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त्योहार तो अपनो के साथ ही मनाए जाते है

बंद कमरे में अकेले बैठे-बैठे उनका जी उकताने लगा। बाहर झाँक कर देखा तो शांति थी। होली का हुडदंग ख़तम हो गया था।

बंद कमरे में अकेले बैठे-बैठे उनका जी उकताने लगा। बाहर झाँक कर देखा तो शांति थी। होली का हुडदंग ख़तम हो गया था।

आनंद की पत्नी हमेशा शिकायत करती, “आप होली पर कभी घर में नहीं रहते। कभी मेरे साथ भी होली खेलो।”

होली पर तो पड़ोस की सभी भाभियों के बीच आनंद बड़ा मनचला बन जाता था। दूसरी औरतों के बदन को होली के बहाने छूना उसे बड़ा मनभावन लगता और इसलिए होली उसे कुछ ज्यादा ही पसंद थी।

आनंद ने शादी होने के बाद शुरू-शुरू में पत्नी के संग होली खेली और कुछ सालों बाद फिर दोस्तों और अडोस –पड़ोस की महिलाओं के संग ही खेलता।

आज आनंद साठ साल का हो गया है, उसकी पत्नी का स्वर्गवास हुए दो साल बीत गए हैं। होली के समय घर के बाहर होली खेलने वालों का हो हल्ला सुनाई दे रहा था। अब कोई उसे रंग लगाने नहीं आता।

उसे पत्नी की बातें याद आ रही थी, “क्या जी, दिन भर दोस्तों के संग होली खेलते हो, मेरे लिए आपके पास समय भी नहीं है। मैं होली खेलने के लिए हाथों में रंग लिए इंतजार करती रही। इंतजार में रंग ही फीका पड़ हवा में उड़ गया।”

आनंद दोनों हाथों में गुलाल लिए तस्वीर पर गुलाल लगाने की सोच रहे  थे, पर अब वे पल लौट कर नहीं आ सकते जो गवाँ दिए।

अब वह बड़े-बूढों की श्रेणी में आते है और बड़े-बूढों को भला कौन रंग लगाता है। बंद कमरे में अकेले बैठे-बैठे उनका जी उकताने लगा। बाहर झाँक कर देखा तो शांति थी। होली का हुडदंग ख़तम हो गया था। पर अचानक उनके पोता-पोती कमरे से निकले और उसे लाल रंग के गुलाल से रंग डाला। आनंद के चेहरे पर हँसी खिल उठी। उनके बेटे और बहु ने भी आकर उनके ऊपर थोड़ा सा रंग लगा दिया।

आनंद को लगा जैसे फिर से उसके मन तरंग में रंग खिल उठे हों। अक्सर देखा गया है कि बुजुर्गों को कोई रंग नहीं लगाता।आनंद आँखों में आँसू लिए दोहरा रहा था, “त्यौहार तो अपनों के साथ ही मनाए जाते हैं, अब अपनी जिंदगी भर की हुई भूल का प्रायश्चित करने का समय आ गया है।”

मूल चित्र: Parachute Advance Via Youtube

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SHALINI VERMA

I am Shalini Verma ,first of all My identity is that I am a strong woman ,by profession I am a teacher and by hobbies I am a fashion designer,blogger ,poetess and Writer . मैं सोचती बहुत हूँ , विचारों का एक बवंडर सा मेरे दिमाग में हर समय चलता है और जैसे बादल पूरे भर जाते हैं तो फिर बरस जाते हैं मेरे साथ भी बिलकुल वैसा ही होता है ।अपने विचारों को ,उस अंतर्द्वंद्व को अपनी लेखनी से काग़ज़ पर उकेरने लगती हूँ । समाज के हर दबे तबके के बारे में लिखना चाहती हूँ ,फिर वह चाहे सदियों से दबे कुचले कोई भी वर्ग हों मेरी लेखनी के माध्यम से विचारधारा में परिवर्तन लाना चाहती हूँ l दिखाई देते या अनदेखे भेदभाव हों ,महिलाओं के साथ होते अन्याय न कहीं मेरे मन में एक क्षुब्ध भाव भर देते हैं | read more...

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