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इतना लाचार तो पापा को तब भी नहीं देखा था जब मेरे रिश्ते के लिए ना होती थी। कितने बूढ़े कितने लाचार लग रहे थे पापा।
मैं हमेशा सोचती कि दीदी इतनी सुन्दर और मैं इतनी साँवली क्यूँ? सब तो सुन्दर ही थे घर में चाहे पापा हो, मम्मी हो, दीदी हो या छोटू मेरा भाई। हाँ, पापा का रंग थोड़ा दबा था, पर मैं तो उनसे भी आगे निकल गई।
सब मम्मी से पूछते रहते, “पिंकी का रंग क्यूँ दब गया?” और उनके जाने के बाद शुरू होता मम्मी का मेरे ऊपर उबटन लगाने का दौर जिससे मुझे सख्त नफरत होती। फिर भी मम्मी ख़ुश रहे ये सोच चुप रह जाती।
“खाना खाया कि नहीं, पढ़ाई की या नहीं, ये पूछे या ना पूछें पर उबटन लगाया कि नहीं ये जरूर पूछती रहती थी। इतने सालों से तो लगा रही थी, क्या हुआ कुछ फर्क पड़ा क्या?” दिल करता चीख चीख के पूछूँ पर नहीं संस्कार जो नहीं थे।
दीदी को आराम था उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। सब सिर्फ तारीफ करते और मम्मी ख़ुश होती। कहीं जाना हो तो वही साथ जाती मम्मी के। वैसे मुझे मम्मी ने रोका नहीं था। प्यार भी बहुत करती थी, पर मुझे पता था दीदी साथ जाये तो बहुत से सवाल उठेंगे ही नहीं।
एक पापा ही तो थे, मेरे प्यारे पापा, जो सिर्फ प्यार करते कभी कुछ पूछते नहीं, मेरे दिल का हाल जानते जो थे।
छोटा सा सुखी परिवार जिसमे सब कुछ था। जैसे फिल्मो में होता है बिलकुल वैसे ही इमोशन, लव, ड्रामा और मेरे मम्मी का एक्शन सब कुछ।
दीदी का पढ़ाई में तो कुछ ख़ास दिल लगता नहीं था और उम्र भी बीस हो गई तो लग गए मम्मी पापा दामाद ढूंढ़ने में। वैसे ढूंढना क्या था? लम्बी लाइन थी दीदी के लिए उन्हें तो सिर्फ चुनना था और उन्होंने चुना भी अफसर दामाद।
खुशी से बावली हो गई थी मम्मी, रोज़ नज़र उतारे दीदी के, की कहीं उनकी नज़र ना लग जाये दीदी को। बहुत धूमधाम से शादी हुई दीदी की, राजसी जोड़ी लग रहे थे दोनों। कोई किसी से कम नहीं जो भी देखे वाह वाह करें।
मुझे और छोटू को भी अच्छे पैसे मिले जूता छिपाई में। खैर, दीदी विदा हो गई और अपने सुखी संसार में अच्छे से रम भी गई।
यहाँ, हमारे घर उबटन कार्यक्रम जोरों से चालू था क्यूंकि अगला नंबर मेरा जो था और मम्मी कोई चांस तो लेने से रही। पापा भी जुट गए मेरे लिए लड़का ढूंढ़ने में। अब इस बार कोई लाइन तो थी नहीं तो पापा को ही लाइन में लगना था लड़के वालो के घर के सामने।
पापा को परेशान देख बहुत दुःख होता पर वो सुनते भी नहीं थे मेरी। इस बीच ख़बर आयी दीदी उम्मीद से है सब बहुत ख़ुश हुए। पापा को ढेरों समान के साथ मम्मी ने दीदी के ससुराल भेजा।
देखते देखते डिलीवरी का टाइम आ गया सब कुछ नार्मल ही था कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। जिस दिन डिलीवरी थी, हम सब हॉस्पिटल गए थे।
नार्मल डिलीवरी में दिक्कत बता डॉक्टर ऑपरेशन करने लगी। फिर क्या हुआ, कहाँ चूक हुई दीदी ऑपरेशन टेबल पर ही चली गई सबको छोड़ हमेशा के लिए। बच्चे ने दीदी को देखा भी नहीं और चली गई।
सबको जैसे लकवा मार गया था। मम्मी, पापा, जीजू उनका परिवार सब किसी को होश नहीं सब बस दीदी से लिपटे पड़े थे। सिर्फ मैं थी एक कोने में खड़ी अपनी फटी फटी आँखों से ताकती। मेरी फॅमिली में ट्रैजिडी भी होगा ये तो सोचा ही नहीं था कभी मैंने।
किसी ने झकझोरा देखा तो नर्स थी। एक गुलाबी कपड़े में लिपटे, गुलाबी चेहरे वाले नन्हे से बच्चे को मेरे बाहों में दे दिया, टुकुर टुकुर उसे मैं ताकूँ और मुझे वो। कैसी लीला थी ये, जिसकी बाहों में इस नन्हे को होना चाहिए था वो तो दूसरों के बाहों में पड़ी थी निर्जीव बन।
दुल्हन की तरह सजा कर विदा किया गया दीदी को, आज भी उतनी ही सुन्दर लग रही थी जैसे हमेशा लगती और मुझसे पूछती, “बता पिंकी लग रही हूँ ना हीरोइन?”
