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परवरिश बहुत सावधानी से करनी होती है। यहीं से संस्कार मिलते हैं और यही आपका व्यक्तित्व भी तय करती हैं। पर सबकी परवरिश में अंतर होता है।
परवरिश बहुत सावधानी से करनी होती है। यहीं से संस्कार मिलते हैं और यही आपका व्यक्तित्व भी तय करती है, पर सबकी परवरिश में अंतर होता है।
नोट :मदर्स डे पर #breakthechain की अगली एंट्री है संगीता त्रिपाठी की ! हार्दिक बधाइयाँ !
एक कट्टर ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने वाली नमिता, जब माँ बनी तो उसने सोच लिया था कि बेटी को आत्मनिर्भर ज़रुर बनाऊँगी। वो शौक, जो मर्यादा की दुहाई दे, उसे छोड़ना पड़ा। कत्थक की दीवानी नमिता बड़ी मुश्किल से माँ को राजी कर पाई थी नृत्य के लिए।
सीखना शुरू ही किया था कि दो साल के कोर्स के बाद नमिता को कत्थक छोड़ना पड़ा।
“अब तुम बड़ी हो गई हो”, कह घुंघरु की जगह, मर्यादा की बेड़ियाँ पहना दी गईं।
विरोध करने के लिए नमिता अकेली थी, क्योकि माँ ने भी बाकी सब का ही साथ दिया। लड़की होने का खामियाजा नमिता को भुगतना पड़ा।
कम उम्र में शादी ये कह कर कर दी गई, “तुम्हारे पिता रिटायर हो रहे और अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं।”
आँखों में अनगिनत सपनों ने उगने से पहले दम तोड़ दिया, उन सपनों की राख किसी ने नहीं देखी। एक मासूमियत को जिम्मेदारी का जामा पहना दिया गया।
शादी के बाद, जल्दी दो बच्चों की माँ बनी नमिता अपने से पांच साल आगे की जिंदगी जी रही थी। जिंदगी से तारतम्य बैठाती वह रूढ़ियों के विरुद्ध होती गई, क्यूँकि जानती थी ये रूढियाँ आगे बढ़ने में रूकावट हैं।
अपनी पहचान बनाने में लगी नमिता, अपने बच्चों की परवरिश बहुत सावधानी से कर रही थी। बेटी के लिए कमर कस ली, जो उसकी माँ नहीं कर पाई। माँ के सोच का दायरा उतना ही था, जितना घर के पुरुष ने दिखाया। पर नमिता ने अपनी सोच को आगे बढ़ाया, “जो मेरे साथ हुआ, बेटी के साथ नहीं होने दूँगी।”
एक माँ ने जब ठान लिया तो उसको भला कौन हरा सकता है।
बेटी-बेटे दोनों को अच्छी तालीम देने के साथ, कई विद्याओं में निपुण भी किया। बेटी बहुत अच्छा भारतनाट्यम करती थी। बड़ी हो जाने पर भी उसके नृत्य या संगीत की रुचियों पर कोई विराम नहीं लगाया। जिस दिन बेटी पढाई ख़त्म कर जॉब में लगी, नमिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे लगा आज उसकी तपस्या पूरी हो गई।
आज नमिता की बेटी को पहली सैलरी मिली।
सैलरी ला नमिता के हाथ में रख, बिटिया बोली, “माँ इसकी हक़दार आप ही हो। आपने ही हर निराशा और आशा के बीच संतुलन करना सिखाया। आपकी मेहनत ने ही मुझे ये मुकाम दिया।”
वहीं बेटा भी एक उपहार ले खड़ा था। खोल कर देखा तो घूँघरू वाले पाजेब थे। जब उसने पूछा, “ये क्या?”
तो बेटे ने जवाब दिया, “आपके सपनों की चाभी। उठिये, शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती।”
“पर बेटा अब मेरी उम्र नृत्य के लायक नहीं हैं।”
“किसने कहा माँ? उम्र कभी भी किसी चीज के लिए बाधक नहीं होती हैं, बाधक सोच होती हैं।”
नमिता अपनी परवरिश पर गदगद हो उठी। सारी मेहनत सार्थक हो उठी। अपनी माँ को याद कर आँसू आ गये, ‘काश माँ ने मेरा भी साथ दिया होता। तो आज मैं भी आत्मनिर्भर होती। शायद ये दो पीढ़ियों की परवरिश का अलग-अलग अंदाज हैं।’
नमिता की माँ की परवरिश में रूढ़ियाँ, बंधन, संकीर्ण विचारधारा थी। इनसे सबक ले नमिता ने अपनी बेटी के लिए हर द्वार खोल दिया। जिससे उसकी बेटी का समुचित विकास हो सके।
मूल चित्र : Parachute Advanced Ad/ YouTube
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