मजदूरी में शामिल कर दिया जाएगा और वे भी आय का साधन बनेंगे।
पुरुषों के अधीनस्थ समाज में नसबंदी जैसे कार्य स्वीकार्य नहीं होते क्योंकि पुरुषों को अपनी पौरुष के फिका होने का डर सताता है, जिस कारण महिलाएं भी बच्चों को जन्म देने के लिए बाध्य हो जाती हैं। अधिकांश दवाईयों की दुकानों पर पुरुष ही बैठते हैं, जिस कारण ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली महिलाएं वे कंट्रासेप्टिव खरीद नहीं पाती।
ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले गर्भपात के आंकड़े बहुत कम सामने आते हैं क्योंकि महिलाओं के बीच जागरुकता की कमी है, जिसे पाटने के लिए सरकारी सुविधाओं को महिलाओं तक पहुंचाने की जरुरत है।
संक्षेप में, यूएन जनसंख्या कोष रिपोर्ट 2021 की मानें तो, भारतीय महिलाओं के लिए ज़्यादा मुश्किलें इसलिए भी है क्यूँकि चाहे महिला किसी भी स्टेटस की हो, ज़्यादातर उसके फ़ैसले या यूँ कहिये उसके शरीर से जुड़े फैसले या तो उसका जीवनसाथी या उसके परिवार वाले ही लेते हैं।
भारत में खासकर, महिला का शरीर बस उसका न हो कर पूरे परिवार की जागीर हो जाती है जिसका रख-रखाव, कब बच्चा करना है, कब गिरना है, कब और कौन सा गर्भनिरोधक इस्तेमाल करना है, उसको छोड़ कर बाकी सब को पता है।
मूल चित्र : vinaykumardudam from Getty images Signature, Canva Pro
read more...
Please enter your email address