और मैं कहती, “हाँ दीदी बिलकुल ऐश्वर्या लग रही हो!” आज दीदी ने तो नहीं पूछा मुझसे पर मैंने कहा, “आज भी हीरोइन लग रही हो दीदी।”
जीजू की तो दुनिया ही लुट गई कांपते हाथों से मांग भरा दीदी का और गिर पड़े धरती पे। क्या हुआ था? बेटा की बेटी ये भी नहीं पूछा था किसी ने, बस एक मैं थी जिसकी गोद में सोया था वो नन्हा अपनी मासी की गोद को माँ की गोद समझ।
सब घर आ गए, दीदी की सास ने मुझे मुन्ने को ले जाने दिया वो भी किस किस को संभालती बेटे को या पोते को।
वक़्त ऐसा मलहम है जो बड़े से बड़े घाव भर देता है पर ना जाने क्यूँ दीदी के जाने का घाव भर ही नहीं पा रहा था।
मुन्ना अब छः महीने को हो गया था मुझे ही अपनी माँ समझता। कोई संस्कार नहीं हो पाया मुन्ने का, ना छट्टी पूजन और ना ही नामकरण। दीदी का नाम गुड्डन था तो मैंने मुन्ने का नाम गुड्डू रख दिया।
रोज़ गुड्डू को तैयार कर काला टीका लगाती और दीदी की तस्वीर से पूछती, “क्यूँ दीदी लग रहा है ना गुड्डू हीरो की तरह?” तो लगता दीदी की तस्वीर कह रही है, “हाँ पिंकी एकदम हीरो लग रहा है।”
एक दिन सुबह सुबह रोने सिसकने की आवाज़ आने लगी दरवाजे से झांका तो दंग रह गई, दीदी की सास आंचल फैलाये खड़ी थी और मम्मी पापा बस रोये जा रहे थे।
जब उनकी बात सुनी तो समझ आया दीदी की सास मेरा हाथ जीजू के लिए मांगने आयी थी और सबको धर्म संकट में डाल चली गईं। पूरे दिन घर में एक सुई गिरने की आवाज़ भी नहीं आयी सब अपने अपने विचारों में डूबे थे।
रात को पापा आये मेरे पास। गुड्डू को दुलार कर पूछा, “कुछ सोचा पिंकी बेटा?”
इतना लाचार तो पापा को तब भी नहीं देखा था जब मेरे रिश्तों को ना होती थी। कितने बूढ़े कितने लाचार लग रहे थे, पापा कैसे देख सकती थी उनको इस तरह?
“हाँ पापा सोचा है।”
माँ भी वही खड़ी थी, दरवाजे की ओट में। देख लिया था मैंने, पर शायद सामने आने की हिम्मत नहीं थी उनकी एक बेटी को खो चुकी थी और अब दूसरी को।
“पापा! अब गुड्डू ही मेरा सब कुछ है। इसे अनाथ नहीं देख सकती, इसे छोड़ मैं कहीं जाऊंगी नहीं, तो मेरी हाँ है पापा।”
पापा ने कुछ नहीं कहा सिर्फ सिर पे हाथ फेर चले गए। मेरे एक हाँ ने कितना कुछ बदल दिया गुड्डू को उसका घर उसके पापा का प्यार मिल गया और सब की चिंताओं का अंत हो गया।
एक बार फिर मण्डप सजा, पर इस बार किसी ने वाह वाह नहीं की, ना माँ ने नज़र उतारी, ना ही छोटू ने जूते चोरी किये। सर्फ़ गठबंधन हुआ एक नये रिश्ते का और मैंने गृहप्रवेश किया गुड्डू को गोद लिए।
गुड्डू के साथ मैं “मासी माँ” से सिर्फ “माँ” के एक स्नेह के अटूट बंधन में बंध गई थी।
मूल चित्र: Johnsons Via Youtube
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