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अब मैं आपके ऐसे खोखले नियम नहीं मानूँगी…

महीने के उन दिनों वो अपने कमरे में ही रहती लेकिन सोनू के होने के बाद सुधा अपनी सास के इस नियम से परेशान हो जाती। 

महीने के उन दिनों वो अपने कमरे में ही रहती लेकिन सोनू के होने के बाद सुधा अपनी सास के इस नियम से परेशान हो जाती। 

भूख से बेहाल सुधा कभी आपने छः महीने के रोते बेटे को संभालती तो कभी कमरे के दरवाजे से झाँक आती। खुद के भूख से ज्यादा अपने बेटे सोनू के भूख उसे बेहाल किया जा रहा था। बार-बार सोनू को छाती से लगाती इस आशा में कि शायद उसका का दूध पी सोनू की भूख शांत हो पाये लेकिन अफ़सोस जब माँ खुद भूखी हो तो भला कैसे अपने बच्चे को दूध कैसे पिला पाती?

सुधा की शादी को दो साल होने को आये थे। ससुराल भरा पूरा मिला था। सास-ससुर, एक बड़ी शादी-शुदा नन्द और पति अरुण। सुधा की सास रमा जी बेहद पूजा पाठ वाली महिला थीं। पुराने ज़माने के विचार और सोच के साथ रहती। रमा जी नियमों को ले कर बेहद सख्त थीं। ऐसा ही एक नियम था माहवारी के वक़्त रसोई में नहीं जाने का। 

रमा जी का घर में कड़क अनुशासन था तो सुबह उठ कर नहा धो कर ही रसोई में सुधा को जाने की अनुमति होती। महीने के उन दिनों में सुधा को रसोई और मंदिर के आस पास भी आने की अनुमति नहीं होती थी।

जब तक सुधा माँ नहीं बनी तब तक तो उसे ख़ास परेशानी नहीं हुई। महीने के उन दिनों वो अपने कमरे में ही रहती लेकिन सोनू के होने के बाद सुधा अपनी सास के इस नियम से परेशान हो जाती। 

आज भी रमा जी सिर्फ आधे घंटे में वापस आने को कह पड़ोस में होने वाले कथा को सुनने चली गई थी लेकिन दस बजने को आये थे और रमा जी का कहीं कोई आता पता ही ना था। रात को भी सोनू परेशान कर रहा था सुधा ने खाना ठीक से नहीं खाया था। अरुण घर पे होते तो मदद मिल जाती लेकिन वो भी ऑफिस टूर पे शहर से बाहर थे। 

अपनी बेबसी पे सुधा की ऑंखें भर आयी और जब घड़ी ने दस बजा दिये तो सुधा का सब्र ज़वाब दे गया अगर खुद की बात होती तो शायद वो रुक भी जाती लेकिन अपने अबोध बच्चे को भूख से बिलखता देखना अब सुधा के बस में नहीं था। 

सुधा सब कुछ भूल झट से रसोई में गई और सोनू के बोतल में दूध भर उसके मुँह में लगा दिया।  “रेगिस्तान में भटकते मुसाफिर को जैसे पानी की बूंद अमृत समान लगती है वैसे ही आज सोनू को अपनी दूध की बोतल लग रही थी।

भूख से बेहाल और रोते रोते थका सोनू दूध पी सो गया। भूखी तो सुधा भी थी तो बस खुद के लिये चाय बनाई और जैसे ही बिस्कुट का एक टुकड़ा मुँह में डाला रमा जी घर लौट आयी, सुधा को माहवारी के दिनों में रसोई में खड़ी देख रमा जी का पारा सातवें आसमान पे था। 

“बहु तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई रसोई में कदम रखने की, सारा घर और रसोई अपवित्र कर दी। जब तुम्हें पता है रसोई में ठाकुर जी का भोग बनता है तो हिम्मत कैसे हुई कदम रखने की? क्या घंटे भर भूखी नहीं रह सकती थी?” क्रोध से रमा जी थर थर कांपने लगी तो वहीं सुधा अपनी सास की बात सुन अवाक् रह गई। 

“ये क्या कह रही हैं आप माँजी? मासिक धर्म एक स्वाभविक शारीरिक क्रिया है जिससे हर औरत गुजरती है। मैं गुजर रही हूँ, कुछ सालों पहले तक आप भी गुजरती थी। जो क्रिया माँ बनने के लिये जरुरी है उससे कोई स्त्री अपवित्र कैसे हो सकती है?

सुबह सात बजे मात्र आधे घंटे में वापस आने को कह आप दस बजे के बाद आ रही हैं। क्या आपने एक बार भी सोचा की मैं और सोनू कैसे होंगे? और जहाँ तक नियम तोड़ने और भूखे रहने की बात है तो खुद के लिये मैं सारा दिन भूखी रह सकती हूँ लेकिन अपने नन्हे बेटे को भूख से तड़पता नहीं देख सकती। बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं, फिर वो कैसे नाराज़ हो सकते है सोनू से बताइये माँजी?”

अपनी गऊ जैसी बहु को आज ऑंखें दिखाता देख शांति जी दंग थीं। 

“मुझसे ऐसे बात करने की हिम्मत कैसे हुई बहु?”

“वो इसलिए माँजी क्यूंकि आज आपके सामने सिर्फ आपकी बहु नहीं एक माँ खड़ी है। जब से मैं इस घर में आयी मैं हमेशा चुप रही, और आपके इन सारे खोखले नियमों को मानती भी रही। लेकिन अब और नहीं मैं नहीं मानती इन खोखले नियमों को। अब अगर आपको मेरे साथ राज़ी ख़ुशी रहना है तो आपसे विनती है कि ऐसे खोखले नियमों को त्याग दे जिनका कोई अर्थ नहीं।” 

रमा जी अवाक् खड़ी देखती रह गई मुँह से एक शब्द ना फूटा मन ही मन वो समझ गई की बहु बन सुधा ने उनके हर जायज नाजायज बात मानी लेकिन माँ के रूप में वो नहीं मानेगी। अब खोखले नियम टूट चुके थे और सुधा अब आराम से माहवारी के दिनों में रसोई बनाती। घर में फिर से सुख शांति छा गई। 

मूल चित्र : Still from short film Beti/The Short Cuts, YouTube

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